वित्त मंत्री अरुण जेटली अगले माह केंद्रीय बजट पेश करेंगे (फाइल फोटो)
जिस दिन नोटबंदी का ऐलान हुआ था तब पता नही चल पा रहा था कि सरकार के मन में क्या है. लेकिन उसके कारणों को अब जरूर समझा जा सकता है. सबको पता है कि अपनी सरकार शुरू से ही जिस तरह की मुश्किल में पड़ी है उससे निजात के लिए उसे बस ढेर सारे पैसे की जरूरत थी, उसी से वादे पूरे होने थे. लेकिन नोटबंदी के जरिए ढेर सारा काला धन बरामद करने में सरकार फेल हो गई. यानी बेरोजगारी, किसानों की कर्ज माफी, पीने व सिंचाई के पानी का इंतजाम और कामधंधों में मंदी से निपटने का काम इस साल भी रह जाएगा. हिसाब इतना गड़बड़ाया हुआ है कि नोटबंदी पर जो भारी भरकम खर्च हुआ है उसका बोझ भी इसी बजट पर पड़ना है. यह देखना रोचक होगा कि नोटबंदी पर हुए खर्च और नुकसान को सरकार किस तरह छुपा पाती है.
सब कुछ आजमाकर देख लिया
मौजूदा सरकार की गलतफहमियां पिछले तीन साल में दूर हो चुकीं हैं. अब उसे पता लग चुका है कि वह पूरे देश से बटोर-बटार कर बीस लाख करोड़ से ज्यादा रकम नहीं ला सकती. सर्वांग जोर लगाकर पिछले बजट का आकार सिर्फ 19 लाख 90 हजार करोड़ बन पाया था. वह भी तब, जब सरकार ने ब्रॉड बैंड स्पैक्ट्रम और कोयला खदानों के पट्टों की पुरानी नीलामी रद्द करके और नए सिरे से नीलामी करके देख ली थी. अब चूंकि इन नीलामियों में चोरी-घूसखोरी का शोर मचाकर ही मौजूदा सरकार पिछली सरकार को हटा पाई थी सो उनकी नीलामी रद्द करना मजबूरी थी. लेकिन हो गया उल्टा. अनुमान था कि सरकारी खजाने में स्पैक्ट्रम बेचने की नई कवायद से 1 लाख 76 हजार करोड़ और कोयला खदानों की नई नीलामी से एक लाख 86 हजार करोड़ की रकम आ जाएगी. लेकिन उससे मिला कुछ नहीं. यही कारण रहा होगा कि पिछले साल के बजट का आकार बीस लाख करोड़ का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाया था.
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कच्चे तेल के दामों से बचे रहे
वह तो भला हो अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरे कच्चे तेल के दामों का कि सरकार के पास डेढ-दो लाख करोड़ की रकम बच गई. ये रकम भी तब बची जब कच्चे तेल के भाव गिरने के बावजूद जनता को उतना सस्ता डीजल बेचने में बेईमानी करनी पड़ी. नियम था कि कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भाव के हिसाब से डीजल-पेट्रोल सस्ता होगा. लेकिन उपभोक्ताओं को तेल उतना सस्ता नहीं दिया गया. इससे खूब सारा पैसा बचा. लेकिन देश के दूसरे कार्यक्रम चलाने के नाम पर यह पैसा तेल उपभोक्ताओं की बजाए सरकारी खजाने में ले जाया गया था. डीजल-पेट्रोल उतने हिसाब से सस्ता करने की बजाए सरकार ने तेल की बिक्री पर अपने टैक्स बढ़ा लिए थे. वरना पिछले साल ही सरकार के हाथ खड़े दिखाई देने लगते. अब तो यह भी नई समस्या है कि कच्चे तेल के भाव चढ़ने शुरू हो गए हैं. सरकार के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं बचा है कि तेल की बिक्री पर जो वह ताबड़तोड़ टैक्स वसूल रही है उसे ही कम करना होगा. जाहिर है कि देश की अर्थव्यवस्था को संयोगवश कच्चे तेल भाव एक तिहाई हो जाने का जो लाभ मिला था, वह भी खत्म होना शुरू हो गया है.
