यह ख़बर 23 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : विदेश नीति के लिहाज़ से शर्मिन्दगी का बायस बना बीता हफ्ता

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में विदेश नीति को नया रूप देने की बात कहकर निश्चित रूप से सभी को डरा दिया था, परन्तु सभी को यही लग रहा था कि यह भी उसी तरह के बार-बार दोहराए जाने वाले वाक्यों मे से एक है, जो नरेंद्र मोदी अपने दिमाग में आने वाली सभी बातों को व्यक्त करने के लिए लगातार इस्तेमाल करते हैं। लेकिन जो हफ्ता अभी बीता है, उससे संकेत मिलते हैं कि वे इस बारे में गंभीर थे। दो घटनाओं पर ध्यान दीजिए - ब्रिक्स सम्मेलन और फिलस्तीन संकट।

ब्रिक्स सम्मेलन

किसी अंतरराष्ट्रीय मच पर प्रधानमंत्री के रूप में यह मोदी का पहला दौरा था, और ऐसे दौरों में प्रोटोकॉल के बिल्कुल ठीक रखे जाने की उम्मीद की जाती है। बहरहाल, जहां सारी दुनिया फुटबॉल के जुनून में डूबी हुई थी, बेचारे प्रोटोकॉल को पता ही नहीं था कि जर्मनी जीत सकता है। चांसलर एंजेला मार्केल के साथ बर्लिन में रात्रिभोज तय कर लिया गया, जबकि वह सारी दुनिया को बताती फिर रही थीं कि जब उनकी फुटबॉल टीम दुनिया पर राज करने के लिए बढ़ेगी, वह उसके पास ही रहेंगी।

सो, जब मोदी बर्लिन में उतरे, वह ब्राज़ील चली गईं। इसी के साथ मोदी की बर्लिन यात्रा पूरी तरह अफलदायी रह गई (वैसे विमान में ईंधन ज़रूर भरा गया)। हां, वापसी की उड़ान में उन्होंने फ्रैंकफर्ट में ईंधन भरवाया, और मार्केल से फोन पर बातचीत ज़रूर की, लेकिन सोशल मीडिया के विशेष प्रेमी होने के बावजूद उनके पास ट्वीट करने लायक कुछ भी उसमें से नही निकला। सो, इस यात्रा से उन्होंने कुछ भी हासिल नहीं किया, सिवाय जापान को नाराज़ करने के, जिनसे यह वादा किया गया था कि मोदी की उप-महाद्वीप के बाहर पहली यात्रा जापान की ही होगी।

खैर, प्रोटोकॉल के लिहाज़ से यही एकमात्र और आखिरी गड़बड़ नहीं थी। मोदी ने पुतिन के साथ भी पहुंचते ही बैठक तय की थी, लेकिन पुतिन ने ब्राज़ील के राष्ट्रपति के साथ ब्रासीलिया में, जो फोर्तालेजा से 1,600 किलोमीटर दूर है, व्यापारिक बैठक को तरजीह दी। सो, पुतिन ने अनजाने में या शायद सोच-समझकर मोदी को यह जता दिया कि वह यूक्रेन के घटनाक्रम पर भारतीय रुख से सहमत नहीं हैं, और वह मोदी से तय मुलाकात के वक्त से दो घंटे बाद फोर्तालेजा पहुंचे।

आखिरी घड़ी में एक और मुलाकात तय की गई, लेकिन वह भारत के सबसे पुराने और सबसे करीबी मित्र रहे देश के साथ तसल्ली से बैठकर बातचीत करने के स्थान पर हड़ब़ड़ी में हुई भेंट जैसी रही। इसकी भी सबसे उदार वजह मैं यही सोच पाता हूं कि शायद पुतिन इसलिए रुक गए, क्योंकि वह जानते थे कि मोदी भारत और रूस के बीच गैस पाइपलाइन का सुझाव देंगे, और वह यही जानना चाहते थे कि मोदी को खुश करने वाली वह पाइपलाइन पामीर का पठार और हिन्दुकुश को कैसे पार करवाई जाएगी।

