महबूबा मुफ्ती बनीं जम्मू-कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री, जानें उनके जीवन से जुड़े खास पहलू

महबूबा मुफ्ती बनीं जम्मू-कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री, जानें उनके जीवन से जुड़े खास पहलू

शपथ ग्रहण समारोह में महबूबा मुफ्ती...

श्रीनगर/जम्मू:

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने सोमवार को जम्मू एवं कश्मीर की मुख्यमंत्री के रूप में पद की शपथ ली। वह राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं। वह भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार के 22 सदस्यीय मंत्रिमंडल का नेतृत्व करेंगी। महबूबा (56) को राज्यपाल एन.एन. वोहरा ने पद की शपथ दिलाई। राज्य में 8 जनवरी को राज्यपाल शासन लगने के लगभग तीन महीने बाद उनके मंत्रिमंडल ने शपथ ग्रहण की है।

नई सरकार में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के नौ कैबिनेट मंत्री और तीन राज्य मंत्री हैं और भाजपा के आठ कैबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्री हैं। भाजपा नेता निर्मल सिंह नई सरकार में भी उपमुख्यमंत्री का पदभार संभालेंगे।

पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के 7 जनवरी को इंतकाल के बाद तीन महीने से राज्य में राजनीतिक अनिश्चितता की स्थिति थी।

पीडीपी ने अपने दो पूर्व कैबिनेट मंत्रियों अल्ताफ बुखारी और जावेद मुस्तफा मीर को नए मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी है और तीन बार विधायक रहे जहूर मीर को मंत्रिमंडल में शामिल किया है।

भाजपा ने पूर्व कैबिनेट मंत्री चौधरी सुखनंदन के स्थान पर श्याम लाल चौधरी को मंत्रिमंडल में शामिल किया है। कैबिनेट में पीपुल्स कांफ्रेस के नेता सज्जाद लोन भी शामिल हैं। महबूबा राज्य की 13वीं मुख्यमंत्री बन गई हैं।

कांग्रेस ने किया समारोह का बहिष्कार
वहीं कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर की भावी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के शपथ ग्रहण समारोह से दूर रहने का फैसला किया था। कांग्रेस ने कहा कि पीडीपी-भाजपा का गठबंधन ‘अपवित्र’ है। कांग्रेस के मुख्य प्रदेश प्रवक्ता रवींद्र शर्मा ने कहा, हमने भावी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के शपथ ग्रहण समारोह से दूर रहने का फैसला किया है क्योंकि यह गठबंधन शुरू से अपवित्र है और उन्होंने एक बार फिर यह अपवित्र गठबंधन बनाया है।

विधि से स्नातक हैं महबूबा
विधि स्नातक महबूबा (56) ने अपने पिता के साथ वर्ष 1996 में कांग्रेस से जुड़कर मुख्यधारा की राजनीति में कदम रख दिया था। उस समय आतंकवाद अपने चरम पर था।

पीडीपी के प्रसार का श्रेय महबूबा को दिया जाता है। कुछ पर्यवेक्षकों का तो यह तक मानना है कि आम जनता और विशेषकर युवाओं को अपने साथ जोड़ने के मामले में वह अपने पिता से भी आगे निकल गईं।

उन पर नरम-अलगाववादी कार्ड खेलने का भी आरोप लगता रहा है। पीडीपी ने अपनी पार्टी के झंडे के लिए हरे रंग का चयन किया और अपने चुनाव चिन्ह के रूप में उसने वर्ष 1987 के मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के कलम-दवात को ही चुना। एक-दूसरे से पूरी तरह विपरीत विचारधारा रखने वाले दो दलों पीडीपी और भाजपा के गठबंधन से गठित सरकार का नेतृत्व महबूबा के लिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि वह अपने पिता की ‘मरहम लगाने की’ विरासत को आगे ले जाने की पूरी कोशिश करेंगी।

दो बेटियों की मां महबूबा की छवि एक दबंग नेता की है और उन्होंने अपना पहला विधानसभा चुनाव कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में अपने गृहक्षेत्र बिजबेहड़ा से जीता था।

कश्मीर में शांति के लिए पिता के साथ मिलकर किया
महबूबा ने वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार बने अपने पिता की जीत में एक अहम भूमिका निभाई थी। तब उनके पिता ने दक्षिण कश्मीर से नेशनल कांफ्रेंस के उम्मीदवार मोहम्मद यूसुफ ताइंग को हराया था। सईद के अंदर कश्मीर में शांति वापस लाने के लिए कुछ करने की एक चाह थी और महबूबा उनके साथ ही थीं। दोनों पिता-पुत्री ने मिलकर वर्ष 1999 में अपनी क्षेत्रीय पार्टी पीडीपी की शुरुआत कर दी।

उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस से नाराज कई नेताओं को अपने साथ लिया। कुछ नेता उस कांग्रेस से भी थे, जिसके साथ सईद ने अपने छह दशक के राजनीतिक करियर का अधिकांश समय बिताया था। नई पार्टी के गठन की जिम्मेदरी महबूबा ने ले ली थी। महबूबा आतंकवाद से जुड़ी हिंसा में मारे गए लोगों के घर जाती थीं। महिलाओं को रोने के लिए अपना कंधा देकर उन्होंने लोगों की और खासतौर पर महिलाओं की नब्ज को छू लिया था।

वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी के खाते में 16 सीटें आई थीं और इनमें से अधिकतर सीटें दक्षिण कश्मीर से थीं। इस क्षेत्र में महबूबा ने व्यापक प्रचार किया था और अपनी पार्टी के लिए भारी समर्थन जुटाया था। उनके पिता ने अपनी पूर्व पार्टी कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। दो साल बाद, महबूबा ने दक्षिण कश्मीर से संसदीय चुनाव लड़ा और वह अपना पहला लोकसभा चुनाव जीतने में सफल रहीं। उन्होंने वर्ष 1999 में भी श्रीनगर से लोकसभा चुनाव लड़ा था लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी उमर अब्दुल्ला ने उन्हें हरा दिया था।

कांग्रेस से हुआ था विवाद
अमरनाथ की जमीन से जुड़ा विवाद उठने पर महबूबा ने अपने पिता को कांग्रेस के साथ गठबंधन करके बनाई गई सरकार से बाहर आने के लिए मनाने में एक अहम भूमिका निभाई। उस समय सरकार की कमान गुलाम नबी आजाद के हाथ थी। वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में महबूबा ने दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले के वाची से चुनाव लड़ा और जीता। उनकी पार्टी की सीट संख्या बढ़कर 21 हो गई थी लेकिन उन्होंने विपक्ष में रहना ही पसंद किया।

नेशनल कांफ्रेंस ने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके सरकार बना ली थी। कांग्रेस अब भी अमरनाथ जमीनी विवाद के बाद पीडीपी से मिले ‘विश्वासघात’ की टीस पाले हुए थी।

विपक्ष में रहकर बिताए वर्षों में महबूबा ने पार्टी के समर्थन की जमीन मजबूत की और नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार की कथित विफलताएं रेखांकित कीं। उन्हें एक बेहद सक्रिय विपक्षी नेता के रूप में देखा जाता था, जिसका नतीजा वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में साफ तौर पर देखने को मिला। उनकी पार्टी घाटी की तीनों सीटें जीत गई थी।

कुछ माह बाद, पीडीपी विधानसभा की 28 सीटें जीतकर राज्य की इकलौती सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई। इसके साथ ही महबूबा के पिता के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता खुल गया था। कई माह तक भारी चर्चाओं के बाद मार्च 2015 में पार्टी ने जम्मू-कश्मीर में भाजपा के साथ गठबंधन करते हुए सरकार बनाई।

सरकार गठन के बाद खुद को थोड़ा पीछे ही रखा था
हालांकि सरकार के गठन के बाद महबूबा ने खुद को थोड़ा पीछे ही रखा लेकिन सईद के खराब स्वास्थ्य की खबरें आने के बाद वह कहीं ज्यादा केंद्रीय भूमिका में आ गई थीं। अधिकतर सार्वजनिक समारोहों में उन्हें उनके पिता के साथ देखा गया।

सईद की सेहत में गिरावट आने के साथ पार्टी आलाकमान बदलने के बारे में कयास लगने लगे थे। सईद ने खुद इन कयासों को उस समय बल दे दिया था, जब उन्होंने यह संकेत दिया था कि उनके हाथों से यह बागडोर उनकी बेटी संभाल सकती है- वह उनकी बेटी होने के कारण नहीं बल्कि अपनी कड़ी मेहनत के कारण ऐसा कर सकती हैं।

इस साल सात जनवरी को सईद के निधन के बाद राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया गया था और विधानसभा को 8 जनवरी से निलंबित अवस्था में रखा गया था।

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इसके बाद पीडीपी ने सरकार गठन के लिए भाजपा के साथ अपने गठबंधन के नवीकरण से पहले केंद्र से ‘गठबंधन के एजेंडे’ को लागू करने के लिए एक तय अवधि का आश्वासन मांगा था।