यह ख़बर 11 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : मोदी जी, अंग्रेज़ी के बारे में गांधी जी ने भी कुछ कहा था

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

वर्ष 1963 में जब मैं भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) का हिस्सा बना, मुझे फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रसेल्स भेजा गया, ताकि मैं अपनी 'अनिवार्य विदेशी भाषा' - फ्रेंच सीख सकूं। हुआ यह कि पहले ऑडियो-विज़ुअल टीचिंग कोर्स के लिए हमारी क्लास प्रयोग का विषय थी, सो, हमारी क्लास के साथ एक भाषा मनोविज्ञानी को जोड़ दिया गया, ताकि यह देखा जा सके कि विभिन्न राष्ट्रीयताओं - सीरियाई, तुर्की, जर्मन, इटालियन, पेरूवियन, क्यूबाई, जापानी अमेरिकन - के लोगों को समेटे यह क्लास, जिसे एक सिर्फ फ्रेंच बोलने वाले शिक्षक के साथ बिठा दिया गया है, भाषा को किस तरह पकड़ पाती है। जल्द ही स्पष्ट हो गया कि दोनों भारतीय - केपी बालाकृष्णन तथा मैं - क्लास के बाकी लोगों से कहीं आगे थे, और हम दोनों ने कुछ ही हफ्तों में भाषा के मूल सिद्धांतों को सीख लिया। मैंने उस मनोविज्ञानी से पूछा, ऐसा कैसे हो पा रहा है - क्या इसलिए कि हम बाकी लोगों से ज़्यादा होशियार हैं, या हमारी पृष्ठभूमि में कुछ ऐसा है, जिसकी बदौलत हम एक विदेशी भाषा को बाकी लोगों के मुकाबले जल्दी सीख रहे हैं। उन्होंने कहा कि बाकी क्लास की तुलना में हम दोनों के आगे निकल जाने का कारण बेहद सरल है। भाषा मनोविज्ञान ने बहुत समय पहले ही यह स्थापित किया था कि जो लोग दो भाषाएं सीखते हुए बड़े होते हैं, वे वयस्क होकर (जिसकी कट-ऑफ आयु 35 वर्ष है) तीसरी भाषा उन लोगों की तुलना में जल्दी सीख सकते हैं, जो सिर्फ एक भाषा सीखकर वयस्क हुए। मेरे सहपाठी केपी बालाकृष्णन की मातृभाषा मलयालम थी, जबकि मेरी मातृभाषा तमिल है, हम दोनों की ही हिन्दी पर भी अच्छी पकड़ थी, और निश्चित रूप से हम दोनों अंग्रेज़ी भी जानते थे, सो, फ्रेंच हम दोनों के लिए चौथी भाषा थी, सो, इसी कारण हम बाकी सभी से, खासतौर से अमेरिकनों से (जिन्हें सही अंग्रेज़ी भी नहीं आती, और जिन्हें 'अमेरिकन' कहे जाने वाले एक अलग ही लहजे को सिखाकर पाला जाता है), कहीं आगे निकल गए।

जो भी आईएफएस बनते हैं, उन्हें अपनी अनिवार्य विदेशी भाषा इस हद तक सीखनी पड़ी है, ताकि वे मौखिक तथा लिखित परीक्षा पास कर सकें, और तभी उन्हें सेवा में नियमित किया जाता है। मसूरी में हुए पहले चरण का प्रशिक्षण खत्म करने से पहले ही हमें अनिवार्य रूप से हिन्दी में भी मौखिक तथा लिखित परीक्षा पास करनी पड़ी थी। सो, भले ही हम सबने अपनी सिविल सर्विस परीक्षा अंग्रेज़ी में पास की थी, फिर भी नियमित रूप से सेवा में आने से पहले हमें कम से कम तीन भाषाओं - अंग्रेज़ी, हिन्दी तथा एक विदेशी भाषा - पर अच्छा-खासा अधिकार हासिल करना पड़ा। इसके इतर, भले ही वे दिन लगभग 40 साल पहले बीत चुके हैं, जब मुझे रोज़ाना फ्रेंच बोलने का मौका मिलता था, आज भी अगर कभी मुझसे फ्रेंच में साक्षात्कार लिया जाता है, या कोई फ्रेंच बोलने वाला मिलता है, मुझे हैरानी होती है कि फ्रेंच मेरी ज़ुबान पर कितनी आसानी से लौट आती है।

