रवीश की रिपोर्ट : मैं इंजीनियरिंग छात्र हूं और मेरे घर शौचालय तक नहीं है : उना का जीतू

रवीश की रिपोर्ट : मैं इंजीनियरिंग छात्र हूं और मेरे घर शौचालय तक नहीं है : उना का जीतू

"दस दिनों में आनंदीबेन से लेकर राहुल गांधी तक इतने नेता और लोग आ गए हैं कि अब मैं कन्फ्यूज़ हो जाता हूं... बहुतों का नाम भी याद नहीं रहता... मेरी जेब में सब अपना विज़िटिंग कार्ड छोड़ जाते हैं, पूरी जेब भर गई है..."

छह औरतों के आगे लाल टीशर्ट और जीन्स में खड़ा यह नौजवान अपने उन चार भाइयों की अकेली आवाज़ है, जिन्हें अर्धनग्न कर पीटे जाने का वीडियो आपने देखा होगा। 22 साल का है जीतू सरवैया। गुजरात के उना शहर का मोटा समढोलिया गांव के इस नवयुक की कहानी भी हमें दलित और भारतीय ग्रामीण व्यवस्था की दूसरी हकीकतों के पास ले जाती है। जीतू भावनगर के शांतिलाल शाह गर्वनमेंट इंजीनयिरिंग कालेज में इलेक्ट्रॉनिक एंड कम्युनिकेशन में अंतिम वर्ष का छात्र है। कालेज चालू है, मगर पढ़ाई छोड़कर वह अपने चचेरे भाइयों की मदद करने आ गया है। अपने भाइयों को वीडियो में बेरहमी से पिटते देख जीतू पूरी तरह बदल गया है।

"अब हम मरी हुई गाय की खाल उतारने का काम कभी नहीं करेंगे... इतना मार खाया है कि किसी भी हालत में नहीं करेंगे... कुछ भी मजदूरी करेंगे, पर यह काम नहीं करेंगे... अपने गांव में भी गाय मरेगी तो भी मेरे परिवार से कोई नहीं उठाने जाएगा... यह हमारा अंतिम फैसला है..."

मोटा समढोलिया के 27 दलित परिवारों के बाकी लोग खेतों में मज़दूरी करते हैं। सिर्फ जीतू के बड़े पापा बाबू भाई वीरा भाई सरवैया 25 साल से यह काम करते हैं। उनके चारों बेटे इस काम में मदद करते हैं। जीतू ने बताया कि आसपास के 15-20 गांवों से फोन आता था कि गाय मरी हुई है। वहीं से बड़े पापा और मेरे भाई मरी गाय लाते थे। हम लोग ग़रीब हैं। परिवार में मैं ही पढ़ा-लिखा हूं।
 


"मैं इंजीनियरिंग चौथे वर्ष का छात्र हूं, मगर मेरे घर में शौचालय नहीं है... मेरे परिवार में किसी के पास शौचालय नहीं है... हम खुले खेत में जाते हैं... 27 दलित परिवारों में सिर्फ एक के पास अपना शौचालय है, जो उन्होंने खुद के पैसे से बनवाया है..."

"मेरे पिता नवसारी में हीरा घिसने का काम करते थे, जिसके कारण मुझे नवसारी के सरकारी स्कूल में बारहवीं करने का मौका मिल गया... वहीं रामजी मंदिर चेरिटेबल ट्रस्ट से फ्री कोचिंग की... वहां सभी जाति-धर्म के लोग पढ़ने आते थे... मैंने इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास कर ली..."

"मेरी पढ़ाई मुश्किल रही है... सरकार से स्कॉलरिशप के रूप में साल के 28,000 मिलते हैं, लेकिन भावनगर में रहने, खाने और किताबों पर 30,000 तक ख़र्च हो जाते हैं... इसे पूरा करने के लिए 16 साल की छोटी बहन ने पढ़ाई छोड़ दी और मां-बाप के साथ खेतों में मज़दूरी करने लगी है..."
 

