यह ख़बर 23 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : गाजा पर सिर्फ 'चिंतित', नेहरू जी से सीखिए पीएम साहब

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

बीजेपी की सरकार ने राज्यसभा में फिलस्तीन पर बहस के दौरान अपनी विदेश नीति के पहले ही प्रदर्शन में खुद को शर्मिन्दा कर लिया। उन्होंने दिखाया कि वह सांप्रदायिक और पक्षपातपूर्ण तो है ही, देश के हितों के प्रति लापरवाह भी है।

सुषमा स्वराज ने दावा किया कि उनकी विदेश नीति का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन उनकी तरफ से बोलने वाले पहले वक्ता अनिल माधवन दवे ने फिलस्तीन पर जारी बहस में 'नमाज़' और 'जन्नत' की ज़िक्र कर सांप्रदायिक पहलू को पहले ही ज़ाहिर कर दिया था। उन्होंने कहा कि उनका एक मुस्लिम मित्र था, जो उस तब नमाज़ पढ़ने से रुक गया था, जब उन्होंने (दवे ने) उसे बताया कि जिस मस्जिद में वह नमाज़ पढ़ने जा रहा है, वह 'विवादित ढांचा' (बाबरी मस्जिद को पहले ऐसा भी लिखा जाता था)। वाह! क्या हास्यास्पद परिभाषा है एक 'अच्छे मुसलमान' की।

इससे भी बुरा रहा संसद भवन के बाहर संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू का दावा, जिन्होंने मीडिया से कहा कि विपक्ष के लिए यह "अल्पसंख्यकों का मुद्दा है" (इकोनॉमिक टाइम्स, 16 जुलाई, 2014)। यह बिल्कुल वैसा ही हास्यास्पद दावा है, जैसा जसवंत सिंह ने विदेशमंत्री होते हुए किया था। उन्होंने कहा था, भारत ने इस्राइल को पूर्ण राजनयिक दर्जा इसलिए नहीं दिया है, क्योंकि कांग्रेस मुस्लिमों का 'तुष्टिकरण' कर रही थी। अब सुषमा के दावों के बावजूद दवे ने सिर्फ अपने वरिष्ठ सहयोगियों या मोटे तौर पर संघ परिवार के विचारों को ही सामने रखा है, जो बीजेपी को धागों से बंधी कठपुतली की तरह नियंत्रित रखता है।

यही सांप्रदायिक सोच है, जिसकी वजह से बीजेपी आज फिलस्तीन पर हुए इस्राइली हमले को लेकर पूरी तरह पक्षपातपूर्ण बनी हुई है। वे इस्राइल द्वारा ग़ाज़ापट्टी पर किेए गए जोरदार हमले को हमास के रॉकेट हमलों के समकक्ष ही मान रहे हैं। इस्राइली हमले में अब तक लगभग 500 मासूम जानें जा चुकी हैं, जिनमें औरतें, बच्चे और बूढ़े शामिल हैं। हज़ारों अन्य लोग गंभीर रूप से घायल हैं, जिनमें से सिर्फ कुछ ही के बचने की उम्मीद है, क्योंकि ग़ाज़ा में सभी घायलों का इलाज करने के लिए पर्याप्त अस्पताल, दवाइयां और डॉक्टर नहीं हैं। हज़ारों बेघर भी हुए हैं। हमले में न अस्पतालों को बख्शा गया, न स्कूलों को, और यहां तक कि वृद्धाश्रम भी नहीं छोड़े गए। इसके बावजूद बीजेपी खुलेआम हमलावर को पीड़ित के समकक्ष रख रही है, यह भूलकर कि इस्राइल के पास अत्याधुनिक हथियार और परमाणु बम दोनों हैं, जबकि फिलस्तीन के पास थलसेना, वायुसेना या नौसेना न है, न उन्हें रखने की इजाज़त है। ग़ाज़ा बंदरगाह को बंद कर दिया गया है, उनकी हवाई पट्टी बंद कर दी गई है। उनके पास ज़मीन के नीचे बनी सुरंगों के अलावा घेरेबंदी से बचने का कोई रास्ता नहीं है। और उधर, इस्राइली नृशंस तरीके से ज़मीन के ऊपर रह रहे मासूमों को मार रहे हैं, अपंग बना रहे हैं। बीजेपी अपने पूर्वाग्रह और पक्षपातपूर्ण सोच की वजह से इस सब की तरफ से आंखें मूंदे हुए है।

