सेलुलर जेल की यातना सह रहे हैं बिहारी मज़दूर

सेलुलर जेल की यातना सह रहे हैं बिहारी मज़दूर

नई दिल्ली:

मैंने अंडमान की सेलुलर जेल भी देखी है। दिल्ली के कापसहेड़ा और गुड़गांव के उन गांवों को भी देखा है, जहां बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा से आए मज़दूर रहते हैं। आपको हैरानी होगी। सेलुलर जेल और जिन किराये के मकानों में मज़दूर रहते हैं दोनों में कोई अंतर नहीं है। खाण्डसा, मोहम्मदपुर, नरसिंहपुर, अंजना कालोनी और शक्ति पार्क। ये सब गांव नहीं हैं, बल्कि अंग्रेज़ों के दौर के अंडमान हैं, जहां काला पानी की सज़ा होती थी।
 


ठीक सेलुलर जेल की तरह दस बटा दस फुट के कमरे बने हैं। गांवों वालों ने अपने खेतों में किराये के लिए ये कमरे बनाए हैं। हर कमरे के ऊपर उसी साइज़ का कमरा बनता चला जाता है। जैसे सेलुलर जेल में बना है। कहीं भी जाइये कम से कम बीस से सत्तर अस्सी कमरों का ऐसा कैम्पस मिलेगा। ज़्यादातर कमरों में खिड़कियां नहीं होती हैं। सुरक्षा नियमों को ताक पर रखकर ये मकान बनाए गए हैं। सीढ़ियों पर रेलिंग तक नहीं हैं। इन मकानों से सुबह के वक्त सौ दो मज़दूर एक साथ भीड़ बनाकर निकलते हैं। इन कमरों में रहने के नियम काला पानी के जैसे ही बनाए गए हैं।

हर कमरा अब दो से ढाई हजार का है। एक कमरे में दो से तीन मजदूर को रहने देते हैं। आमतौर पर चार-पांच मज़दूर ढाई हजार का किराया साझा कर लेते हैं, लेकिन मकान मालिकों ने ऐसे नियम बनाए हैं कि एक कमरे में दो या तीन से ज्यादा मज़दूर नहीं रह सकते । ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि ज़मीन सीमित है। कमरों की संख्या सीमित है। यक़ीन मानिये काम पाने वाले मज़दूरों की संख्या भी सीमित है। अगर एक कमरे में दस रहेंगे तो बाकी कमरों का क्या होगा। इसलिए दो ही रहते हैं। ढाई हजार का किराया उनकी छह हजार की कमाई को निगल जाता है।

इन कमरों की एक और शर्त है। हर कैंपस में या हर मकान मालिक की किराने की एक दुकान है। मकान मालिक तय करता है कि किरायेदार किस दुकान से सामान ख़रीदेगा। वहां हर सामान का भाव बाज़ार दर से ज़्यादा होता है। जैसे मुझे एक लड़के ने बताया कि दस किलो आटा ढाई सौ में आता है, लेकिन मकान मालिक अपनी दुकान पर दो सौ नब्बे में बेचता है। चालीस रुपये ज्यादा। मकान मालिक को पता है कि उसकी दुकान पर दूसरे कैम्पस के ग्राहक नहीं आएंगे, क्योंकि हर कैंपस के किरायेदार को अपने मालिक की दुकान से ही ख़रीदना पड़ता है। मकान मालिक कम ग्राहकों की संख्या की भरपाई दाम बढ़ा कर लेता है।
 

अगर आप मकान मालिक की दुकान से सामान नहीं खरीदेंगे तो वह कमरे से निकाल देगा। मजदूरों ने बताया कि उनके बैग चेक किए जाते हैं। मकान मालिक इसका भी हिसाब रखता है कि कितने दिनों में कौन किरायेदार सामान खरीदता है। अगर कोई दस दिन बाद आटा लेता है और खत्म होने पर दूसरी जगह से कम कीमत पर आटा ले आए तो मकान मालिक को पता चल जाता है कि इस बार आटा तो ख़रीदा नहीं तो खा क्या रहा होगा। मालिक कमरे की चेकिंग कर डालता है और पकड़े जाने पर निकाल देता है। निकाले जाने पर अगर दूसरे कैम्पस में गए भी तो वहां भी इन्हीं शर्तों पर रहना होगा।

