दलितों पर प्रधानमंत्री का बयान ध्यान भटकाने वाला : मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन

दलितों पर प्रधानमंत्री का बयान ध्यान भटकाने वाला : मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन

मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन

नई दिल्‍ली:

सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक और राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन पिछले 40 साल से उन लोगों की ज़िंदगी सुधारने की कोशिश कर रहे हैं जो हाथ से मल उठाने और उसे अपने सिर पर ढोने का काम करते रहे. उन्होंने 80 के दशक में ये संघर्ष कर्नाटक के कोलार गोल्ड फील्ड से शुरू किया. फिर धीरे धीरे ये आंदोलन पूरे देश में फैल गया. इस संघर्ष में महिलाओं का शानदार रोल रहा है. बेजवाड़ा विल्सन के संघर्ष के लिये उन्हें 2016 का रमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला है. विल्सन ने गांधी और अंबेडकर पर चल रही बहस से लेकर दलितों की ज़िंदगी और उनके संघर्ष, हाल में गुजरात में दलितों पर हुए हमले और प्रधानमंत्री मोदी के बयानों पर एनडीटीवी इंडिया के सीनियर एडिटर हृदयेश जोशी से लंबी बात की.

लंबे समय से आप सफाई कर्मचारियों के लिये आंदोलन चला रहे हैं या मैला ढोने वालों के लिये जो संघर्ष कर रहे हैं उस आंदोलन के बारे में बताएं. उसका क्या इतिहास रहा है?
सफाई कर्मचारी आंदोलन हमने 1982-83 में शुरू किया लेकिन शुरुआत इस नाम से नहीं की. उस वक्त इसे सफाई कर्मचारी आंदोलन नहीं कहा जाता था. शुरू में तो हमें पता भी नहीं था कि इस लड़ाई को कैसे लड़ें औऱ क्या करें? फिर 1990 के दशक में जब अम्बेडकर जन्मशती मनाई जा रही थी तब हमने इसे नया मोड़ दिया कि लोग मैन्यूअल स्कैवेंज़िंग (हाथ से मल-मैला उठाना) क्यों करें? उसी वक्त हमें समझ में आया कि जाति और इस काम का आपस में क्या रिश्ता है. उससे पहले हम समझते थे कि यह काम हम गरीबी की वजह से कर रहे हैं या जो लोग ये काम कर रहे हैं वह पढ़े लिखे नहीं हैं इसलिये ये काम कर रहे हैं.... तो 1990 के बाद हमें समझ में आया कि यह गरीबी का नहीं बल्कि जाति का मुद्दा है. फिर हमारा यह आंदोलन भी बड़ा हो गया और हमने इसे सफाई कर्मचारी आंदोलन नाम दिया.

सबसे पहले आपने कहां काम शुरू किया?
सबसे पहले कर्नाटक के कोलार गोल्ड फील्ड में काम शुरू किया. फिर जब वहां से यह समस्या खत्म हो गई तो मैंने कर्नाटक के दूसरे हिस्सों में जाना शुरू किया. लोग मुझे जगह जगह से बुलाते थे कि इधर भी आओ... इधर भी ये समस्या है, तो हमने आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु औऱ महाराष्ट्र में कई दूसरी जगहों में जाना शुरू किया लेकिन आंध्र प्रदेश में हमारा कार्यक्षेत्र बढ़ा. यहां हमें लोग मिले. ताकत मिली. वहां से आगे बढ़ना शुरू किया.

तो जो कार्यक्रम मैला उठाने की प्रथा के खिलाफ शुरू हुआ वह धीरे धीरे दलित मूवमेंट बन गया?
जी हां... 1990 के बाद... हमें लोगों की ताकत मिलनी शुरू हुई. इससे पहले हम यही सोचते थे कि हम गरीब हैं. ये गरीब अमीर कैसे हो सकते है? यह तो होने वाला भी नहीं था. एक शोषक और पूंजीवादी समाज में गरीब अमीर कैसे हो सकता है? जब बात जाति पर आ गई तो हमें समझ में आया कि ये पूरा मामला केवल और केवल जाति और पितृसत्तात्मक सोच से जुड़ा है. हम समझ गये और हमने लोगों को बताना शुरू किया कि हमें जाति की बेड़ियों को तोड़ना होगा. यह सिर्फ एक बाल्टी, एक डिब्बा, झाड़ू, टोकरी या मल-मूत्र का मामला नहीं था. यह उससे कहीं आगे की बात थी. हमने इसे समझना और समझाना शुरू किया.