बिल्कुल इसी तरह आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) के हमारे साथियों को अनिवार्य रूप से हिन्दी की परीक्षा तो उत्तीर्ण करनी ही पड़ती थी, बल्कि अपने गृहराज्य से बाहर तैनाती की स्थिति (जो लगभग दो-तिहाई मामलों में होता ही है) में नियमित हो पाने से पहले उस राज्य की भाषा भी सीखनी पड़ती थी, जहां तैनाती की गई है। जब मैं अपनी जानकारी में उत्तर प्रदेश के दो सबसे कामयाब मुख्य सचिवों कल्याणकृष्णन तथा टीएसआर सुब्रमण्यम के बारे में सोचता हूं, स्पष्ट हो जाता है कि प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में तरक्की करनी है तो राज्य की भाषा सीखनी ही होगी। उधर, तमिलनाडु में मेरे संसदीय क्षेत्र में भी मैं बहुत-से एसडीएम और कलक्टर से मिला, जिनमें से कई हिन्दी-भाषी राज्यों से थे, और उनका तमिल ज्ञान अच्छा अथवा प्रशंसनीय था (जबकि आमतौर पर भारतीयों के लिए तमिल सीखना असाधारण रूप से कठिन होता है, क्योंकि अन्य भारतीय भाषाओं के विपरीत तमिल की जड़ें संस्कृत से नहीं हैं, और उस पर संस्कृत का प्रभाव भी मामूली है)।

मुझे लगता है, सी-सैट से जुड़ी समस्या के हल का बीज अपने अनुभवों के जरिये हमारे पास यही है। एप्टीट्यूड टेस्ट (Aptitude Test) सिर्फ अंग्रेज़ी में ही क्यों करवाया जाना चाहिए? यदि हम कहते हैं, एप्टीट्यूड टेस्ट किन्हीं भी दो भारतीय भाषाओं (जिनमें से एक अंग्रेज़ी हो सकती है) का ज्ञान जांचेगा, और 200 सी-सैट अंकों को इन दोनों भाषाओं में बराबर बांटा जाएगा, तो यह सभी अभ्यर्थियों के लिए एक समान प्लेटफॉर्म बन जाएगा, चाहे उनकी भाषा कोई भी हो। स्पष्ट है कि सभी अभ्यर्थी इन दोनों में से एक भाषा में तो प्रवीण होंगे ही, और दूसरी भाषा में कुछ कम प्रवीण होंगे। सो, किसी को भी भाषा प्रवीणता जांचने की परीक्षा में अनावश्यक लाभ नहीं मिल पाएगा, और यदि इन दोनों भाषाओं में से अंग्रेज़ी को निकाल भी दिया जाए, तब भी सभी के लिए अवसर समान होंगे, क्योंकि प्रत्येक अभ्यर्थी को दो भाषाओं में प्रवीणता रखनी ही होगी। वास्तव में इससे हिन्दीभाषियों को तमिल अथवा मलयालम अथवा बांग्ला अथवा उड़िया अथवा मिजो अथवा असमी सीखने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे राष्ट्रीय अखंडता मजबूत होगी। अपने एक पुराने ब्लॉग में मैंने तमिल सांसद इरा सेज़ियान का बयान उद्धृत किया था, जो उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के बयान - प्रत्येक दक्षिणी राज्य में हिन्दी प्रचार सभा मौजूद है - के जवाब में दिया था। इरा ने कहा था, "और आपके पास उत्तर प्रदेश में कितनी तमिल प्रचार सभा हैं, और कितनी मलयालम प्रचार सभा मध्य प्रदेश में हैं...?" यदि सी-सैट एप्टीट्यूड टेस्ट के लिए किसी दूसरी आधुनिक भारतीय भाषा में प्रवीणता आवश्यक हो जाएगी, तो जो लोग अंग्रेज़ी को साम्राज्यवाद की देन मानते हैं, उन्हें किसी भी दूसरी भारतीय भाषा - तेलुगू, शायद कोंकणी, कन्नड़ या उर्दू - सीखने की छूट मिल जाएगी।

परन्तु यह सवाल उठ खड़ा होता है कि वह तमिलभाषी क्या करेगा, जिसने सी-सैट के लिए दूसरी भाषा के रूप में मलयालम को चुना था? तमिलनाडु और केरल के बाहर इन दोनों भाषाओं को कौन बोलता-समझता है? वह तमिलभाषी अपने उत्तरी, पूर्वी, पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी सहयोगियों के साथ कैसे विचार-विमर्श करेगा? उत्तर सरल है। सेवा में नियमित होने के लिए अभ्यर्थी को अनिवार्य रूप से हिन्दी की परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी, और यदि उसकी तैनाती महाराष्ट्र या गुजरात में हो जाती है, तो उसे मराठी या गुजराती का भी कामचलाऊ ज्ञान होना ही चाहिए।