सुषमा जी को छोड़िए, खुद मोदी जी को ही देख लीजिए। ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान इस्राइल-फिलस्तीन विवाद पर उनका तीन वाक्य का बयान अचंभे में डाल देने के लिए काफी है। उनके बयान की शुरुआत जारी 'संघर्ष' को लेकर 'चिंता' व्यक्त करने से हुई। चिंता...? निन्दा या भर्त्सना क्यों नहीं...? और वैसे भी, हज़ारों जानें गंवा देने वाले पीड़ितों के साथ-साथ उस हमलावर को लेकर एक जैसी चिंता कैसे व्यक्त की जा सकती है, जो स्कूल के बिगड़ैल 'गुण्डे' बच्चे की तरह बर्ताव कर रहा हो, क्योंकि वह जानता है कि फिलस्तीन की तरफ से बराबरी का वार तो हो ही नहीं सकता।

इसके बाद मोदी जी कहते हैं, "हम बातचीत से निकाले गए हल का समर्थन करते हैं..." जो बात बताने में वह नाकाम रहे, वह यह है कि बातचीत की प्रक्रिया तब तक दोबारा शुरू नहीं हो सकती, जब तक इस्राइल निहत्थे, निर्दोष फिलस्तीनियों का कत्लेआम बंद न कर दे। वह यह समझने में भी अक्षम रहे कि बातचीत की प्रक्रिया फिलस्तीनियों ने नहीं, पिछले साल इस्राइलियों ने उस समय बंद कर दी थी, जब वे कामयाब होती दिखने लगी थीं। क्यों...? क्योंकि ग़ाज़ा के लोगों द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई हमास ने अल-फतह से अपने मतभेद भुलाने और संयुक्त मोर्चा बनाकर इस्राइल के सामने आने का फैसला किया। 'फूट डालो और राज करो' का यह शानदार उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इस्राइलियों ने दोनों गुटों के साथ आने पर आपत्ति जताई और अड़ गए कि जब तक वे दोनों अलग नहीं हो जाते, वे बातचीत के लिए नहीं लौटेंगे। अब मोदी 'बातचीत' की प्रक्रिया के साथ 'घात' करने वालों को पहचाने बिना 'बातचीत' की बात भी कैसे कर सकते हैं?

मोदी का अंतिम वाक्य था, यदि बातचीत से कोई समाधान निकलता है, तो वह "दुनियाभर में आशा और विश्वास का संचार करेगा..." बिल्कुल करेगा, लेकिन बातचीत की प्रक्रिया को रोकने के लिए कौन उत्तरदायी है...? क्या उन्हें युद्धविराम नहीं करना चाहिए, क्या उन्हें फिलस्तीनियों द्वारा वार्ता के लिए भेजे गए शिष्टमंडल को स्वीकार नहीं करना चाहिए, ताकि "आशा और विश्वास का संचार हो..." निश्चित रूप से मोदी किसी भी आशा अथवा विश्वास का संचार नहीं करते। हमें दुनिया के सामने एक ऐसे देश के रूप में नंगा कर दिया गया है, जिसकी विदेश नीति में कोई दृढ़ता नहीं, कोई सिद्धांत नहीं, कोई दीर्घकालिक सोच नहीं, और जिसके पास विश्वशांति में योगदान देने लायक कुछ भी नहीं है।

ऐसे माहौल में, जब निराशा लगातार बढ़ रही है, हम सिर्फ जवाहरलाल नेहरू का वह समझदारी-भरा परामर्श याद कर सकते हैं, जो उन्होंने फिलस्तीन के अलग होने के तुरंत बाद उसे लेकर संसद में पहली बार हुई चर्चा के दौरान 4 दिसंबर, 1947 को दिया था। फिलस्तीन को अलग किए जाने के खिलाफ हमारे स्वतंत्र और सिद्धांतपूर्ण रुख का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा था, "अपरिहार्य रूप से इसका अर्थ होगा, हमें संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को लेकर अकेले पड़ जाएंगे..." लेकिन उन्होंने यह भी कहा था, "इसके बावजूद, यही एकमात्र सम्मानजनक और सही रास्ता है, जिसके जरिये हम अंततः राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा हासिल करेंगे..."

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मोदी फोर्तालेज़ा में वह सबक भूल गए। वह बेहद नर्मी से ब्रिक्स घोषणापत्र के 38वें अनुच्छेद को पढ़ गए, जो न इस्राइल की निंदा करता है, न युद्धविराम का आह्वान। हम लोग नवंबर, 1947 में लौट आए, जब दूसरी शक्तियां हमारे फैसले बदलवाने की कोशिश कर रही थीं। वे कई कमज़ोर देशों से जीत गए, लेकिन हमारे साथ नाकाम रहे। आखिरकार, भारत ने ही अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा हासिल की, जिसकी बदौलत हमने गुट-निरपेक्ष आंदोलन की स्थापना और नेतृत्व किया। नेहरू की भविष्यवाणी सच हुई। हमने "राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा" हासिल की, जिसके साथ अब मोदी और उनकी सरकार घात कर रहे हैं। आह! आह! आह!

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