नई दिल्ली:
बेदी जी आपकी शब्दावली में अगर कहा जाये तो राजनीति डिग्री से नहीं, 3 डीस (3Ds) से आदमी सीखता है। 'धक्के', 'धोखे' और 'दर बदर की ठोकरे'। लगता है आपके आंदोलन और धरना क्लासमेट अरविन्द केजरीवाल राजनीति के बारे में अब काफी कुछ सीख गए हैं। केजरीवाल कितने सफल हुए ये तो अब 10 फरवरी को नतीजों के साथ ही पता चलेगा, लेकिन जिस होशियारी से वो रणनीति बना रहे हैं, उससे तो लगता नहीं कि अब कभी आवेश में आकर राजनैतिक फैसले करने की भूल करेंगे। गौर करते हैं -
1) स्टिंग : विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त पर बीजेपी के नेताओं का स्टिंग जब आम आदमी पार्टी ने किया तो जोड़-तोड़ की सरकार बनाने का 'रिस्क' भाजपा नहीं उठा सकी। इस तरह केजरीवाल ने दोबारा चुनाव करवाये जाने की आवाज़ को ज़िंदा रखा और आखिरकार चुनाव हो रहे हैं।
2) जगदीश मुखी बनाम केजरीवाल : जैसे ही विधानसभा भंग हुई, अगले ही दिन से दिल्ली में ऑटो घूमते दिखाई देने लगे जिनके पीछे दिल्लीवासियों से पूछा गया था कि आप किसे मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं - केजरीवाल को या जगदीश मुखी को। भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित भी नहीं किया था, लेकिन केजरीवाल की मुखी से तुलना में केजरीवाल का ऊपर चढ़ना तो तय था।
3) सतीश उपाध्याय : पिछले साल बिजली आंदोलन करके केजरीवाल ने भाजपा के विजय गोयल को चुनाव से पहले ही हरा दिया था। विजय गोयल के मंच से ही उन्होंने जनता को बिजली के लिए राज्य सरकार और चुप्पी साधे रखने के लिए भाजपा को दोषी ठहराया और गोयल देखते रह गए। सत्ता में आने के बाद बिजली कंपनियों के ऑडिट शुरू करवाये और सब्सिडी से जनता के बिल भी कम किये। इस बार फिर से भाजपा के सतीश उपाध्याय के बिजली कंपनियों से सांठ-गांठ को उजागर कर भाजपा को पहला झटका दिया और करंट कुछ ऐसा लगा कि उपाध्याय को इस बार टिकट भी नसीब नहीं हुआ।
4) डिबेट विद किरण : सतीश उपाध्याय पर लगे आरोपों पर भाजपा ने किरण बेदी की एंट्री से पर्दा डालना चाहा और एक दिन के लिए कामयाब भी हुई जब सारी मीडिया का ध्यान बेदी पर ही केंद्रित हो गया। लेकिन अगले ही दिन केजरीवाल ने किरण बेदी का स्वागत किया और मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी लेते ही उनसे अपने साथ बहस में दो-दो हाथ करने को कहा जिससे बेदी जी अभी तक भागती ही दिख रहीं हैं। तब से मीडिया और सोशल मीडिया पर बहस यही है कि इन दोनों में बहस होनी ही चाहिए।
5) मफलरमैन : केजरीवाल ने अपनी मिडिल क्लास पहचान को इस चुनाव में भी नहीं छोड़ा जबकि सोशल मीडिया पर उनका इस मफलर और खांसी की वजह से खूब मज़ाक बना। वो आज भी उसी अंदाज़ में अपना मफलर ओढ़ते हैं।
6) माफ़ी और मेहनत : केजरीवाल अपने इस्तीफे देने का पक्ष लोगों को नहीं समझा पाये, लेकिन उन्होंने जनता की भावना समझी और माफ़ी मांग कर आगे बढ़े। उनके घर-घर जाकर किए प्रचार से नतीजा ये हुआ कि टीवी पर दिखाए गए सर्वेक्षणों में आम आदमी पार्टी की हालत अच्छी हुई और भाजपा अपनी 'लहरिया' नींद से झटके के साथ जागी।
7) पूर्व विधानसभा क्षेत्र से नामांकन भरा - केजरीवाल ने इस बार बिना कोई चुनौती दिए अपनी पूर्व विधानसभा सीट से ही नामांकन भरने का मन बनाया और इंतज़ार किया कि भाजपा बेदी को कहां से चुनाव लड़वाएगी। भाजपा ने भी अपनी सबसे सुरक्षित सीट पर किरण बेदी को खड़ा किया जहां से हर्षवर्धन पिछले पांच चुनावों से जीतते आ रहे हैं। हालांकि भाजपा के इतने 'बैकफुट' पर होने की उम्मीद शायद ही किसी ने की होगी। क्योंकि ये ज़ाहिर सी बात है कि केजरीवाल के मुकाबले भाजपा किरण को लाई, लेकिन विधानसभा सीट पर उन्हें आमने-सामने नहीं होने देना चाहती।
8) रोड शो : नामांकन भरने निकले केजरीवाल का रोड शो बाकी दोनों पार्टियों से कहीं बढ़ कर था। मीडिया को भी इसे शक्ति प्रदर्शन का नाम देना पड़ा। इससे ये भी साफ़ हो जाता है कि केजरीवाल ने अपने संगठन पर काम किया है। भले ही कुछ नेता लोकतंत्र न होने का हवाला देकर पार्टी छोड़ कर चले गए, लेकिन केजरीवाल ने अपने कार्यकर्ताओं को बांधे रखा है। कार्यकर्ता के इसी उत्साह की कमी किरण बेदी के रोड शो में साफ़ झलकी।
देखा जाए तो एक तरह से दो-ढाई साल पुरानी इस पार्टी ने पुरानी पार्टियों की नींदें तो उड़ा ही दी है कि अब पार्टियों को अपने 'पार्टी उसूलों' से समझौता करना पड़ रहा है और ईमानदार छवि वालों को मैदान में उतारना पड़ा है।