 

अंबेडकर के रोल और उनकी सोच को इस पूरे आंदोलन में कहां देखते हैं?
ऐसा नहीं है कि अंबेडकर से पहले लोग इस बारे में नहीं जानते थे लेकिन दो बातें हो रही थीं. एक तो लोग इस काम का (अपने फायदे के लिये) महिमामंडन कर रहे थे. वह कह रहे थे कि इस काम को और कौन कर सकता है. ये काम तो मेरे जीवन में सबसे पहले मेरी माता ने किया. सफाई करने वाले तो हमारी मां है. जैसे मां बच्चे का मल मूत्र साफ करती है वैसे ही आप लोग हैं. अगर आप लोग न रहें तो हमारी मां ही नहीं रहेगी. असल में ये महिमा मंडन बड़ा चालाकी भरा था. उनकी मां तो खुद कभी दूसरे लोगों का मल उठाने का काम नहीं करती थी... वह करना भी नहीं चाहती थी लेकिन वे लोग सब जगह कहते फिरते थे कि मल उठाने वाले ये लोग हमारी मां हैं.

...और दूसरी बात....?
दूसरी ओर कुछ तथाकथित प्रगतिशील लोग थे जो हमसे पूछते थे कि आप क्या कर सकते हैं? ये काम छोड़ दें तो क्या करेंगे? कैसे जियेंगे? हममें से अधिकतर लोग कहते थे कि हमें कोई दूसरा काम नहीं आता तो वह सहानुभूतिपूर्वक कहते कि हां... यही तो दिक्कत है ना.. यानी वह हम लोगों की समस्याओं को सुलझाने के बजाय उसे हम पर ही थोप देते थे. वह सहानुभूति दिखाते लेकिन असल में दूसरे तरीके से इस काम में हम लोगों को लगाये रखते लेकिन अंबेडकर ने पहली बार कहा कि मेरे भाइयों बहनों, मरे जानवरों को उठाना, उन्हें खाना, ये मल मूत्र उठाना ये बन्द करना होगा. उनसे पहले ये कभी कोई नहीं बोला.

मैला और गंदगी उठाने का जो काम अंबेडकर ने करने से मना किया वह काम दलित आज़ादी के 70 साल आज भी कर रहे हैं. ऐसी स्थिति क्यों है?
अंबेडकर का निधन 1956 में हुआ लेकिन हम लोगों को 1990 तक ये पता ही नहीं था. उनके संदेश उनकी टीचिंग के बारे में. हमारे पाठ्यक्रमों में जिस तरह से गांधी, नेहरू और बाल गंगाधर तिलक के बारे में बताया गया वैसे अंबेडकर के बारे में कभी नहीं बताया गया.

लेकिन उनकी राइटिंग्स (लेखन) उपलब्ध थे...?
लेखन उपलब्ध हुआ केवल 1990 के बाद. उससे पहले उनका लेखन केवल मराठी और अंग्रेज़ी में ही उपलब्ध था और वह सारी सामग्री बड़े-बड़े पुस्तकालयों तक ही सीमित थी. ऐसा नहीं था कि लोग उसे बाज़ार में खरीद सकें. लोगों के लिए उसे हासिल करना मुमकिन नहीं था लेकिन 1990 के बाद जो जागरूकता आयी वह बदलाव लाने वाली थी. लोगों ने अंबडकर के नाम पर मीटिंग और सम्मलेन करने शुरू किये. जब मीटिंग होती तो लोगों को अंबेडकर पर बोलना होता और बोलने के लिये पढ़ना ज़रूरी है. तब लोगों में अंबेडकर के लेखन और उनके संदेश को जानने की इच्छा नये स्तर पर शुरू हुई. इससे मेरे जैसे लोगों हज़ारों लोगों को ताकत मिली और बदलाव आना शुरू आया.

लेकिन अब भी सभी लोग मैला उठाने के काम को क्यों नहीं छोड़ पाये हैं?
देश के अधिकांश हिस्सों में वह (दलित) इस काम से बाहर आये हैं. यूपी में चमड़ा छोड़ो आंदोलन भी हुआ. बहुत से हिस्सों में दलितों ने बीफ खाना भी छोड़ दिया है. अब वह वहां बीफ नहीं खाते हैं.

