आतंकवादी ऐसी-ऐसी चीज़ों को बना देते हैं जानलेवा बम, जो आप सोच भी नहीं सकते

आतंकवादी ऐसी-ऐसी चीज़ों को बना देते हैं जानलेवा बम, जो आप सोच भी नहीं सकते

जम्मू:

मिस्र के सिनाई में इसी माह 224 सवारों के साथ एक रूसी मेट्रोजेट विमान को जिस बम के जरिये मार गिराया गया था, वह भारतीय सेना के बम डिस्पोज़ल स्क्वाड के विशेषज्ञों के लिए कोई नई चीज़ नहीं है...
 


इस तरह के बम को सबसे पहले जम्मू एवं कश्मीर में लगभग दो दशक पहले देखा गया था, जब इसका रूप 'सोडा कैन' का था... इस इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (improvised explosive device - आईईडी) को असेम्बल करना, यानी तैयार करना काफी आसान होता है, और इसका असर एक हैन्ड ग्रेनेड जैसा ही होता है, अगर इसमें एक किलो आरडीएक्स (RDX) जैसा कोई प्लास्टिक विस्फोटक भरा हुआ हो...

किसी आधुनिक विमान के उड़ते वक्त हवा का जो दबाव रहता है, वह 'सोडा कैन बम' को कहीं अधिक घातक बना देता है... विमान में इसका विस्फोट न सिर्फ एयरफ्रेम को तोड़ डालेगा, जिससे केबिन डी-कम्प्रेस हो जाएगा, और यात्रियों का दम घुट जाएगा, बल्कि यह विमान के ढांचे को भी इतना नुकसान पहुंचा देगा कि विमान नीचे जा गिरेगा...
 


जम्मू के नज़दीक अखनूर में सेना के बम-निरोधक दस्ते के मुख्यालय में 'सोडा कैन बम' के अलावा कई आईईडी रखे हुए हैं... इनमें से कोई भी असल में बम जैसा नहीं दिखता है, और इनमें टेडी बियर, गुड़िया, गुलदस्ता, कोल्ड ड्रिंक की चार बोतलों का डिब्बा, लिपटा हुआ गद्दा जैसी चीज़ें शामिल हैं... इनमें से किसी को ज़रा-सा भी अपनी जगह से हिलाइए, और सायरन बज उठेगा... अगर यह असली होते, तो आप निश्चित रूप से टुकड़े-टुकड़े हो गए होते, क्योंकि तब कोई सायरन नहीं बजता, सिर्फ विस्फोट होता...
 

उत्तरी कमांड के इस दस्ते के प्रभारी लेफ्टिनेंट कर्नल एन. रोशयान (Lieutenant Colonel N. Roshyan) ने बताया, "यह चूहे-बिल्ली के खेल जैसा होता है..." उनके मुताबिक, आरडीएक्स जैसे प्लास्टिक विस्फोटकों से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है... उन्होंने कहा, "यह वज़न में हल्के होते हैं... इन्हें किसी भी आकार में ढाला जा सकता है, और इन्हें बम के रूप में पहचाना जाना मुश्किल होता है, जिसकी वजह से ये आतंकवादियों का पसंदीदा हथियार हैं..."
 

...और आईईडी को पहचान पाना मुश्किल होता है, यह बात साबित करने के लिए मुझसे उस जगह (जो दरअसल किसी भी रिहायशी इलाके में बने पार्क जैसी दिखती है) टहलने के लिए कहा गया... लेकिन असल में वह पार्क नहीं, इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस रेंज है...

जैसे ही मैं एक बैरिकेड के पार गया, अलार्म बज उठा... दरअसल मैंने इन्फ्रा-रेड सेंसर को लांघ लिया था... यह किसी बम से जुड़ा हो सकता था, जो तुरंत ही फट गया होता... कुछ ही फुट की दूरी पर बने गार्ड रूम में मुझसे गेस्ट-बुक पर दस्तखत करने के लिए कहा गया, लेकिन जैसे ही मैंने बुक को खोला, अलार्म फिर बज उठा... अब तक मेरे लिए इस अलार्म का अर्थ समझना काफी आसान हो चुका था...
 