छठे ब्रिक्स सम्मेलन से मुख्यरूप से एक ही चीज़ हासिल हुई, और वह था नए विकास बैंक - ब्रिक्स बैंक - की स्थापना पर सहमति बन जाना। लेकिन उस पर काम काफी लंबे समय से चल रहा था, जब मोदी प्रधानमंत्री बने ही नहीं थे। इस बैंक पर सहमति चौथे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में बनी थी (ध्यान रहे, वह सम्मेलन वर्ष 2010 में नई दिल्ली में हुआ था, और डॉ मनमोहन सिंह ने उसकी अध्यक्षता की थी) और पांचवें सम्मेलन में उसे दिशा दी गई, और वित्तमंत्रियों को अगले सम्मेलन से पूर्व काम खत्म कर लेने के लिए कहा गया। हमारी विदेश सेवा और वित्त मंत्रालय के धुरंधरों ने अथक परिश्रम किया, और फिर मोदी के लिए सिर्फ दस्तखत कर श्रेय लेने का काम बाकी बचा था, जो उन्होंने बखूबी कर दिखाया है।

इस व्यक्ति का चमत्कार यही है कि वह सही समय पर सही जगह मौजूद होते हैं, ताकि कोई काम न किया होने पर भी पूरा श्रेय ले सकें। ऐसा हम वर्ष 2001 में भी देख चुके हैं, जब वह मुख्यमंत्री बनकर गुजरात पहुंचे, और उसी साल सरदार सरोवर बांध से काम शुरू हो गया। इसके साथ ही मोदी ने 'सूखे' गुजरात को 'हरितपट्टी' में बदलने का सारा श्रेय बटोर लिया, जबकि वास्तविकता यह है कि राज्य की कृषि पैदावार को बढ़ाने के नंबर बटोरने का मोदी को कोई मौका नहीं मिलता, अगर राजीव गांधी ने इस प्रोजेक्ट को मंजूरी न दी होती, या पीवी नरसिम्हाराव ने वर्ल्डबैंके के पीछे हटने के बाद वित्तीय सहायता मुहैया न कराई होती। निश्चित रूप से मोदी ने बढ़ा-चढ़ाकर दावे किए, जिसकी वजह से 10 फीसदी से भी ज़्यादा कृषि वृद्धि दर का उनका दावा फर्जी साबित हुआ और अब लगभग छह फीसदी दिखाया जाता है।

सो, ब्रिक्स बैंक के साथ भी ऐसा ही हुआ। आइडिया डॉ मनमोहन सिंह का था, मेहनत यूपीए सरकार की थी, और मोदी सिर्फ सही वक्त पर पहुंच गए, ताकि विजेता की तरह पोडियम पर चढ़कर 'कप' को अपना बता सकें।

यही बात भारत को एशिया-पैसिफिक इकोनॉमिक कोऑपरेशन (एपेक) में पर्यवेक्षक के रूप में चीन द्वारा आमंत्रित किए जाने तथा स्थानीय आतंकवाद से लड़ने वाली शंघाई कोऑपरेशन काउंसिल में भारतीय उपस्थिति के फैसले पर भी लागू होती है। मोदी के रेसकोर्स रोड पर पहुंचने से 'युगों पहले' उस पर काम शुरू हो चुका था। इसमें मोदी ने कुछ नहीं किया, सिवाय किसी और के किए काम पर अपनी मुहर लगाने के अलावा।

आइए देखें, दुनिया किस तरह डॉ मनमोहन सिंह की प्रशंसा किया करती थी...

  • वर्ष 2010 में जी-20 शिखर सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा, "मैं कह सकता हूं, जी-20 में जब प्रधानमत्री बोलते हैं, सारी दुनिया सुनती है..."
  • वर्ष 2013 में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने उनकी नेतृत्व क्षमता और सूझबूझ के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की...
  • अक्टूबर, 2013 में डॉ सिंह से विदाई मुलाकात के दौरान रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने कहा, "हमारी अधिकतर परस्पर उपलब्धियां आपके नेतृत्व में हासिल की गई हैं..."

