फिल्म 'अज़हर' की समीक्षा : इस बायोपिक पर आंखें मूंद कर विश्वास करना सही नहीं

फिल्म 'अज़हर' की समीक्षा : इस बायोपिक पर आंखें मूंद कर विश्वास करना सही नहीं

मुंबई:

इस शुक्रवार 'अज़हर' रिलीज़ हुई है जो भारतीय क्रिकेट के पूर्व कप्तान मोहम्मद अज़हरुद्दीन की ज़िंदगी से जुड़ी कुछ घटनाओ पर आधारित है। इसके निर्देशक टोनी डिसूज़ा है और इसे रजत अरोड़ा ने लिखा है। रजत अपने डायलॉग लेखन के लिये काफ़ी मशहूर हैं। फिल्म में अज़हर का किरदार निभा रहें हैं इमरान हाशमी, उनकी पहली पत्नी नॉरीन के किरदार में हैं प्राची देसाई और दूसरी पत्नी और बॉलीवुड अभिनेत्री संगीता बिजलानी के किरदार में नर्गिस फाकरी हैं।

हाल फिलहाल बहुत सारी हिंदी फिल्में बायोपिक के नाम पर आई हैं या फिर उन्हें बायोपिक कह कर प्रमोट किया जाता है लेकिन इस तरह की फिल्मों में मनोरंजन के लिए कई बार काफ़ी तड़का भी लगाया जाता है या फिर कई बार चीज़ों को बड़े नाटकीय ढ़ंग से भी पेश किया जाता है। बायोपिक के नाम पर परोसी जाने वाली फिल्मों के तथ्यों पर आंखें मूंद कर विश्वास करना सही नहीं है। फिल्म की कहानी ज़ाहिर है अज़हर की ज़िंदगी के उस हिस्से के आसपास घूमती है जहां वह मैच फ़िक्सिंग के आरोपों के बीच घिरे थे। फिल्म से किसी उम्दा सिनेमा की उम्मीद न रखें बल्कि यह सोच कर जाएं की यह एक एसी फ़िल्म है जो 2 घंटे आपको बांध कर रखेगी और दर्शख पूरी फ़िल्म को अज़हर की मैच फ़िक्सिंग की गुत्थी सुलझाने की उत्सुकता के साथ देख जाएंगे।

फिल्म की गड़बड़ियां
जहां तक फिल्म की खामियों की बात है तो निर्देशक ज़रा कमज़ोर है क्योंकि फिल्मांकन के मामले में कहीं पर भी यह आपको किसी भावनात्मक सफ़र पर नहीं ले जाती। दूसरी बात, भारतीय क्रिकेट टीम के बाकी खिलाड़ियों के किरदार के चयन में कोताही बरती गयी है। यह एक्टर्स न तो विश्वसनीय लगते हैं और न ही दमदार। तीसरी बात फिल्म न तो पूरी तरह काल्पनिक हो पाती है और न ही पूरी तरह वास्तविक। फ़िल्म की डायलॉग-बाज़ी अच्छी है लेकिन गले नही उतरती, फिल्म का संगीत ठीकठाक है और सिनेमा घर से बाहर निकलने के बाद शायद आपको सिर्फ त्रिदेव का 'ओए ओए' ही याद रहे जिसे नए रुप में पेश किया गया है। फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि दर्शक इसे एक बड़े दर्जे की बायोपिक के तौर पर देखने जाते हैं लेकिन यह एक स्मार्ट थ्रिलर से ज़्यादा कुछ नहीं निकलती।
 
फिल्म की बढ़िया बातें
अब बात खूबियों की जिसमें सबसे पहले बात स्क्रीनप्ले की जो फ़िल्म को अंत तक रोचक बना कर रखता है। वक्त-वक्त पर फ़िल्म फ्लैश-बैक में जाती है और बड़े ही सहज तरीके से अपने साथ दर्शकों को भी गुज़रे वक्त में ले जाती है। इमरान की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अज़हर की क़द काठी को दरकिनार कर उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को अपने किरदार में  बेहतरीन ढंग से उतारा है। वह भी बिना इस बात की परवाह किए की उनके और अज़हर के व्यक्तित्व में ज़मीन आसमान का फ़र्क है। इमरान ने दर्शकों को यह मानने पर मजबूर किया है कि वह बहुत ही दमदार अभिनय करते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ प्राची देसाई का काम भी क़ाबिल-ए तारीफ़ है। नर्गिस ठीक हैं, फ़िल्म की स्क्रिप्टिंग और कुछ संवाद अच्छे हैं। कुल मिलाकर अज़हर देखते वक्त आपकी रुचि बनी रहेगी। फिल्म को मिलते हैं - 3 स्टार्स


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