लेकिन क्या मल उठाने के काम से वह बाहर आ पाये हैं?
हां... हां ... बिल्कुल ... बहुत से हिस्सों में. यूपी, आंध्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब... इन राज्यों में तकरीबन ये काम हो गया है. हो सकता है कि कहीं कुछ लोग रह गये हों लेकिन अब कमोबेश यह अमानवीय प्रथा यहां खत्म हो गई है. लेकिन यह सच है कि यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात और जम्मू-कश्मीर जैसी जगहों में अभी भी चल रहा है.

यानी कुछ कामयाबी तो मिली है...?
बिल्कुल. इस देश में 1980 से पहले 60 लाख लोग मल उठाने का काम करते थे. पता है आपको. लेकिन धीरे धीरे ये संख्या घटकर 1.8 लाख तक आ गई है जो कि ड्राई लैट्रिन क्लीनिंग में हैं लेकिन सीवेज, सेप्टिक टैंक और रेलवे ट्रैक की क्लीनिंग इसमें शामिल नहीं है. तो नंबर तो हर साल कम हो रहा है सरकार की मदद की वजह से नहीं ... उनका सहयोग तो बहुत कम है. इन लोगों का आत्मसम्मान है इस बदलाव की वजह, खासतौर से महिलाओं का.

ये बदलाव कैसे हासिल हो पाया?
हम अंबेडकर को घर घर ले गये. उनकी विचारधारा से जो लोग प्रभावित होंगे वह इस काम को छोड़ रहे हैं. हम ये नहीं मानते कि हम ये बदलाव कर रहे हैं. हम अंबेडकर को हर गली में खासतौर से बस्तियों में ले जा रहे हैं क्योंकि इस काम में लगे लोगों का अंबेडकर से इतना जुड़ाव नहीं था... आज भी नहीं है. इसीलिये 2010 में हमने जो सामाजिक परिवर्तन यात्रा की उसमें हम अंबेडकर की प्रतिमा को सारी बस्तियों में ले गये. 2015-16 में हमने 125 दिन की जो भीम यात्रा की उसमें भी यही सोच थी कि बदलाव यहीं से आयेगा.

इन दिनों गांधी और अंबेडकर को लेकर काफी बहस चल रही है. इस पर मैं आपसे सवाल करूंगा लेकिन पहले गांधी के बारे में एक सवाल. जब से यह (नरेंद्र मोदी) सरकार आई है गांधी का काफी ज़िक्र हो रहा है. गांधी जयंती इतने धूमधाम से कभी नहीं मनाई गई जितनी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद. इस बारे में आपका क्या सोचना है?
इन दिनों कुछ बड़े नामों पर अधिकार जमाने की कोशिश हो रही है. बहुत से लोग बहुत से नामों को अपना बनाना चाह रहे हैं. जहां तक सत्ताधारी पार्टी का सवाल है इन लोगों ने गांधी या उनकी विचारधारा का कई सालों तक समर्थन नहीं किया. अचानक इन लोगों को महसूस हुआ है कि यहां एक फायदा है तो उन्होंने अचानक गांधी के बारे में बोलना शुरू कर दिया. असल में यहां समस्या ये है कि उनकी कथनी में एक विरोधाभास है. जिस आदमी ने गांधी को मारा वह (बीजेपी के लोग) उसे भी अच्छा बताते हैं. वह कहते हैं कि उसने (गोडसे ने) देश को बचाया और गांधी ने भी देश को बचाया. दोनों चीज़ें एक साथ सच नहीं हो सकतीं. आपको अपना रुख साफ करना होगा. समस्या यह है कि सरकार किसी मुद्दे पर अपना रुख साफ नहीं करती है. हर बात मौका देख कर तय करती है कि किस तरह से कोई राजनीतिक फायदा उठाया जाये. इसी तरह आज हर कोई अंबेडकर को अपनाना चाहता है.

