रिव्यू : 'कागज़ के फ़ूल्स' अच्छे विषय पर एक कमज़ोर स्क्रिप्ट


मुंबई : फ़िल्म 'कागज़ के फ़ूल्स' की कहानी है पुरषोत्तम त्रिपाठी नाम के एक ईमानदार और उसूलों से भरे आदमी की, जो ऐड एजेंसी में बतौर राइटर नौकरी करता है। उसने एक किताब लिखी है जिसका नाम है 'एक ठहरी सी ज़िन्दगी' जिसे ईमानदारी से छपवाना चाहता है। इस भूमिका को निभाया है विनय पाठक ने। पुरषोत्तम की पत्नी है, निकी जो अपने पति से प्यार तो खूब करती है मगर उसे जल्दी तरक्की करते देखना चाहती है और इस वजह से इनमें तू-तू, मैं-मैं होती है और एक दिन पुरषोत्तम घर छोड़ कर चला जाता है। निकी की भूमिका में हैं मुग्धा गोडसे।

इस फ़िल्म में पति-पत्नी के बीच प्रेम को दर्शाया है, साथ ही ये भी बताने की कोशिश है कि औरतें किस तरह सपनों की दुनिया या अपने आस-पड़ोस के लोगों को देख कर खुद को भी ऊंचाई पर पहुंचाने की चाह रखती हैं। लेखक की मजबूरियों को भी दर्शाती है ये फ़िल्म कि किस तरह कभी-कभी प्रतिभाशाली लेखक अपनी किताब को छपवाने के लिए जद्दोजेहद करता है या उसकी अच्छी भली कहानी को किस तरह तोड़-मरोड़ कर मसालेदार बनाने की मांग करते हैं पब्लिशर।

फ़िल्म 'कागज़ के फ़ूल्स' में एक और बात बताई गई कि दूसरों को देखकर अपने आपको कमज़ोर क्यों समझा जाए। जो अपने से कमज़ोर या गरीब हैं उन्हें देखकर ये क्यों न समझा जाए कि हमारे पास कितना कुछ है।

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इस फ़िल्म का विषय अच्छा लगता है मगर स्क्रिप्ट कमज़ोर है। निर्देशक अनिल कुमार चौधरी ने फ़िल्म को हलकी-फुल्की रखने के लिए थोड़े हंसी-मज़ाक भरे सीन डाले हैं फिर भी ये फ़िल्म भारी और खींची हुई लगती है। मुग्धा गोडसे पंजाबी बोलती हुई अच्छी नहीं लगती साथ ही फ़िल्म का प्रोडक्शन वैल्यू भी कमज़ोर दिखाई पड़ता है। मेरे नज़रिये से अच्छे विषय को लेकर एक कमज़ोर स्क्रिप्ट लिखी गई है। इसलिए फ़िल्म को मेरी तरफ से 2 स्टार।