यह ख़बर 27 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : पाकिस्तान से वार्ता के मुद्दे पर सामने आई प्रधानमंत्री की 'ऐतिहासिक नाकाबिलियत'

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

जब नरेंद्र मोदी ने 25 अगस्त को भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों के बीच होने जा रही वार्ता को बचकाना तरीके से रद्द किया, तो क्या उन्होंने हुर्रियत के पाकिस्तान से संपर्क को वार्ता रद्द करने का कारण बताने से पहले कश्मीर घाटी में उसके असर के बारे में सोचा था। अगर नहीं सोचा, तो यह गैर-ज़िम्मेदाराना है, और अगर सोचा था, तो यह उससे भी ज़्यादा गैर-ज़िम्मेदाराना है।

जैसे, लंबे समय से श्रीनगर में रह रहे एक गैर-कश्मीरी ने मुझे एसएमएस भेजा, "बेहद दुर्भाग्यपूर्ण... अब हुर्रियत वाले घाटी में हीरो बन गए हैं... कल्पना से परे है नाकाबिलियत..." मैंने श्रीनगर में सिर्फ आधा दिन बिताया, और मैं इस बात से हैरान था कि कश्मीर यूनिवर्सिटी में सभी वर्गों - शिक्षकों, विद्यार्थियों मामूली पुलिसकर्मियों और ड्राइवरों - ने मुझे ऐसा सत्कार दिया, और इस तरह गले लगाया, जैसे मैं कोई बहुत पुराना दोस्त हूं, जबकि अधिकतर की सूरत भी मैंने पहली बार देखी थी। उनके स्वागत में इतनी गर्मजोशी सिर्फ इसलिए मौजूद थी, क्योंकि मैंने मीडिया में - खासतौर पर टीवी पर - सरकार के पाकिस्तान से बातचीत रद्द कर देने के सनक-भरे और बचकाना फैसले का पुरजोर विरोध किया। हुर्रियत के कारण वार्ता रद्द करने का फैसला इसलिए भी बचकाना है, क्योंकि हुर्रियत तो पिछले 19 साल से पाकिस्तान से बातचीत कर ही रही है।

'ग्रेटर कश्मीर' ने न सिर्फ पाक उच्चायुक्त और भारतीय प्रवक्ता के एक-दूसरे की काट करते बयानों को अपने मुखपृष्ठ पर छापा, बल्कि उसने हुर्रियत के चेयरमैन गिलानी की इस मांग को भी मुखपृष्ठ पर जगह दी कि वे 'व्यापारिक संबंधों और भारत से अन्य मुद्दों की जगह कश्मीर विवाद को हल करने को तरजीह दें...' यह हम पाकिस्तान के साथ बहुत पहले ही तय कर चुके हैं कि हमारी वार्ता व्यापक और समग्र होगी, एक-दूसरे के हितों से जुड़ा कोई भी मुद्दा उठाया जा सकेगा, और उस पर चर्चा की जाएगी। सो, अब कश्मीरी अलगाववादियों को ऐसा मौका देने की क्या ज़रूरत है, ताकि वे अपना कश्मीर-केंद्रित विचार सामने लाकर यह तय करने की कोशिश कर सकें कि बातचीत का रुख और स्वरूप कैसा होना चाहिए। कई सालों से अब तक उनके विचारों को कुछ ही कश्मीरियों ने सराहा था, लेकिन अब मोदी ने बहुत-से कश्मीरियों की नज़रों में गिलानी की बातों को सारगर्भित बनाकर रख दिया है। यह तो ऐतिहासिक नाकाबिलियत है...

गिलानी के प्रवक्ता ने यह भी कहा, "अलगाववादियों से मुलाकात कै फैसला करने के लिए गिलानी साहब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ का शुक्रिया अदा करते हैं..." अगर हुर्रियत नेताओं को पाकिस्तानी उच्चायुक्त से मिलने की इजाज़त दे दी गई होती, तो यह शुक्रिया हमारी सरकार को दिया जाता। लेकिन अब नवाज़ शरीफ को इससे लाभ हुआ, और हमारे आदमी को ऐसे ढीठ, बदमिजाज़ और उग्र व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया, जो रोड़े अटका रहा है। एक बार फिर, ऐतिहासिक नाकाबिलियत...