मतलब? इसे समझायेंगे?
कुछ लोग कहते हैं कि अंबेडकर के नाम पर एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय केंद्र बनायेंगे. दलितों के लिये अंबेडकर का अंतरराष्ट्रीय केंद्र पर्याप्त नहीं है. दलित अपने आत्मसम्मान के लिये लड़ रहे हैं जिसकी रक्षा संविधान के हिसाब से होनी चाहिये. आप बस एक प्रधानमंत्री के तौर पर उसे लागू कीजिये. हम अंबेडकर के नाम पर सामुदायिक केंद्र नहीं मांग रहे हैं. हम अपनी विचारधारा के बारे में स्पष्ट हैं. अंबेडकर को मानने वाला तर्कशील व्यक्ति होगा. अंबेडकर की विचारधारा आपकी विचारधारा के खिलाफ है. अंबेडकर को मानने वाला प्रगतिशील और लोकतांत्रिक होगा और उस आदमी का संविधान पर भरोसा होगा.

....और इस मामले में गांधी कहां पर हैं... आपके हिसाब से..?
गांधी भी कहीं कहीं पर तर्क से दूर हो जाते हैं. जैसे जाति को लेकर उनके विचार देखिये. वह दलितों को हरिजन कहते हैं. वह कहते हैं कि आप ईश्वर के बेटे हो... हम ईश्वर के बेटे नहीं हो सकते. ईश्वर खुद अपने आप में एक मिथक है लेकिन उन्होंने हमें ईश्वर के पास धकेल दिया. समाज ने हमें मंदिरों में नहीं आने दिया तो आप हमें ईश्वर के समकक्ष बनाने में क्यों लगे हो.

इसके अलावा जब मल साफ करने की बात आती है तो गांधी कहते हैं कि ये (दलित) मेरी माता हैं. वह कहते हैं कि मेरा पुनर्जन्म में विश्वास नहीं है लेकिन अगर ऐसा है तो मैं चाहूंगा कि मेरा जन्म अगली बार किसी भंगी के परिवार में हो. अंबेडकर ने ये नहीं कहा. अंबेडकर ने यह कहा कि भंगी का काम मुझे नहीं करना, उसे नहीं करना किसी को नहीं करना है. मुझे किसी और का मल-मूत्र साफ नहीं करना और किसी और को मेरा मल-मूत्र नहीं उठाना... तो उनकी सोच काफी स्पष्ट है. तो अगर गांधी को करीब से देखें तो कई विरोधाभास नज़र आते हैं और इसीलिये अंबेडकर ने उनका विरोध किया. लेकिन स्वतंत्रता के लिये गांधी के योगदान, अंग्रेज़ों के साथ उनके संघर्ष को बिल्कुल भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. वह संघर्ष उन्होंने बखूबी किया. उस पर हम उनके साथ सहमत हैं.

हाल में ही गुजरात में दलितों ने कहा है कि अब वह मरी हुई गाय को नहीं उठायेंगे और नहीं दफनाएंगे. आपको क्या लगता है कि यह केवल कुछ दिनों का विरोध है या फिर लोग आपको लगता है कि हालात बदलेंगे?
नहीं-नहीं ये बिल्कुल भी कुछ दिनों वाला विरोध नहीं है. ये बिल्कुल इंसाफ की मांग करते हुये एक न्यायपूर्ण व्यवस्था को बहाल करने की कोशिश है.  उन्होंने (दलितों ने) एक बहुत छोटी चीज़ मांगी है. उन्होंने क्या कहा है? यही ना कि हम आपके मरे हुये जानवरों को साफ नहीं करेंगे. वह लोग ये तो नहीं कह रहे हैं कि आप हमारे जानवरों को साफ करो. सैकड़ों साल तक ये काम करने के बाद वह यही कह रहे हैं कि हम आपके मरे जानवर नहीं उठायेंगे. आप अपने जानवरों की सफाई करो और हम अपने जानवर उठायेंगे. यह किसी भी सभ्य, लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों वाले समाज में एक छोटी सी मांग है. दलितों के साथ आज क्या हो रहा है... आप जानते हैं कि आज अगर दलितों के साथ कुछ हो तो वह थाने में रिपोर्ट लिखाने तक नहीं जा सकते.

लेकिन प्रधानमंत्री ने इस बीच लोगों से अपील की है...?
प्रधानमंत्री ने लोगों से क्या कहा! उन्होंने कहा कि उनको (दलितों को) मत मारो. मुझे मारो. क्या एक प्रधानमंत्री से आप इस तरह के बयान की आशा करते हैं. उनको बिल्कुल स्पष्ट बोलना चाहिये था. एक जिम्मेदार प्रधानमंत्री इतने कमज़ोर कैसे हो गये.