पार्क में टहलते-टहलते मेरा पांव पत्थर जैसी दिखने वाली किसी चीज़ पर पड़ा, लेकिन वह भी बारूदी सुरंग निकली... मैंने इसे पहले कभी नहीं देखा था, और सच कहें तो जिसने कभी बदकिस्मती से असली सुरंग पर पांव रखा होगा, देख तो वह भी नहीं पाया होगा... यहां ऐसे बहुत-से उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे साफ-साफ समझा जा सकता है कि कोई भी चीज़ बम हो सकती है, और सिर्फ चौकन्ना रहना ही काफी नहीं होता...

दो दशकों से भी ज़्यादा वक्त में हमारी सेना ने यह जान-समझ लिया है - अक्सर इसके लिए भारी कीमत चुकाकर - कि इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस कितना खतरनाक और घातक हो सकता है, और यह भी कि सबसे बढ़िया तरीके से प्रशिक्षित लोगों की तेज़ निगाहों से भी अक्सर इन्हें पहचान पाना मुश्किल होता है...

आज के दौर में हमारी सेना आईईडी के खतरे से बचने के लिए कई तरह की तकनीकों का इस्तेमाल करने लगी है... तड़के ही सड़कों की पड़ताल करने निकल जाने वाली फौजी टीम खासतौर पर आईईडी, बारूदी सुरंगें, और ज़मीन के नीचे छिपे पानी के पाइपों में इसी तरह के बमों को ही खोजती हैं... इस तरह के बमों को रिमोट कंट्रोल के जरिये भी उड़ाया जा सकता है, और यह भी मुमकिन है कि उसके तार किसी ट्रिगर से जुड़े हों, जिसे हाथ में लिए कोई आतंकवादी कही छिपकर बैठा हो...

इन आईईडी को टाइमरों से भी जोड़ा जा सकता है, जिन्हें 100-100 दिन बाद तक भी फटने के लिए प्रोग्राम किया जा सकता है... लेफ्टिनेंट कर्नल रोशयान के अनुसार, "पिछले दो दशकों में हम अपने अभ्यास के तरीकों और संचालन प्रक्रियाओं में ज़रूरत के हिसाब से बदलाव लाए हैं... हमने ज़रूरतों को समझते हुए ज़रूरी उपकरण भी हासिल किए हैं... हम अपनी प्रशिक्षण प्रक्रिया में भी वक्त और ज़रूरत के हिसाब से बदलाव करते हैं..."

जो फौजी ऐसे इलाके में गश्त पर रहते हैं, जहां आईईडी छिपे होने का अंदेशा हो, उनके लिए कई परतों में सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है... सबसे आगे रहते हैं सूंघने वाले कुत्ते - जबरदस्त प्रशिक्षण पाए लैब्राडोर रिट्रीवर या जर्मन शेफर्ड (Labrador Retrievers or German Shepards) - जो अपने प्रशिक्षकों के इशारों पर पहले से तय गति और तरीके से काम करते हैं... इनमें से प्रत्येक कुत्ते को सेना के मेरठ स्थित रीमाउंट वेटरिनरी कॉर्प्स (Remount Veterinary Corps) में प्रशिक्षण दिया गया है...
 


इन कुत्तों का प्रशिक्षण कार्यक्रम भी लगातार जारी रहता है... हर दस्ते के कुत्तों को हर कुछ हफ्ते बाद रीफ्रेशर कोर्स भी दिया जाता है, ताकि इनका दिमाग चौकन्ना रहे, और यह बदलते माहौल और हालात के हिसाब से खुद को ढाल सकें...

