यह ख़बर 25 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

पूजा भारद्वाज की कलम से : सीधे रूह में उतर जाती थीं नौशाद की धुनें...

मुंबई:

हिन्दी फिल्म संगीत की दुनिया में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी को जिस बुलंदी पर ज़माना फख्र से देखता है, उनकी कशिश भरी आवाज़ में नौशाद के संगीत का जादू भी कम नहीं था। उनकी धुनें सीधे रूह में उतरती थीं, और इसी वजह से उन्होंने जो भी संगीत छेड़ा, अमर हो गया।

कई पार्श्वगायकों की आवाज़ तराशने वाले और हिन्दी फिल्म जगत को शास्त्रीय संगीत का पाठ पढ़ाने वाले अज़ीमोश्शान संगीतकार नौशाद अली का गुरुवार को 95वां जन्मदिन है। उन्होंने कभी संगीत से समझौता नहीं किया, और यही वजह है कि छह दशक तक संगीत जगत में छाए रहे नौशाद ने महज़ 67 फिल्मों में संगीत दिया।

वैसे, नौशाद साहब बदलते ज़माने के साथ भी चलते रहे, लेकिन उन्होंने शास्त्रीय संगीत का दामन कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने संगीत में तरह-तरह के प्रयोग भी किए। मसलन, के. आसिफ की 'मुग़ल-ए-आज़म' के एक बेहद लोकप्रिय हुए गाने के शीशे वाले सीन में एको-इफेक्ट पैदा करना था, इसलिए उन्होंने लता मंगेशकर से टाइल्स लगे बाथरूम में गाना गवाया था।

संगीत के लिए प्रेम ही इन्हें 17 साल की उम्र में लखनऊ से मुंबई ले आया था, और वर्ष 1940 में बतौर संगीतकार इन्हें पहली फिल्म 'प्रेम नगर' मिली। उसके बाद वर्ष 1952 में 'बैजू बावरा' का संगीत रचकर नौशाद अली करोड़ों दिलों पर छा गए। इसी फिल्म के लिए उन्हें पहली बार बेस्ट म्यूज़िक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। वर्ष 1960 में आई 'मुग़ल-ए-आज़म' का अमर संगीत भला कौन भूल सकता है।

इनके अलावा नौशाद साहब ने 'अमर', 'गंगा जमुना', 'मेरे महबूब', 'लीडर', 'पाक़ीज़ा', 'दिल दिया दर्द लिया' जैसी फिल्मों में भी यादगार संगीत दिया। उनके इस अतुलनीय योगदान के फलस्वरूप उन्हें वर्ष 1981 में फिल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान दादा साहब फाल्के अवॉर्ड दिया गया, और वर्ष 1992 में वह देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'पद्म भूषण' से नवाज़े गए।

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वर्ष 1940 में 'प्रेम नगर' से लेकर वर्ष 2005 में आई फिल्म 'ताजमहल' तक करीब 65 बरसों तक उन्होंने फिल्म जगत को अपने संगीत से नवाज़ा, और 5 मई, 2006 को हिन्दुस्तान के संगीत का यह अज़ीमोश्शान शहंशाह हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गया।