मकान मालिकों ने निकाले जाने की ये शर्तें कंपनी वालों से सीखी है। जैसे वो कम मेहनताना देकर ज़्यादा मज़दूरी कराते हैं और बोलने पर नौकरी से निकाल देते हैं। वैसे ही मकान मालिक अपने किरायेदार की जेब में आई कमाई को हर तरह से लुटता है। अंडमान के सेलुलर जेल से भागने पर समंदर मिलता था। कुछ स्वतंत्रता सेनानी जेल से भागे भी, लेकिन समंदर में थोड़ी दूर तैर कर डूब गए। मर गए। ठीक यही हालत गुड़गांव के इन मजदूरों की है।

सरकार भले ही तमाम आंकड़ों से बताती रहे कि महंगाई कम हो गई है, मगर इन लाखों बेआवाज़ मज़दूरों को अधिक दाम में खरीदना पड़ता है। इस जुल्म के बाद भी मकान मालिक कमरों की सफाई तक नहीं कराता। सौ कमरे पर पांच शौचालय हैं। उनके दरवाज़े तक टूटे हैं। पेशाब की दुर्गंध से पूरा कैम्पस महकता मिलेगा। किसी भी कमरे में झांकिये बीमार लोग मिलेंगे।

सोचिये अगर आपके साथ ऐसी बंदिश हो कि उसी दुकान से और बढ़े हुए दाम से सामान खरीदना होगा तो क्या हालत होगी। इन मज़दूरों के कमरे में अखबार नहीं आता है। ज्यादातर के कमरे में टीवी नहीं है। दुकानों में टीवी लगा है, जहां दस बीस मज़दूरों की भीड़ खड़ी होकर गोविंदा के गाने से अपनी थकान मिटा रही होती है। इसका मतलब यह नहीं कि अखबारों और टीवी में इन्हीं की खबरें आती हैं, जिसके लिए इन्हें चैनल देखना चाहिए, बल्कि समझदारी का काम यही किया है कि अखबार और चैनल नहीं लिए हैं, वरना महीने के दो सौ तीन सौ रुपये उस छह हज़ार की कमाई से और लुटा जाते।

सब काम मिलने की बातें करते हैं। चुनाव आते ही नेता बोलता है कि पलायन बंद हो जाएगा। बिहार, यूपी में उद्योग खुलेने के वादे किए जाते हैं। गुड़गांव और उससे सटे दिल्ली के गांवों में जाकर देख लीजिए। किन शर्तों पर लोगों को काम मिल रहा है। दस-दस साल से एक ही सैलरी पर काम कर रहे हैं। बिहार में भी तो यही उद्योग जाएंगे। ये कहीं भी लगें, लेकिन इनका पैटर्न तो एक ही है। वहां भी ये सेलुलर जेल बनाएंगे। कम तनख्वाह देकर पंद्रह घंटे काम कराएंगे और खाना ख़रीदने तक की आज़ादी छीन लेंगे। इसलिए पलायन को लेकर परेशान मत होइये। अपना ही देश है कहीं रह लेंगे, लेकिन मज़दूरी और रहने के जो हालात हैं, उसे समझिये। उसे बदलने की बात कीजिये।

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बिहार और उत्तर प्रदेश में पलायन बंद कराने के सपने बांटने वाले इन नेताओं को यहां की मज़दूर बस्तियों में ले जाकर पूछिये कि बोलो ये हालात बदल दोगे। दुख है कि ये हालात नहीं बदलते। 2010 में दिल्ली के कापसहेड़ा से ऐसी ही रिपोर्ट की थी। 2015 में गुड़गांव से ठीक ऐसी ही रिपोर्ट की। 2012 में सूरत की एक मजदूर बस्ती से ठीक ऐसी ही रिपोर्ट की। हालात बिल्कुल नहीं बदले हैं। किसी भी राज्य में और किसी भी सरकार में।