ट्रेनिंग रेंज में मेरी मुलाकात पांच-वर्ष के डान्टे (Dante) नामक लैब्राडोर रिट्रीवर से करवाई गई... डान्टे को आईईडी खोजने वाले उत्तरी कमांड के बेहतरीन कुत्तों में शुमार किया जाता है, और कहा जाता है कि इसकी नाक ने बहुत-सी जानों को बचाया है... मैं डान्टे और उसके प्रशिक्षक के साथ एक फर्जी बस स्टॉप तक गया, जहां अचानक डान्टे ठिठक गया, और चुपचाप बैठ गया... उसे कुछ मिल गया था... उसके प्रशिक्षक ने पास में ही रखे एक बिस्तर को उठाकर देखा, और हमें कतई हैरानी नहीं हुई, जब वहां एक विस्फोटक मिला...

इन कुत्तों के साथ चलने वाली फौजी टीम, जो सड़कों की पड़ताल करती है, अपनी पीठ पर लदे बैकपैक (Backpack - बस्ते) में जैमर (Jammer) लेकर चलती है, जिससे किसी आईईडी को ट्रिगर करने के लिए इस्तेमाल होने वाले रिमोट कंट्रोल के सिगनलों को बेकार किया जा सके... अन्य इलाकों में जैमरों को पहले से तय जगहों पर तैनात कर दिया जाता है... वैसे, जैमरों को फौजी गाड़ियों में भी लगाकर इस्तेमाल किया जाता है...

हालांकि सेना जैमरों की कुछ खास क्षमताओं के बारे में बात करने के लिए अनिच्छुक दिखी, लेकिन NDTV को पता चला है कि अधिकतर जैमर अलग-अलग तरह के कई मोड में काम कर सकते हैं, जिनमें 'प्री-इनिशिएशन मोड' भी शामिल है, जिसके तहत रिमोट कंट्रोल से चलने वाली आईईडी को आतंकवादियों की ओर से सिगनल मिलने से पहले सेना खुद ही उड़ा सकती है... सेना के लिए आतंकवादियों से एक कदम आगे रहने का एक ही सुनिश्चित तरीका है - यह पक्का कर लिया जाए कि इलाके की हर रेडियो फ्रीक्वेंसी को हर वक्त जैमरों से कवर करके रखा जाए...
 


प्रशिक्षण के दौरान हमारा देखा-भाला यह खेल उस समय पूरी तरह बदल जाता है, जब कोई आईईडी मिल जाता है, और उसे नाकाम या नष्ट किया जाना होता है... पुराने वक्त में बम-निरोधक दस्ते खुद बम के पास जाकर उसे नाकाम किया करते थे, लेकिन अब हमारी सेना रिमोटली ऑपरेटेड व्हीकल (आरओवी - Remotely Operated Vehicles - ROV) इस्तेमाल करने को तरजीह देती है...

ब्रिटिश व्हीलबैरो आरओवी (British Wheelbarrow ROV) बैटरी से चलती है, और इस पर लगे कैमरों की मदद से इसका संचालक आईईडी को सुरक्षित दूरी पर रहकर देख पाता है... 75 किलोग्राम तक का वज़न उठाने में सक्षम व्हीलबैरो आमतौर पर आतंकवादियों की लाशों को पलटने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो अक्सर किसी मुठभेड़ में मरने से तुरंत पहले अपने शरीर के नीचे ज़िन्दा हैन्ड ग्रेनेड रख लिया करते हैं...

बाद में लाशों को हटाते वक्त जैसे ही सुरक्षा बल आतंकवादी की लाश को हिलाते, हैन्ड ग्रेनेड फट जाता... लेकिन अब ऐसा नहीं होता... अब अगर विस्फोट होता भी है, तो उसका सारा प्रभाव हमारे फौजी नहीं, व्हीलबैरो जैसी आरओवी झेलती हैं... इसके अलावा आरओवी छिपी हुई आईईडी को भी अपने मैकेनिकल पंजों से खींचती हैं, और इनमें डिसरप्टर मैकेनिज़्म (disrupter mechanism) भी लगा होता है, जो दरअसल एक बंदूक जैसी चीज़ होती है, जो नाकाम नहीं हो पाई आईईडी को नुकसान पहुंचा पाने से पहले सुरक्षित दूरी पर फेंक देती है...
 