आपको कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री का यह बयान अर्थहीन है?
यह (बयान) बिल्कुल ध्यान भटकाने वाला है. आप कह रहे हैं कि उन्हें मत मारो मुझे मारो. आप यह नहीं कह रहे हैं कि गोली मत चलाओ. एक प्रधानमंत्री हैं तो उन्हें कहना चाहिये कि आप किसी को इस देश में मार नहीं सकते. एक राजधर्म होता है. अटलबिहारी (वाजपेयी) ने उन्हें एक बार याद दिलाया था. फिर यह कितनी बार याद दिलाना पड़ेगा. आपका काम है लोगों की ज़िंदगी की सुरक्षा करना. उन्हें मत मारो मुझे मारो यह तो किसी योगी मुनि की आश्रम में बोलनी वाली बात है. यह एक प्रधानमंत्री का बयान नहीं होना चाहिये. कभी वह कहते हैं कि मैं एक प्रधानसेवक हूं. अरे आप प्रधानसेवक कैसे हो गये. मुझे प्रधानसेवक नहीं चाहिये. मुझे प्रधानमंत्री चाहिये.

क्या दलितों की 5 एकड़ ज़मीन (हर एक परिवार के लिये) की मांग तर्कपूर्ण है?
अब तक दूसरी (अगड़ी) जातियों ने संसाधनों पर क़ब्ज़ा करके रखा. अब तक एक समुदाय के पास कमाई का कोई ज़रिया नहीं था. वो लोग बड़े बड़े ज़मींदारों के लिये काम करते रहे.. उन पर निर्भर थे. वह (ज़मींदार) कहते थे कि आओ और हमारे मरे हुये जानवरों को ले जाओ. तो अब इस हाल से उनके बाहर आने के लिये वह ज़मीन मांग रहे हैं. अगर 5 एकड़ से बात न बने तो उन्हें 10 एकड़ भी देनी चाहिये. इस मांग के पीछे मकसद यही है कि इस देश में दलित अपने पैरों पर खड़े हो सकें.

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस हाल में एक सामाजिक टकराव हो सकता है क्योंकि ऊंची जाति के लोग इतना बड़ा बदलाव आसानी से नहीं होने देंगे?
सामाजिक टकराव के लिये ज़मीन तैयार है लेकिन मुझे नहीं लगता कि दलित टकराव चाहते हैं. वह शांतिपूर्ण समझौता चाहते हैं लेकिन मैं मानता हूं कि तनाव है और मैं इस तनाव को देखकर बहुत खुश नहीं हूं.

आप कभी संसदीय या चुनावी राजनीति में आएंगे?
अभी तो नहीं लगता. लेकिन मेरा हर कदम औऱ हर शब्द राजनीतिक है. मैं सत्ता पर काबिज़ नहीं होना चाहता लेकिन जानता हूं कि जिन मुद्दों के लिये मैं लड़ रहा हूं उसका हल राजनीतिक पहल से ही होगा.

आपको जो ये मैग्सेसे अवॉर्ड मिला है वह कैसे आपकी ज़िंदगी को बदलेगा?
इस अवार्ड से मेरे व्यक्तिगत जीवन पर कोई असर नहीं होगा यह मैं पहले ही कह चुका हूं. सम्मान के साथ जो धनराशि मिलेगी उसके बारे में भी मैं वादा कर चुका हूं. बता चुका हूं. बताने की ज़रूरत भी नहीं क्योंकि उस पर उन लोगों (गरीब-दलितों) का हक है. मैंने बहुत सारी चीज़ों के लिये नहीं कहा है. बहुत सारे अवॉर्ड्स के लिये. इस सम्मान को मैं स्वीकार कर रहा हूं क्योंकि यह सीधे महिला सफाई कर्मचारियों का सम्मान हैं. 4000 साल से लोग जाति का बोझ अपने सिर पर उठा रहे थे. महिलायें अपने सिर पर मल ढोती रही और फिर उन्होंने इसका विरोध किया. 400 ज़िलों में महिला सफाई कर्मियों ने असहयोग किया. मैला ढोने की टोकरियों को कलेक्टर के दफ्तर के आगे जला दिया. इन महिलाओं के संधर्ष को पूरे देश ने देखा. उन्होंने अपने लंबे संघर्ष में मुझे अपने साथ चलने का मौका दिया. यह उन्हीं का सम्मान है.

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