इसके बावजूद बीजेपी यह कहने की हिम्मत जुटा पाती है कि वही सुनिश्चित करेंगे कि "भारत की आवाज़ अंतरराष्ट्रीय मंच पर सुनी जाए..." हंसने का मन करता है... इससे भी बुरा यह है कि वे यह भी कहते हैं - "परंपरागत मित्र देशों के साथ भारत के संबंध ठंडे पड़ गए हैं..." और दिलचस्प तथ्य यह है कि वे ऐसा उस स्थिति में कहते हैं, जब पिछले प्रधानमंत्री की तारीफों के पुल इस तरह बांधे जाते हों। ध्यान दें - वह मनमोहन सिंह नहीं थे, जिन्हें पहली मुलाकात में पुतिन ने गच्चा दिया, वह मोदी थे।

फिलस्तीन पर ढुलमुल रवैया

पूरे हफ्ते विदेशमंत्री संसद में फिलस्तीन पर चर्चा से बचती रहीं। यह वह देश है, जिसके बारे में वर्ष 1938 में गांधी जी ने कहा था, "फिलस्तीन उसी तरह फिलस्तीनियों का है, जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेज़ों का और फ्रांस फ्रेंच लोगों का है..." पिछले सात दशकों के दौरान क्षेत्र में कितनी भी उथल-पुथल मची रही हो, फिलस्तीन के साथ हमारे रिश्ते इसी वाक्य पर टिके रहे। दुनिया के सभी राजनेताओं में से सिर्फ हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी दूरदृष्टि की बदौलत इन रिश्तों को देखा, और नवंबर, 1947 में भारत ऐसा एकमात्र गैर-अरब, गैर-मुस्लिम देश था, जिसने फिलस्तीन के बंटवारे के खिलाफ वोट दिया, और आग्रह किया कि देश को एक रखकर ही समाधान निकाला जाए, जिसमें यहूदियों के लिए अलग स्वायत्त क्षेत्र हो, और अरबों के लिए अलग स्वायत्त क्षेत्र, जो मिलकर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हई फिलस्तीन की संयुक्त केंद्रीय सरकार के तहत काम करें।

फिलस्तीनी भी कभी हमारे साथ अपने भाईचारे को नहीं भूले, अब तक तो नहीं। लेकिन अब दिल्ली स्थित फिलस्तीनी दूतावास और उसके अधिकारियों को यह दुहाई देनी पड़ रही है कि 200 निर्दोष फिलस्तीनियों को मार गिराने वाले इस्राइली हवाई हमले और हमास के पलटवार, जिसमें एक भी इस्राइली नहीं मारा गया, को भारत एक ही तराजू में न तोले।

मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि यह इस स्तर तक आ जाएगा - और हम अपने अरब भाइयों को उनकी सबसे बड़ी ज़रूरत के वक्त अकेला छोड़ देंगे। भले ही सभी अरब देश और ईरानी राज्य मुस्लिम हैं, भले ही पाकिस्तान अरबों और ईरानियों को धर्म के नाम पर अपनी तरफ करने की नापाक कोशिशें करता रहा है, फिर भी सभी अरब देश और ईरानी राज्य - राजशाही हों या लोकतांत्रिक, क्रांतिकारी हों या इस्लामिक - हमेशा भारत के साथ खड़े रहे हैं, हमारे 80 लाख से भी ज़्यादा नागरिकों को रोज़गार देते रहे हैं, कच्चे तेल की हमारी ज़रूरत का 70 फीसदी से भी ज़्यादा हिस्सा उपलब्ध कराते रहे हैं, और हमारे निर्यात का बहुत बड़ा हिस्सा खपाते रहे हैं।

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यह सब खटाई में पड़ता जा रहा है, सिर्फ एक बीजेपी की वजह से, जो सांप्रदायिकता से लबरेज़ आंखों से साफ-साफ देख ही नहीं सकती। हमें अपनी नर्सें वापस मिलीं, लेकिन इसके लिए हमें उस साख को धन्यवाद देना चाहिए, जो पिछले सात दशकों में हमने अरब देशों के साथ बनाई है। अरब-विरोधी, मुस्लिम-विरोधी इस्राइल को लेकर बीजेपी का जो रवैया है, उसकी वजह से अरब देशों के साथ अपने भाईचारे को हम खतरे में डाल रहे हैं, और यह एक ऐसा खतरा है, जिसका सभी देशभक्त, धर्मनिरपेक्ष भारतीयों को विरोध करना ही चाहिेए।

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