यह ख़बर 08 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

परिवार से बगावत कर बीजेपी में शामिल हुए पार्सेकर की वफादारी का इनाम बना सीएम पद

फाइल फोटो

पणजी:

महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के कट्टर समर्थक रहे अपने परिवार के खिलाफ विद्रोह करके 1988 में भाजपा के टिकट पर पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने वाले लक्ष्मीकांत पार्सेकर को पार्टी के प्रति उनकी वफादारी का इनाम गोवा के मुख्यमंत्री की कुर्सी के रूप में मिला है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मजबूत पृष्ठभूमि वाले 58 साल के पार्सेकर राजनीतिक रूप से अस्थिर इस राज्य के 22वें मुख्यमंत्री और इस पद आसीन होने वाले 12वें शख्स हैं।

विद्रोही कहे जाने वाले पार्सेकर ने 1980 के दशक में अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी, लेकिन उन्होंने जो रास्ता चुना था उसे उनके परिवार ने बिल्कुल खारिज कर दिया था। उन्होंने 1988 में भाजपा प्रत्याशी के रूप में मंड्रेम विधानसभा सीट से पहली बार चुनाव लड़ा था।

उनका खेतिहर परिवार उस वक्त राजनीतिक रूप से प्रभावशाली क्षेत्रीय दल महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी का कट्टर समर्थक था। वह 1988 के चुनाव में प्रभावशाली नेता रमाकांत खलप के खिलाफ चुनाव मैदार में उतरे थे और हार गए थे।

पार्सेकर के भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने के फैसले से उनके परिवार और गांव को झटका सा लगा। उन दिनों उनके गांव में एमजीपी की कड़ी पकड़ थी और भाजपा का इस तटीय राज्य में कोई खास वजूद नहीं था।

इस बाबत परसेकर ने कहा, 'मैंने करीब करीब अपना बैग पैक कर लिया था और घर छोड़ दिया था, क्योंकि मेरे परिवार को यह बात हजम नहीं हुई कि मैं महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) उम्मीदवार रमाकांत खलप के खिलाफ चुनाव लड़ रहा हूं। यह वर्ष 1988 की बात है जब भाजपा के बारे में लोगों को बमुश्किल ही कुछ पता था।' उन्होंने कहा, 'मुझे विद्रोही के रूप में देखा जाता था।'

विज्ञान में पोस्ट ग्रैज्युएट पार्सेकर ने शुरू शुरू में पढ़ाने का काम किया था और वह परनेम तालुका में संघ के स्वयंसेवक के रूप में काम करने लगे थे।

वह 1980 के दशक के उत्तरार्ध में भाजपा के लिए काम करने लगे। उन्होंने पर्रिकर, राजेंद्र अर्लेकर (अब विधानसभा अध्यक्ष), और केंद्रीय मंत्री श्रीपद नाइक जैसे भाजपा के क्षेत्रीय दिग्गज नेताओं के साथ मिलकर पार्टी का जनाधार तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।

पर्रिकर सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे परसेकर ने कहा, 'मैं 1988 में मंड्रेम सीट से बुरी तरह हार गया। मेरा पूरा परिवार एमजीपी के प्रति समर्पित था। यहां तक एमजीपी उम्मीदवार मेरे पिता का एक ट्रक भी चुनाव प्रचार में इस्तेमाल करते थे।'

पार्सेकर की किस्मत ने 1999 के विधानसभा चुनाव में भी उनका साथ नहीं दिया, लेकिन तब तक भाजपा इस तटीय राज्य में एक ताकत बन चुकी थी। गोवा अपनी राजनीतिक अस्थिरता के लिए चर्चा में था और दलबदल की वजह से अक्सर सरकार गिर जाती थी।

उन्होंने कहा, 'मेरे लिए तसल्ली की बात बस इतनी थी कि मैं जमानत बचाने में कामयाब रहा।' लेकिन इन झटकों से उनके कदम नहीं लड़खड़ाए और उन्होंने 2002 में फिर विधानसभा चुनाव लड़ा तथा अजेय समझे जाने वाले एमजीपी के खलप को 750 मतों से हराकर वह विजयी हुए।

तब से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वर्ष 2007 में उन्होंने अपनी जीत का अंतर दोगुना कर लिया। वर्ष 2012 में जब भाजपा ने विधानसभा की 40 में से 21 सीटें जीत लीं तब पार्सेकर फिर निर्वाचित हुए।

यह एक ऐतिहासिक चुनाव था, क्योंकि लंबे समय बाद पार्टी को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिला और राज्य में राजनीतिक स्थिरता की आस जगी।

उस दौरान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रहे पार्सेकर को पर्रिकर की अगुवाई वाली भाजपा-एमजीपी गठबंधन सरकार में मंत्रिमंडल में शामिल कर पुरस्कृत किया गया।

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भाजपा के प्रति दृढ़ निष्ठा और संघ से रिश्तों के चलते उन्होंने उपमुख्यमंत्री फ्रांसिस डिसूजा से मिली चुनौती पर पार पा लिया और वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा पहुंचे।