यह ख़बर 23 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : क्या है, जो गायब रहा मोदी के बजट से?

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

यदि भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में प्रकाशित की गई अर्थहीन सामग्री और राष्ट्रपति के अभिभाषण में गरीबों को प्राथमिकता बताने वाले 'मोदीत्व' को दिमाग में रखा जाए तो अरुण जेटली के पहले बजट में ऐसा कुछ नहीं - कतई नहीं - था, जो किसी ग्रामीण घर में खुशियां ला सके। इस बजट में एकमात्र अच्छी बात यह है कि अरुण जेटली ने पिछली सरकार द्वारा शुरू की गई गरीबोन्मुखी योजनाओं में ज़्यादा बदलाव नहीं किया है। परमात्मा का लाख-लाख शुक्र है।

फिर भी मोदी (प्रधानमंत्री) ने इस बजट को 'अरुणोदय' कहकर पुकारने की हिम्मत दिखाई। यह 'अरुणोदय' नहीं है, सिर्फ 'अरुण जेटली' की छाप है। वित्तमंत्री को तो इस बात के लिए पुरस्कार मिलना चाहिए कि उन्होंने ढाई घंटे तक भाषण दिया, और उसमें एक बार भी पंचायत राज का ज़िक्र नहीं किया, जबकि बजट ग्रामीण गरीबों के लिए ही होता है। अरुण जेटली के लिए इस बजट का सिर्फ एक ही लक्ष्य था, और वह था दलाल स्ट्रीट पर बैठे उनके संरक्षक (लेकिन दलाल स्ट्रीट भी इस बजट के प्रभाव से अछूती रही, और सेंसेक्स व निफ्टी भी उनका एकरसतापूर्ण भाषण सुनकर लुढ़क गए)। जेटली की ही तरह 'द इकोनॉमिक टाइम्स' ने भी बजट से अगली सुबह अपने मुख्य संस्करण के बजट को समर्पित 23 पृष्ठों में करोड़ों ग्रामीण गरीबों का ज़िक्र नहीं किया, जो दरअसल सबसे ज़्यादा ज़रूरतमंद हैं। उनका सौभाग्य सिर्फ यही है कि 'अरुणोदय' से पहले 10 साल तक यूपीए की सरकार रही, और इसी कारण अरुण जेटली यूपीए सरकार के ही कार्यक्रमों को बिना किसी बदलाव के बीजेपी के कार्यक्रम बताकर शुरू कर सके। ध्यान देना होगा कि पिछले 10 सालों के दौरान जेटली एंड कंपनी इन्हीं कार्यक्रमों को पैसे और संसाधनों की बरबादी बताती रही है, और मोदी ने भी अपने 'कुख्यात' प्रचार अभियान के दौरान कहा था कि इन योजनाओं का लक्ष्य सिर्फ कांग्रेस नेताओं की जेबें भरना है। सो, अब क्या यह माना जाए इन योजनाओं को बीजेपी के नेताओं की जेबें भरने के लिए अनछुआ छोड़ा गया है।

अगर कुछ थोड़ी-बहुत उम्मीद गरीबों के लिए इस बजट में है, तो वह दो साधनों से आती है। एक, जेटली द्वारा घोषित की गईं 29 टोकन योजनाओं की वह सूची, जिसमें से प्रत्येक के लिए 100 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। इन योजनाओं के लिए नॉर्थ ब्लॉक भी यही कहेगा, "निश्चिंत रहिए, हम असल में इन योजनाओं को इस साल लागू नहीं कर रहे हैं, बल्कि यह जांचेंगे कि इनमें से कौन-सी योजनाएं मुमकिन हैं, और उन पर क्या खर्च आएगा।" अनय् वित्तमंत्रियों ने भी यही किया था, लेकिन सिर्फ एक या दो योजनाओं के लिए। जेटली ने 29 योजनाओं की इच्छासूची (या कहें भ्रमित करने वाली सूची) के साथ उन सभी को पछाड़ दिया है। मुझे इस बात की चिन्ता नहीं है कि वक्त के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल या पंचायती राज संस्थाओं के तहत दर्ज 29 में से किसी भी विषय से जुड़ी ये योजनाएं नाकाम हो जाएंगी, बल्कि यह है कि ये योजनाएं उस मूलभूत सवाल का कोई जवाब नहीं देंगी कि वित्तीय आवंटनों के बावजूद अच्छे नतीजे क्यों नहीं मिलते, और साथ ही व्यवस्था के साथ यह ऐसा खिलवाड़ साबित होंगी, जो किसी अज्ञानी व्यक्ति ने कुछ ठीक करने की कोशिश में कर डाला हो।