यासीन मलिक का कहना है, "विवाद के अनसुलझा रहने से 80 फासदी कश्मीरी अवसाद का शिकार हैं... व्यापार और अनय् मुद्दे बाद में भी सुलझाए जा सकते हैं, लेकिन कश्मीर विवाद को हल करना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि कश्मीरी इसकी भारी कीमत चुका रहे हैं..." भले ही हुर्रियत, आपसी मतभेदों से घिरी जमातों का समूह है, लेकिन अब मोदी ने उन्हें एकजुट कर दिया है, जिन्होंने आपसी मतभेद भुला दिए हैं। क्या यही करना चाहते थे मोदी? और यदि नहीं, तो क्या उन्हें एहसास है कि वास्तव में उन्होंने क्या कर डाला है?

और शब्बीर शाह ने भी मौके का भरपूर फायदा उठाया, और 'एक जैसी सोच रखने वाले अलगाववादियों के बीच एकता की वकालत' कर डाली, जो अब तक एक ऐसा लक्ष्य लगता रहा था, जो दूर-दूर तक मुमकिन नहीं था, और वही स्थिति भारत के लिए फायदेमंद थी। इसी दौरान, मीरवाइज़ उमर फारूक ने भी यह कहकर खंजर को भारत के सीने में भीतर तक धकेल दिया कि 'कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा कह देने भर से उस विवाद का रूप नहीं बदल सकता...'

यह भी ध्यान देने लायक है कि ऐसी आवाज़ें सिर्फ हुर्रियत तक ही सीमित नहीं हैं। जे एंड के बार एसोसिएशन ने बातचीत रद्द किए जाने पर निराशा व्यक्त करते हुए 'पाकिस्तान या कश्मीर की आज़ादी के पक्षधरों से बातचीत के प्रति कभी भी गंभीर नहीं होने' के लिए भारत की निंदा की है। एसोसिएशन के मुताबिक 'दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के लिए कभी-कभी पाकिस्तान से बातचीत के लिए तैयार हो जाता है, लेकिन उसके बाद भारत हमेशा पीछे हट जाता है...' आम आदमी पार्टी के राज्यस्तर के नेता डॉ राजा मुज़फ्फर भट्ट ने तो यहां तक कहा, "जब एक वरिष्ठ भारतीय पत्रकार वेदप्रताप वैदिक पाकिस्तान जाकर हाफिज़ सईद से मिल सकता है, तो कश्मीरी नेता पाकिस्तानी अधिकारियों से क्यों नहीं मिल सकते, क्योंकि आखिर कश्मीरी ही कश्मीर के बड़े हिस्सेदार हैं..." जम्म कश्मीर साल्वेशन मूवमेंट के चेयरमैन ज़फर अकबर भट ने कहा, "अगर कश्मीर विवाद में कश्मीरी हिस्सेदार नहीं हैं तो वर्ष 2000 में बीजेपी की सरकार ने हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन के नेताओं और कमांडरों से बातचीत क्यों की थी...?" और, यहीं पर बस नहीं हुआ... घाटी के हिन्दू नेता पंडित भूषण बजाज ने भी 'सरकार से मांग की है कि कश्मीरी लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं के हिसाब से कश्मीर विवाद को हल करने के लिए गंभीर और प्रभावी कदम उठाए...'

यहां तक कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद मोहम्मद शफी जैसे मुख्यधारा के कश्मीरी राजनीतिज्ञ भी कह रहे हैं, " विवादों को हल करने के लिए वार्ता एकमात्र रास्ता है... वार्ता में किसी भी तरह की रुकावट से दोनों देशों के अलावा कश्मीरी भी सीधे रूप से प्रभावित होते हैं..." वार्ता जारी रखे जाने की ज़रूरत है, ताकि कश्मीर का मुद्दा शांतिपूर्वक हल किया जा सके..."

अलग-अलग विचार रखने वाले आपस में झगड़ते कश्मीरी गुटों को कमोबेश मतैक्य तक ले आना काफी मेहनत का काम था, और मोदी ने वह कर दिखाया है, लेकिन क्यों?

आमतौर पर माना जा रहा है कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त से हुर्रियत नेताओं की मुलाकात को लेकर हुआ विवाद दरअसल एक 'चाल' था, ताकि भारत-पाक वार्ता को रद्द किया जा सके। पीडीपी के नईम अख्तर ने कहा, "अगर नई दिल्ली की मंशा पाकिस्तान से वार्ता की होती, तो वे अलगाववादियों को श्रीनगर में ही रोक सकते थे... लेकिन उन्होंने उन्हें दिल्ली तक जाने दिया, और फिर वार्ता को रद्द करने के लिए उसी का इस्तेमाल किया..."