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रुपए की कीमत भी गिरती चली गई
सत्ता में आने के पहले सरकार का दावा था कि वह डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती हालत संभाल लेगी. लेकिन इन ढाई साल डॉलर 58 से बढ़कर 68 रुपए हो गया. विदेश से तेल और दूसरे सामान का भुगतान डॉलर में ही होता है, सो अपने खजाने से रुपया तेजी से बाहर जाता चला गया. रुपये की कीमत बढ़ाने के लिए सरकार जैसे वायदे करके आई थी वे वायदे अभी सरकार को किसी ने याद नहीं दिलाए हैं. हो सकता है कि इस साल के बजट पेश होते समय रुपये की घटती कीमत भी सनसनी फैला दे. हालांकि यह कोई अचानक हुई घटना नहीं होगी. डॉलर के मुकाबले रुपया दो साल से महीने दर महीने 'दुबला' होता जा रहा था. कुल मिलाकर सरकारी खजाने की हालत पतली होती जा रही थी. यह परेशानी भी बजट में दिखेगी.
सिर्फ खुशफहमी का सहारा लिया
पतली होती माली हालत में जैसा हर देश के साथ होता है यह जरूरी था और मजबूरी थी कि अपनी माली हालत को अच्छा बताया जाता. सो लगातार हमने भी बताया. लेकिन अर्थशास्त्रियों के मुताबिक यह उपाय लंबे समय तक नहीं चलता. खुशफहमी के अलावा फौरन ही कुछ और भी सोचना और करना जरूरी होता है. यहीं पर अर्थशास्त्रियों, योजनाकारों और विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों और प्रौद्योगिकीविदों की जरूरत पड़ती है. लगता है इसी मामले में गलती हो गई. आखिर तक खुशफहमियों के सहारे काम चलता रहा और एक ऐसा कालबिंदु आ गया कि बैंकों के दिए कर्जे वापस आना कम हो गए. हम सूचना के अधिकार से संपन्न जरूर कहे जाते हैं लेकिन आखिर तक पता नहीं चल पाया कि देश की माली हालत की वास्तविक स्थिति है क्या.
बजट के नजरिए से नोटबंदी
बजट आने को एक हफ्ता बचा है. वैसे तो बजट का माहौल इसके पेश होने के डेढ़ महीने पहले से शुरू हो जाता है. लेकिन बजट के तीन महीने पहले नोटबंदी का जो धमाका कियाा गया उसने पूरे देश को उलझा दिया. आज तक पता नहीं चला कि नोटबंदी का अचानक फैसला लेने के पीछे मुख्य कारण क्या था. कोई कहता है कि बैंकों की हालत बेहोशी जैसी हो गई थी, कोई कहता है कि भ्रष्टाचार और कालाधन मिटाने के वायदे सरकार का पिंड नहीं छोड़ रहे थे. किसी का कहना है कि नोटबंदी के जरिए विपक्षी दलों को पैसे से पंगु बना कर उत्तरप्रदेश का चुनाव साधना मकसद था. ज्यादा गौर से देखेंगे तो नोटबंदी के पीछे ये कारण हो भी सकते हैं. बजट को साधना उससे भी बड़ा कारण दिखता है. लेकिन मकसद सधा हुआ दिख नहीं रहा है.
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नए वादे लादते चले गए
पुराने वादे पूरे हो नहीं पाए. ऊपर से इस वित्तीय वर्ष में नए ऐलान और कर दिए गए. अब अगर बजट में उन कामों के लिए पैसे का प्रावधान नहीं किया गया तो सरकार की विश्वसनीयता और गिर जाएगी. इस चक्कर में पुराने काम और ज्यादा बड़े हो जाएंगे. खासतौर पर बेरोजगारी और किसानों के कर्ज का काम इतना बड़ा बन गया है कि युवकों और किसानों को दिलासा देने के लिए इसी साल के बजट में कुछ न कुछ करते दिखना पड़ेगा. लेकिन दोनों ही काम आकार में इतने बड़े हैं कि इस पर फौरी तौर पर सिर्फ एक डेढ़ लाख करोड़ खर्च करने से हालत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. ले-देकर एक ही सूरत बनती है कि अगले हफ्ते पेश होने वाले बजट में देश की आमदनी और खर्च के हिसाब की बजाए बातें ही ज्यादा दिखाई देंगी या फिर भविष्य में आमदनी की उम्मीद दिखाकर खर्च बढ़ा लिया जाएगा. देखते हैं क्या होता है...
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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