लगता है, 'मोदीत्व' यह नहीं समझता कि पंचायतें 'जनशक्ति' या 'जन भागीदारी' का मंच होती हैं। मोदी ने जेटली के बजट से 'जनता की भागीदारी' और 'जनता के सशक्तिकरण' का दावा किया है, लेकिन अगर 150 मिनट के भाषण में एक बार भी 'पंचायत राज' का ज़िक्र न हुआ हो, या उस एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट का भी ज़िक्र न हुआ हो, जिसने एक साल से भी अधिक समय पहले मेरी अध्यक्षता में सार्वजनिक सेवाओं और वस्तुओं की अधिक प्रभावी व्यवस्था बनाने के लिए पंचायती राज संस्थाओं के सशक्तिकरण की बात की थी, तो मुझे डर है कि 'जन-भागीदारी' और 'जनशक्ति' से जुड़ी ये सारी बातें सिर्फ मतदाताओं को बेवकूफ बनाने वाली बातें बनकर रह जाएंगी, और देश को जल्द ही समझ आ जाएगा कि मोदी द्वारा बार-बार कहे जाने वाले 'सुशासन' शब्द का क्या अर्थ होता है।

'मोदीनॉमिक्स' ने कभी भी, गुजरात में भी, गरीबों की ज़रूरतों को नहीं समझा। इसीलिए मोदी का गुजरात मानव संसाधन विकास के आंकड़ों में देश के आधे से ज़्यादा राज्यों से बेहद पीछे रहा है, जबकि वृद्धिदर के हिसाब से वह बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के बाद चौथे स्थान पर है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मोदी पंचायती राज को कतई नहीं समझते।

मोदी के चुनाव जीतने के एक पखवाड़े बाद 'द इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली' के 31 मई, 2014 के अंक में गुजरात के आणंद में स्थित ग्रामीण प्रबंधन संस्थान के अतुलन गुहा का एक खोजपूर्ण आलेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया कि 'समरस ग्राम योजना' के तहत गुजरात सरकार ने चुनाव न करवाने के बदले पंचायतों को आर्थिक लाभ देने की घोषणा कर किस तरह पंचायत चुनाव को रुकवा दिया था। इस कदम से गुजरात में पंचायतें जनता की सेवक न रहकर गांधीनगर में बैठी सरकार की राजनैतिक एजेंट बनकर रह गईं। इस कदम से वे उन मंचों के रूप में उभर ही नहीं पाईं, जिसके जरिये जनता की चिंताओं को जानना और उन्हें दूर करने वाले कदम उठाए जा सकें।

यदि जनता के लिए सेवाओं और सामान जुटाने की व्यवस्था में जनता की कोई हिस्सेदारी नहीं होगी, यानि कोई जन-भागीदारी नहीं होगी, तो ऐसी स्थिति में 'जनशक्ति' कैसे आएगी? यदि गुजरात में 12 साल के शासन के दौरान मोदी ने पंचायतों की ओर शक्ति का कतई कोई हस्तांतरण नहीं किया, तो उनके सिर्फ एक आइडिया - केंद्र-पोषित योजनाओं के स्थान पर केंद्र द्वारा सहायता देने के कार्यक्रम - से ऐसा होने की क्या आशा की जा सकती है? जहां सिर्फ स्थानीय राजनेताओं तथा निचले स्तर की नौकरशाही से ही प्रदर्शन की उम्मीद की जाती हो, वहां नतीजे निराशाजनक होंगे ही। गुहा ने भी पंचायती चुनावों को प्रोत्साहित नहीं करने के लिए दी गई सरकारी सफाई का ज़िक्र करते हुए कहा, "सत्ता की तस्वीर नहीं बदली, और वह परंपरागत रूप से ताकतवर लोगों का ही पक्ष लेती रही... सरपंच समेत सभी प्रतिनिधि तभी पद पर बने रह सकते हैं, जब गांव में वर्चस्व रखने वाले परिवार को वे स्वीकार हों..." इसके अलावा "जिलों के स्तर पर योजना कमेटियां भी गठित नहीं की गईं", जो संविधान के हिसाब से बेहद महत्वपूर्ण हैं... इसके इतर "राज्य सरकार से पंचायती राज संस्थाओं को धनराशि हस्तांतरित करने के लिए भी कोई फॉर्मूला तैयार नहीं किया गया..." एक शब्द में कहें तो, "गुजरात में वित्तीय फेडरलिज़्म है ही नहीं..." राज्य में मौजूद वित्तीय आयोग हमेशा अपंग बने रहे हैं... इसीलिए कतई हैरानी नहीं होती, "जब 13वें वित्त आयोग की रिपोर्ट कहती है, हस्तांतरण के मामले में गुजरात ने 'शून्य' हासिल किया है..."

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एक दशक के दौरान अधिकतर समय मैं यही सोचता रहा, क्यों मोदी ने देश के लगभग सभी अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह केंद्रीय पंचायती राज मंत्री के रूप में मुझे पंचायती राज की समीक्षा करने और हालात को सुधारने के लिए सहमति-ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के लिए अपने राज्य में क्यों नहीं आमंत्रित किया, जैसा 21 अन्य मुख्यमंत्रियों ने किया था। मुझे संदेह है कि वह नहीं चाहते थे कि अपने 'पापों' का खुलासा नहीं होने देना चाहते थे। अब मैं पक्का जवाब दे सकता हूं। वह जानते थे कि मैं उनका मुखौटा उतारकर रख दूंगा, और पंचायती राज के दुश्मन नंबर एक के रूप में जनता के सामने उनकी पोल खोल दूंगा। बहरहाल, अब उसकी ज़रूरत नहीं रही, क्योंकि इस बजट के जरिये उन्होंने खुद अपनी पोल खोल दी है।

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