जानिए, '65 के युद्ध में कैसे बच निकला भारतीय पायलट, जब उसका विमान जा गिरा पाकिस्तान में

जानिए, '65 के युद्ध में कैसे बच निकला भारतीय पायलट, जब उसका विमान जा गिरा पाकिस्तान में

वर्ष 1965 में पाकिस्तान से हुए युद्ध के शुरुआती दौर में ही भारतीय वायुसेना के युवा फ्लाइंग ऑफिसर दारा फिरोज़ चिनॉय ने अचानक खुद को दुश्मन के इलाके में फंसा पाया। अब 70 साल की उम्र में बेंगलुरू स्थित अपने घर में NDTV से बातचीत के दौरान उस वाकये को याद करते हुए चिनॉय कहते हैं, "मेरे (विमान के) इंजन में एक एन्टी-एयरक्राफ्ट बम फटा और इंजन से लपटें उठने लगीं... पूरे विमान में आग लग गई और कॉकपिट में भी धुआं और लपटें भर गईं... मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था..."

दारा फिरोज़ चिनॉय की यह कहानी युद्ध के दौरान किसी भी भारतीय जवान के दुश्मन के इलाके से बच निकलने का सबसे रोमांचक किस्सा है।
 

10 सितंबर, 1965 को मुंबई का 20-वर्षीय पारसी युवक दारा फिरोज़ चिनॉय पंजाब के आदमपुर एयरबेस से फ्रांस में बना डसॉल्ट मिस्टीयर लड़ाकू बमवर्षक विमान लेकर उड़ा। उस वक्त तक दारा को सेना में कमीशन हुए कुल दो साल ही बीते थे। तभी उनकी यूनिट को पाकिस्तानी पंजाब में सीमा के नज़दीक स्थापित एक पाकिस्तानी तोपखाने से निपटने का काम सौंपा गया। चिनॉय के मुताबिक, "वहां लगी तोपें हमारी थलसेना को परेशान कर रही थीं, और उस वजह से उन्हें सिर झुकाकर रखने पड़ रहे थे... दरअसल, वे इछोगिल नहर को पार करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कामयाब नहीं हो पा रहे थे, क्योंकि भारी तोपों के कारण वे बढ़ नहीं पा रहे थे... हमें दक्षिणी पाकिस्तान में ऐसे ही एक लक्ष्य को नष्ट कर देना था..."

उस वक्त यह युवा फ्लाइंग ऑफिसर अपने स्क्वाड्रन के साथियों के साथ युद्ध में शामिल होने के लिए इतना आतुर था कि उसने कुछ भी खाना तो दूर, पानी की घूंट तक लेना जायज़ नहीं समझा, हालांकि इसी वजह से कुछ घंटे बाद उसकी जान जाते-जाते बची।

चिनॉय के अनुसार, "जैसे ही हमने तोप के ठिकाने पर हमले की तैयारी की, मुझे अपने विमान के तले में कुछ टकराने की जोरदार आवाज़ सुनाई दी..." और चूंकि उनके विमान में आग लग चुकी थी (और कोई को-पायलट भी नहीं था), चिनॉय ने खुद को इजेक्ट कर लिया।
 

पैराशूट के जरिये हवा में तैरते हुए नीचे आने के दौरान भी वह बेहद आसानी से निशाना बन सकते थे। चिनॉय का कहना है, "नीचे आते हुए भी वे लोग लगातार मुझ पर राइफलों से गोलियां दाग रहे थे... मुझे राइफल से चल रही गोलियों की आवाज़ों के साथ-साथ एन्टी-एयरक्राफ्ट गनों की भी जोर से आ रही आवाज़ें सुनाई दे रही थीं... इन राइफलों की गोलियों से बचते हुए जब मैं उतरा, वे लोग चीख-चीखकर गालियां दे रहे थे और 'मारो-मारो' कह रहे थे..."

इसके बाद यह युवा पायलट जान हथेली पर लिए भागा। दारा ने बताया, "उन लोगों ने जीपों और पैदल मेरा पीछा किया, लेकिन सौभाग्य से फसलें कटी नहीं थीं, और घास काफी ऊंची थी... वह गन्ने का खेत था, और घास और गन्ने छह-छह फुट ऊंचाई तक उगे हुए थे, सो, मैं उन्हें खरगोश की तरह चकमा दे रहा था... मैं डूबते हुए सूरज को अपने बाईं ओर रखते हुए उत्तर दिशा में भागकर उन्हें चकमा देने में कामयाब रहा, क्योंकि वे मेरे पूर्व दिशा में भागने की उम्मीद कर रहे थे..."

