यह ख़बर 04 जून, 2012 को प्रकाशित हुई थी

परम्परागत संगीत की अनदेखी कर रहे हैं युवा संगीतकार : प्रसून

खास बातें

  • गीतकार प्रसून जोशी संगीतकारों की उत्सुक व अभिनव संगीत वाली युवा पीढ़ी से प्रभावित हैं लेकिन उन्हें लगता है कि हमेशा जल्दी में रहने वाली यह पीढ़ी परम्परागत संगीत की अनदेखी कर रही है।
नई दिल्ली:

गीतकार प्रसून जोशी संगीतकारों की उत्सुक व अभिनव संगीत वाली युवा पीढ़ी से प्रभावित हैं लेकिन उन्हें लगता है कि हमेशा जल्दी में रहने वाली यह पीढ़ी परम्परागत संगीत की अनदेखी कर रही है।

प्रसून ने एक साक्षात्कार में कहा, "आज के युवा संगीतकार बहुत प्रतिभाशाली हैं। वे अपने संगीत के साथ प्रयोग करना पसंद करते हैं, वे तकनीकी रूप से भी कुशल होते हैं। वे सही और गलत दोनों को अपनाने के लिए तैयार रहते हैं।"

उन्होंने कहा कि युवा परम्परागत भारतीय संगीत के प्रति कम जागरूक हैं। प्रसून ने कहा, "हर चीज के नकारात्मक व सकारात्मक पहलू होते हैं और ऐसा ही कुछ यहां भी हो रहा है। युवा संगीतकार जहां प्रयोग कर रहे हैं तो वहीं वे संगीत की परम्परागत संस्कृति के प्रति कम जागरूक हैं जबकि उनके लिए इसे जानना महत्वपूर्ण है।"

उन्होंने कहा, "यह देखकर अच्छा लगता है कि आधुनिक प्रौद्योगिकी किस तरह से मददगार है, लेकिन किसी को प्रौद्योगिकी पर पूरी तरह निर्भर नहीं होना चाहिए। आज के युवा बहुत जल्दबाजी में हैं।"

कई सफल विज्ञापन अभियानों के लिए काम कर चुके प्रसून ने 2001 'कौन डगर, कौन शहर' ('लज्जा') से गीतकार के तौर पर शुरुआत की थी। 'अपनी तो पाठशाला' और 'मां' जैसे गीतों ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया।

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वह 'अब के सावन' व 'मन के मंजीरे' जैसे गीतों के साथ कई गैर फिल्मी एलबम्स का हिस्सा रहे हैं। अपने लम्बे अनुभव के बावजूद प्रसून दूसरों से सलाह लेने में शर्माते नहीं हैं। उन्होंने कहा, "मैं भाग्यशाली हूं कि मैंने ऐसे समय में फिल्मोद्योग में प्रवेश किया जब गुलजार व जावेद अख्तर जैसे लोग अब भी काम कर रहे हैं। वे मेरा सहयोग करते हैं और मुझे आत्मविश्वास देते हैं। जावेद जी अक्सर मुझे फोन करने कहते हैं, 'यह सही नहीं है, तुम इसे बदल सकते हो' और तब मैं उसे बदल देता हूं। इस तरह का मार्गदर्शन वास्तव में मददगार होता है।"