किसी भी प्रशासक के लिए उसके कार्यों से जुड़ी भाषागत योग्यता कतई ज़रूरी है। उसका अंग्रेज़ी साहित्य और साहित्यकारों का ज्ञान उसके किसी काम नहीं आएगा, यदि उसे अरुणाचल प्रदेश जाकर काम करना पड़ा। यहां सवाल हिन्दी और अंग्रेज़ी का नहीं है। यदि ऐसा होता तो हम अंग्रेज़ी से छुटकारा पा सकते थे। परन्तु जिन लोगों की मातृभाषा हिन्दी नहीं है, वे चिंतित होते हैं कि यदि 42 प्रतिशत हिन्दीभाषियों को 58 प्रतिशत गैर-हिन्दीभाषियों (जिनके लिए हिन्दी सीखी हुई भाषा है, मातृभाषा नहीं) पर इस तरह तरजीह दी जाएगी, तो हिन्दीभाषियों का गैर-हिन्दीभाषियों पर स्थायी प्रभुत्व स्थापित हो जाएगा, और हम उसी स्थिति में पहुंच जाएंगे, जिसमें वर्ष 1971 से पहले पाकिस्तान था, जिसके पूर्वी हिस्से में उर्दू बोलने वाले अल्पसंख्यकों ने बांग्लाभाषी बहुसंख्यकों पर स्थायी भाषायी प्रभुत्व स्थापित करने के प्रयास किया। इसी वजह से गैर-हिन्दीभाषी राज्य अंग्रेज़ी से होने वाला नुकसान बर्दाश्त कर लेते हैं, लेकिन वह नुकसान बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं होते, जो उनके राज्य में अल्पसंख्यकों की भाषा हिन्दी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बना देने से गैर-हिन्दीभाषी जनता को होगा।

अलग-अलग भाषाओं को अनुमति देने के बाद दिखने वाली गैर-बराबरी से भी हम बराबरी का माहौल हासिल कर सकते हैं, यदि सी-सैट एप्टीट्यूड टेस्ट अभ्यर्थी की इच्छानुसार किन्हीं भी दो आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिया जाए, और एक भाषा अंग्रेज़ी होने की अनिवार्यता हटा दी जाए। हिन्दी अथवा किसी भी अन्य भारतीय भाषा को सी-सैट में एकमात्र भाषा बनाकर अंग्रेज़ीभाषियों को दूर फेंक देने की इस कोशिश का पूर्वोत्तर के राज्यों में कड़ा विरोध होगा (उदाहरणार्थ नागालैंड में अंग्रेज़ी राजकीय भाषा है, जबकि वहां 16 स्थानीय बोलियां बोली जाती हैं)। इसका विरोध कई और स्थानों पर भी होगा, जहां कहा जाएगा कि अंग्रेज़ी साहित्य रतकर नोबेल और मैन-बुकर पुरस्कार जीत चुके भारत के पास भारतीयता में ढाली जी चुकी अंग्रेज़ी है, भले ही उस भाषा का मूल कहीं भी रहा हो। भारतीयता में ढाली जी चुकी अंग्रेज़ी उतनी ही भारतीय भाषा है, जितनी अमेरिका में ब्रिटिश अंग्रेज़ी का अमेरिकन रूप है। (वैसे, इंग्लैंड में भी अंग्रेज़ी भाषा की 'हत्या' सैकड़ों तरीकों से की जाती रही है - प्रोफेसर हिगिन्स ने माई फेयर लेडी में कहा था, "ओह... अंग्रेज़ लोग अपने बच्चों को सही तरीके से बोलना क्यों नहीं सिखा सकते..." या ध्यान दें कि 21वीं सदी में हुए स्कॉटिश और वेल्श स्वतंत्रता संग्राम की जड़ में अंग्रेज़ी-विरोधी भाषाभक्ति ही थी)।

यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि सभी अन्य परीक्षाएं (जिनके अंक अंतिम परीक्षा में गिने जाते हैं) अंग्रेज़ी, हिन्दी या किसी भी अनुसूचित भाषा में लिखी जा सकती हैं। सो, यदि हम एप्टीट्यूड टेस्ट से अंग्रेज़ी की अनिवार्यता हटा भी दें, तो भी हम अभ्यर्थी को 200 में से सिर्फ 70 अंक का लाभ दे रहे हैं, जबकि 200 में से कुल 70 अंक लाकर वह वैसे भी मुख्य परीक्षा में शामिल होने की योग्यता हासिल कर सकता है, जहां अंग्रेज़ी का ज्ञान कतई ज़रूरी नहीं है। लेकिन यदि ये 70 अंक भी अंग्रेज़ी न जानने वाले या अंग्रेज़ी सीखने के लिए कतई अनिच्छुक अभ्यर्थियों के गले नहीं उतरते, इन 70 अंकों को जाने दीजिए, लेकिन याद रहे, सेवा में नियमित होने से पहले उन्हें दो और भाषाएं सीखनी होंगी, यदि वे हिन्दीभाषी हैं, और यदि वे हिन्दीभाषी नहीं हैं, तो उन्हें तीन अन्य भाषाएं (अंग्रेज़ी, हिन्दी और एक राज्य की या विदेशी भाषा) सीखनी पड़ेंगी। फिर भी अगर मुखर्जी नगर में हड़ताल पर बैठे अभ्यर्थियों की हताशा को दूर करने के लिए अंग्रेज़ी की अनिवार्यता को हटाना ज़रूरी है, तो ऐसा ही होने दीजिए। लेकिन अगर मोदी हर चीज़ का हिन्दीकरण करने के अपने चुनावी वायदों पर अड़े रहते हैं, तो यह देश खंड-खंड हो जाएगा। इस वक्त तो वह रोड़े अटकाते महसूस हो रहे हैं। अगर उन्हें लगता है कि भाषा-संबंधी अड़ियलपन को प्रश्रय देकर वह इस संकट को दूर कर सकते हैं, तो जैसा पुरानी कहावतों में कहा जाता है - "इस बार पानी नहीं बरसेगा, आग ही लगेगी..."

मोजी जी, गुज़रे ज़माने में एक गुजराती ने कहा था, "अंग्रेज़ी अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य की भाषा है, यह कूटनीति की भाषा है, और इसमें काफी समृद्ध साहित्यिक खज़ाना भी मौजूद है, इससे पश्चिमी विचारों और संस्कृति का परिचय भी मिलता है... इसलिए, हममें से कुछ के लिए अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है..."

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उस गुजराती का नाम महात्मा गांधी था... उन्होंने यह बिल्कुल सही कहा था कि 'कुछ के लिए' - लेकिन सिर्फ कुछ के लिए - अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है। क्योंकि यही वे 'कुछ' हैं, जो ऊंचे प्रशासनिक पदों पर बैठे हैं। बाकी किसी के लिए भी अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी नहीं है, और कोई उन्हें अंग्रेज़ी सीखने से मना करने के लिए नहीं लताड़ेगा। गांधी जी ने यह भी कहा था, "अंग्रेज़ी प्रेम से छुटकारा पाना स्वराज का एक ज़रूरी हिस्सा है..." जिन परीक्षाओं के अंक रैंकिंग तय करने के लिए गिने जाते हैं, उन्हें हमने अंग्रेज़ी, हिन्दी या किसी भी अनुसूचित भाषा में लिखने की छूट देकर 'अंग्रेज़ी प्रेम से छुटकारा' पा लिया है। अब सिर्फ 70 अंक हैं, जिनके लिए अंग्रेज़ी अनिवार्य है। आइए, उससे भी छुटकारा पा लेते हैं, लेकिन इस बात से छुटकारा नहीं होना चाहिए कि प्रशासनिक अधिकारी को भाषाओं का ज्ञान हो। इसके लिए हमें ज़ोर देना होगा कि अभ्यर्थी को प्रारंभिक परीक्षा (प्रीलिम्स) उत्तीर्ण करने के लिए किन्हीं भी दो भारतीय भाषाओं का ज्ञान कम से कम 70 अंक पाने के लायक होना चाहिए, लेकिन इस बात पर भी ज़ोर देना होगा कि उसे प्रथम या द्वितीय श्रेणी के सरकारी अधिकारी के रूप में काम पर नियमित होने से पहले अंग्रेज़ी, हिन्दी और एक तीसरी भाषा में प्रवीण होना ही होगा। यही वास्तविक चुनौती है, और यह एक रास्ता भी है, यूपीएससी-सी-सैट के मौजूदा संकट को हल करने का।

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