लेकिन इतना सब होने के बावजूद ऐसे मौके भी आते हैं, जहां बम-निरोधक दस्ते के टेक्नीशियनों, अधिकारियों और फौजियों को खुद ही बम के पास जाकर हाथों से उसे नाकाम करने की कोशिश करनी पड़ती है... यह एक ऐसा बेहद खतरनाक काम है, जिसमें फोकस, कुशलता और ताकत की मदद से ही ज़िन्दगी के साथ रहकर मौत को मात दी जा सकती है...

चीज़ों की बारीकियों को देखने-समझने, और गोला-बारूद को संभालने की क्षमताओं के आधार पर करियर के शुरुआती दौर में चुने जाने के बाद बम-निरोधक दस्ते के विशेषज्ञों को पुणे स्थित कॉलेज ऑफ मिलिटरी इंजीनियरिंग (College of Military Engineering) में प्रशिक्षण दिया जाता है... ये अधिकारी कम्बाइन्ड ऑफिसर्स एक्सप्लोसिव्स कोर्स (Combined Officers Explosives Course) में भी भाग लेते हैं - या सेना में कमीशन किए जाने के तुरंत बाद या 10 साल के भीतर... एक बार ट्रेनिंग मिल जाने के बाद इन्हें आतंकवाद का सामना कर रही यूनिटों - जैसे जम्मू एवं कश्मीर में राष्ट्रीय राइफल्स और देशभर में तैनात विशेष काउंटर एक्सप्लोसिव डिवाइस यूनिट (Counter Explosive Device Units) - के साथ तैनात किया जाता है...

40 किलोग्राम तक वज़न वाले भारी सुरक्षात्मक बम-निरोधक सूट पहने सेना के इन तकनीशियनों के सीने, गर्दन और सिर का खास ध्यान रखा जाता है, जब ये ज़मीन पर आईईडी की बगल में लेटकर उसे निहार रहे होते हैं...
 


इनके पास काम करने के लिए टेलीस्कोपिक मैनिप्यूलेटर (telescopic manipulator) भी होता है, जो व्यक्ति तथा आईईडी के बीच दूरी बनाए रखता है, जब आईईडी को छिपाई गई जगह से निकाला जा रहा हो, लेकिन आखिरकार बम को नाकाम करने के लिए मानवीय अंगुलियां ही ज़रूरी हैं, जो किसी ऐसे शख्स की हों, जिसका दिमाग बहुत तेज़ी से काम करता हो...

इन बम तकनीशियनों की मदद के लिए अधिकारी भी रहते हैं, जो रेडियो पर उनसे लगातार संपर्क में रहते हैं... तकनीशियन के हेल्मेट पर लगे कैमरे की मदद से एक स्क्रीन पर अधिकारी वह सब देखता रहता है, जो तकनीशियन को अपने सामने दिखाई दे रहा है...

इनके लिए एक-एक पल कीमती होता है... ये बम तकनीशियन बिना थके काम नहीं कर सकते, क्योंकि भले ही इनके भारी सूट के भीतर इन्हें ठंडा रखने की व्यवस्था भी होती है, लेकिन एक ही बार में आधा घंटे से ज़्यादा वक्त तक लगातार काम करना, खासतौर से गर्मियों में, लगभग नामुमकिन होता है...

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बहरहाल, आईईडी को तलाश करना और उन्हें नाकाम करते रहना ज़िन्दगी और मौत का ऐसा कभी नहीं रुकने वाला खेल है, जो बदलती तकनीक के साथ रोज़ बदलता रहता है... बम-निरोधक दस्तों के ये तकनीशियन जानते हैं कि अगर इन्हें खुद को ज़िन्दा रखना है, तो इन्हें हर बार कामयाब होना ही होगा, वरना आतंकवादियों की सिर्फ एक कामयाबी भी इन्हें हमेशा के लिए सुला सकती है...