गुजरात में पटेल आंदोलन की आग, भाजपा मुसीबत में

अहमदाबाद:

सोमवार को गुजरात की राजधानी गांधीनगर में पटेल या पाटीदार आरक्षण आंदोलन के लिए रैली आयोजित हुई। एैसी ही रैली, उत्तर गुजरात के साबरकांठा जिले के हिम्मतनगर में भी हुई। रैली तो शांतिपूर्ण रही लेकिन इसने गुजरात की राजनीति में भूचाल ला दिया है। पटेल समाज मांग कर रहा है कि उन्हें भी अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) में समाविष्ट किया जाए और आरक्षण का लाभ दिया जाए।

यह आंदोलन गुजरात के महेसाणा जिले से करीब एक माह पहले शुरू हुआ, जहां से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल भी आती हैं। महेसाणा के साथ यह आंदोलन अब लगभग गुजरात के सभी जिलों में पसर चुका है और सत्ताधारी भाजपा को परेशान कर रहा है।

गौरतलब है कि गुजरात में पटेल समुदाय पिछले कई सालों से भाजपा का समर्थक माना जाता है। सन 1985 में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने एक नया प्रयोग किया था, जिसे 'खाम' के रूप में जाना जाता है। खाम यानी क्षत्रिय, दलित, आदिवासी और मुस्लिम। तब ओबीसी आरक्षण को लेकन पटेलों और अन्य पिछड़े वर्ग के बीच काफी हिंसा हुई थी। पटेल तभी से कांग्रेस से नाराज़ माने जाते हैं।

शायद यही कारण है कि आज गुजरात में भाजपा पर पूरी तरह से पटेलों का प्रभुत्व माना जाता है। यह बात इसी से जाहिर होती है कि मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और पार्टी अध्यक्ष आर सी फलदु दोनों ही पटेल नेता हैं। इसी कारण भाजपा इस आंदोलन से सकते में है और आंदोलन को दूसरी ओर मोड़ने की कोशिश में जुटी है।

राजकोट में केन्द्रीय मंत्री और भाजपा के गुजरात के नेता मोहन कुंडारिया ने आरोप लगाया कि यह आंदोलन कांग्रेस द्वारा प्रेरित है। जिस तरह से यह आंदोलन तेजी से पूरे राज्य में पसर रहा है, उससे भाजपा चिंता में है। गुजरात में महानगर पालिका और नगर पालिका के चुनाव अक्टूबर में होने हैं। ऐसे में अगर भाजपा के जनाधार में नाराजगी आएगी तो चुनाव में उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यही कराण है कि यह पूरा मामला राजनैतिक तौर पर संवेदनशील माना जा रहा है।

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

लगातार तेज हो रहे आंदोलन के बावजूद मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इस पर मौन साधे हैं। सिर्फ भाजपा ही नहीं, कांग्रेस भी इस मुद्दे पर मौन साधे है, क्योंकि इस मुद्दे पर कोई भी राजनैतिक बयान फायदे से ज्यादा नुकसान कर सकता है। अब देखना यह है कि आने वाले स्थानीय निकायों के चुनावों में इस आंदोलन का कोई प्रभाव पड़ता है या नहीं और यह आंदोलन और कितना आगे तक जाता है।