शब्बीर शाह ने भी कहा, "दिल्ली में हमारी मौजूदगी को न्यूज़ चैनलों के जरिये राष्ट्रीय भावनाएं भड़काने के लिए इस्तेमाल किया गया, और फिर उन्होंने बातचीत रद्द कर दी..." शब्बीर शाह का सवाल है कि उन्होंने पाक उच्चायुक्त से उनकी (हुर्रियत नेताओं की) मुलाकात को हथियार बनाकर वार्ता रद्द करने की जगह उन्हें कश्मीर में उनके घरों में ही कैद क्यों नहीं किया। और वे इस समय पाकिस्तान से वार्ता क्यों नहीं चाहते? क्योंकि, शब्बीर शाह के मुताबिक, "बीजेपी एक बार फिर आने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र हिन्दू वोटबैंक को लुभा रही है, और उसी वजह से पहले हमें दिल्ली पहुंचने दिया गया, और फिर वार्ता रद्द कर दी गई..." वह पिछले वक्त को याद करते हुए बताते हैं कि कैसे पाकिस्तान नेताओं से मुलाकात के लिए दिल्ली आने देने के स्थान पर हुर्रियत नेताओं को कई बार श्रीनगर में ही हिरासत में लिया गया था - एक बार वर्ष 2011 में, जब पाकिस्तानी विदेशमंत्री हिना रब्बानी खार दिल्ली आई थीं, और फिर वर्ष 2013 में भी, जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज भारत आए थे। दोनों ही मौकों पर शब्बीर शाह को घर में ही नज़रबंद कर दिया गया था।

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्यों भारत सरकार ने, जिसे पाकिस्तानी उच्चायुक्त द्वारा हुर्रियत नेताओं को न्योता दिए जाने की जानकारी 10 अगस्त से ही थी, आठ दिन तक इंतज़ार किया, और जब अलगाववादी नेता दिल्ली पहुंच गए, तब पूरे गाजे-बाजे के साथ आपत्ति जताई। सरकार यह भी जानती थी कि अगर अब पाकिस्तान उनकी नई शर्त के आगे झुक गया तो उसकी बहुत छीछालेदर होगी। मुझे इस घटिया हरकत के पीछे अमित शाह का हाथ लगता है। वही जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा के आगामी चुनाव के प्रभारी हैं। और चूंकि कश्मीरी पंडितों को डाक के जरिये वोट देने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, अमित शाह का अंदाज़ा है कि भगवा पंडित वोटों को हासिल करने के लिए मोदी को पाकिस्तान को डराने वाले ड्रैगन के रूप में दिखाना अच्छी तरकीब हो सकती है।

चलिए, इसे भी जायज़ माना जा सकता है, लेकिन अगर एक महत्वपूर्ण पड़ोसी देश से हमारे रिश्तों को अंदरूनी चुनावों में हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा, तो इससे मोदी की विदेश नीति की 'विशेषताएं' - गैरजिम्मेदाराना रवैया और नौसिखियापन - और भी उभरकर सामने आ जाती हैं।

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श्रीनगर के दैनिक समाचारपत्र 'ग्रेटर कश्मीर' ने ऐसे गैरजिम्मेदाराना रवैये के परिणाम बहुत स्पष्ट रूप से बताए हैं, "पाकिस्तानी उच्चायुक्त द्वारा अलगाववादियों को बुलाए जाने को लेकर विदेश सचिव स्तरीय वार्ता को नाटकीय ढंग से रद्द कर देने पर हैरानी भी है, और अविश्वास भी... जहां तक पाकिस्तान से वार्ता का प्रश्न है, एनडीए सरकार ने अपने लिए विकल्प खत्म कर लिए हैं... दोनों देशों के बीच निकट भविष्य में कोई बातचीत होने की कोई संभावना फिलहाल नज़र नहीं आ रही है... और यह दुर्भाग्यपूर्ण है... किसी भी संपर्क के अभाव में क्षेत्र के वातावरण में तनाव और बढ़ेगा, जिसमें हमेशा संघर्ष के बढ़ने की आशंका जुड़ी रहती है..." क्या यही चाहते हैं मोदी...?

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