जीतू की बहन एक दिन की मज़दूरी कर डेढ़ सौ रुपये कमा लेती है। जीतू सरवैया के घर में टीवी है, मगर अख़बार नहीं आता। 27 दलित परिवारों में दो-चार के पास ही मीटर से बिजली का कनेक्शन है। उसके पिता ने दो साल से आवेदन दे रखा है, मगर बिजली विभाग वाले मीटर नहीं लगा पाए हैं। गलत तरीके से कनेक्शन लेने पर साढ़े सात हज़ार का जुर्माना लगा जाते हैं। बिजली विभाग वाले जुर्माना लगाने ज़रूर आ जाते हैं।

जीतू के अलावा परिवार में कोई पढ़ा-लिखा नहीं था, जो पुलिस से लेकर अस्पताल के डॉक्टरों से बात करता। जीतू यहां तक नहीं पहुंचा होता तो वह दलित हिंसा और आंदोलन के महत्व को कभी नहीं समझ पाता। भाइयों की पिटाई का वीडियो देखने के बाद सिर्फ दलित समाज के बारे में सोच रहा है। वह तीन-चार बड़ी रैलियों में जा चुका है, भाषण दे चुका है। इस घटना से पहले जीतू ने कभी ऐसा इरादा नहीं किया था। इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर अपने परिवार के लिए कुछ करना चाहता था। अब उसकी बात में हर दूसरी लाइन में दलित समाज का ज़िक्र आ रहा है।
 

अपने एक मित्र के ज़रिये मोटा समढोलिया गांव में फोन से जीतू से बात कर रहा था। उसने कहा कि मैं पढ़ा-लिखा हूं, इसीलिए बड़े पापा ने कहा कि तुम सबसे बात करो। मैंने ही राहुल गांधी को हिन्दी में सारी बात बताई। अरविंद केजरीवाल, शरद यादव से लेकर जो भी नेता आते हैं, उन्हें मैं ही समझाता हूं। स्वामीनारायण संप्रदाय के लोग भी आए थे। पूरे देश से हर दिन पचास-पचास के झुंड में दलित समाज के लोग आते हैं। ऐसे दस-पंद्रह झुंड रोज़ आ रहे हैं। मुख्यमंत्री आनंदीबेन ने हर पीड़ित को एक-एक लाख रुपये दिये हैं। राहुल गांधी का भी पांच लाख रुपये का चेक आ गया है।

मैंने जीतू से पूछा कि आप यह लड़ाई कैसे लड़ पाएंगे, आपको कॉलेज भी जाना होगा। हार्दिक पटेल ने भी आवाज़ उठाने की कोशिश की थी, लेकिन उनके साथ जो हुआ, क्या आप झेल पाएंगे...? इस पर जीतू ने कहा, "हम अपना आंदोलन करेंगे... मेरे साथ कुछ भी हो जाए, मैं अपने समाज के लिए कुछ करके दिखाऊंगा... अपने समाज के लिए मर भी गया तो मैं मर जाऊंगा..."

जीतू ने बताया कि गांव के लोग भी आए, कहा, कोई ज़रूरत हो तो बताना, हम पूरा करेंगे, लेकिन हमारे गांव में इससे पहले कोई ऊंची जाति का नहीं आता था। जो भी आता था, घर के बरामदे में नहीं घुसता था। घर के भीतर कोई नहीं आता था, बाहर ही बैठकर चला जाता था। हमारे घर के कप और ग्लास में चाय और पानी नहीं पीते हैं।

"जब हम उनके घर मज़दूरी करने जाते हैं, तो हमें अलग बर्तन में खाना देते हैं। हमारे लिए अलग ग्लास होता है। गांव के मंदिर में हमें जाने की अनुमति नहीं है। हमारे परिवार के लोगों ने प्रयास भी नहीं किया कि हमारे भीतर इतना साहस नहीं है..."

अब जीतू सरवैया की ज़िन्दगी बदल गई है। तमाम अखबारों और चैनलों पर बड़े नेताओं के साथ उसकी तस्वीर आ रही है। उसे इतनी समझ है। ज़िन्दगी उसकी उसके लिए नहीं बदली है, किसी बड़े उद्देश्य के लिए बदली है। फोन रखते हुए अंतिम बात यही थी, "मैं हर हाल में आवाज़ उठाऊंगा..."

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