लेकिन मामला खत्म नहीं हुआ था... चिनॉय को एहसास हो गया था कि सीमापार हिन्दुस्तान में दबे पांव वापस घुसने के लिए एकमात्र मौका रात के अंधेरे में ही मिल सकता है। "मैंने सूरज के छिपने का इंतज़ार किया... उन दिनों सूरज डूबने के साथ-साथ ही चांद निकल आता था, सो, मुझे पूर्व की ओर बढ़ने का रास्ता मिल गया... मैंने अपनी पहचान से जुड़े सारे कागज़ात जला दिए, और सभी चमकीली चीज़ें हटा दीं..."

अगले पांच घंटे तक दारा कभी चलते रहे, कभी दौड़ते रहे, और आखिरकार थक गए। उनका गला पूरी तरह सूख चुका था, और पांवों और कमर में कुछ घंटे पहले किए इजेक्शन के चलते बेहद दर्द हो रहा था। दारा के अनुसार, "उस समय मेरा सबसे बड़ा डर यह था कि कहीं पानी की कमी से बेहोश न हो जाऊं - क्योंकि उस समय जिस किसी को भी मैं बेहोश पड़ा मिलूंगा, वह मुझे जान से पहले मारेगा, और सवाल बाद में करेगा..."

खैर, दारा को एक कुआं मिल गया, जहां से उन्होंने जीभर कर पानी पिया, लेकिन समय भागा जा रहा था... कुछ उथली, कुछ गहरी नहरों को तैरकर पार करते, और गांववालों और आवारा कुत्तों से बचकर ऐसे रास्ते पर भागते-भागते, जिसे हर पल ज़रूरत के हिसाब से बदलना पड़ रहा था, दारा फिरोज़ चिनॉय आखिरकार उस जगह पहुंच गए, जो अमृतसर-बटाला हाईवे जैसा लग रहा था।

लेकिन संशय बरकरार था... अगर यह हिन्दुस्तान है भी, तो भी खतरा टला नही था। दारा ने बताया, "भोर के वक्त मैं कुछ ऐसे फौजियों से रूबरू हुआ, जो किसी दक्षिण भारतीय भाषा में बात कर रहे थे... मैंने उन्हें ललकारा, 'कौन है वहां...?' बेशक, (कुछ ही पलों बाद) मैं हाथों को सिर से ऊपर उठाए घुटनों पर बैठा था... मैंने बताया, मैं फ्लाइंग ऑफिसर चिनॉय हूं... उन्होंने आईडी मांगा..." लेकिन युवा लड़ाकू पायलट के पास ऐसा कुछ था ही नहीं, क्योंकि निजी पहचान से जुड़े ऐसे सभी कागज़ात वह दुश्मन के इलाके में ही नष्ट कर आया था, या फेंक चुका था।

बहरहाल, आखिरकार दारा को मुक्त कर दिया गया, और उन्हें उनकी यूनिट तक जाने की अनुमति दे दी गई। पंजाब के आदमपुर स्थित बेस पहुंचने पर दारा का बेहद जोरदार स्वागत हुआ। चिनॉय के अनुसार, "मेरे रूममेट ने मज़ाक में कहा, 'अरे नहीं, यह वापस आ गया...'"
 

कुछ ही दिन में चिनॉय एक्शन में वापस आ गए, और पाकिस्तान के आकाश में उड़ते हुए हमले करते रहे।

गौरतलब है कि ग्रुप कैप्टन के पद से रिटायर हुए चिनॉय ने पिछले 50 सालों से कुछ ज़्यादा वक्त के दौरान मौत को तीन बार चकमा दिया। 1965 के युद्ध में अपनी इस जिजीविषा से पहले भी 1964 में, जब दारा सिर्फ एक ट्रेनी पायलट थे, उन्हें अपने ऑरागन लड़ाकू विमान से इजेक्ट करना पड़ा था, जब ब्रह्मपुत्र नहीं के ऊपर उड़ते हुए उनके जेट के रन-अवे इलेक्ट्रिक ट्रिमर (विमान का सबसे महत्वपूर्ण नियंत्रण सिस्टम) में समस्या आने की वजह से नियंत्रण से जुड़ी एक बेहद गंभीर दिक्कत आ गई थी। वर्ष 1987 में भी उन्हें इसी तरह इजेक्ट करना पड़ा था, जब उनके मिग-21 विमान से एक पक्षी टकरा गया था।

लेकिन उड़ने को लेकर उनका जुनून हमेशा बरकरार रहा। कई सालों तक, दारा चिनॉय सिविलियन पायलट के रूप में उड़ते रहे, और टाटाओं और अम्बानियों से जुड़े कॉरपोरेट विमानों को लेकर हज़ारों घंटों की उड़ान भरी।

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