यह ख़बर 26 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

आडवाणी-जोशी का दौर गया

नई दिल्ली:

नमस्कार... मैं रवीश कुमार। परिवार की तरह चलने वाली पार्टियां अब कंपनी की तरह चलने लगी हैं। हम चाहते भी तो यही है कि देश ही कंपनी की तरह चले। तभी तो हम प्रधानमंत्री को सीईओ भी कहने लगते हैं। हमने भी तो कबका ये स्वीकार कर लिया है कि पेशेवर और सक्षम तरीके से चलने और चलाने का उदाहरण सिर्फ और सिर्फ कंपनी सिस्टम में ही मिल सकता है।

पत्रिकाओं के कवर पर नेता जब सीईओ की तरह विराजते हैं, तो उनके इस अवतार पर राजनीतिक कार्यकर्ता और कंपनी दोनों ही खुश होते हैं। इस कंपनी सिस्टम में एक और बात होती है। जब आप को हटाया नहीं जा सकता, मगर रखा भी नहीं जा सकता तो आपके लिए कई पद गढ़े जाते हैं। जैसे अगर कंपनी का सर्वेसर्वा चेयरमैन है, तो उससे भी ऊपर ले जाकर किसी को प्रेसिडेंट बना देते हैं।

इन दोनों से ऊपर भी कुछ नहीं मिलता तो मेंटर बना देते हैं। कमर्चारी दो चार महीने तक गेस करते रहते हैं कि हुज़ूर प्रमोट हुए हैं या डिमोट। फिर सोचना पूछना छोड़ देते हैं। इस तरह सम्मानित तरीके से कारपोरेट कल्चर में कुछ बड़े लोग ऊपर की तरफ ठेल कर ठिकाने लगा दिए जाते हैं और कुछ छोटे लोग नीचे की तरफ धकेल कर बाहर कर दिए जाते हैं।

ये प्राइम टाइम है आईआईएम अहमदाबाद का क्लासरूम नहीं। बीजेपी ने जो मार्गदर्शक मंडल बनाया है इस मंडल का मार्ग क्या होगा और इसके दर्शनाभिलाषी कौन होंगे, किसी को पता नहीं। पांच सदस्यों के इस मंडल को इस कदर सजाया गया है कि लगे ही न कि ये इंतज़ाम सिर्फ आडवाणी या जोशी जी के लिए हुआ है।

मार्गदर्शक मंडल का प्रावधान बीजेपी के संविधान में नहीं है। लेकिन जिस तरह से 21वीं सदी की सरकार के लिए बीसवीं सदी का योजना आयोग बेकार हो सकता है उस तरह बीसवीं सदी में बनी बीजेपी के लिए 21वीं सदी में एक नया आयोग तो बन ही सकता है। उसी नए आयोग का नाम है, मार्ग दर्शक मंडल।

अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह। इन पांच नामों में से नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति के सदस्य हैं। लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी सिर्फ मार्गदर्शक मंडल में हैं। अटल बिहारी वाजपेयी स्वास्थ्य कारणों से सक्रिय राजनीति में पिछले दस साल से नहीं हैं।

बीजेपी के कायर्कर्ता तो अटल-आडवाणी कमल निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान- जैसे नारों की भावुकता से कब का दूर निकल चुके हैं। उन्होंने खेल के मैदानों में लगने वाले नारों की तरह मोदी-मोदी करना सीख लिया है। भाजपा के तीन धरोहर अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर भी अब किसको याद रहा सिर्फ हमारे सहयोगी अखिलेश शर्मा को याद है।

याद कीजिए एक साल पहले का जून का महीना। गोवा में पूरी बीजेपी मोदी-मोदी कर रही थी दिल्ली में आडवाणी अपना इस्तीफा लिख रहे थे। उनके बगैर शायद वह पहली राष्ट्रीय कार्यकारिणी होगी। ल्युटियन दिल्ली के मोदी विरोधियों को आडवाणी के इस इस्तीफे से काफी उम्मीद हो गई, मगर इस्तीफा वापस लेकर आडवाणी ने उन्हें कंफ्यूज़ कर दिया। आडवाणी ने चुनाव के बाद मोदी की खूब तारीफ की है। इतना सब होने के बाद आडवाणी ने कभी क्यों नहीं कहा कि उनके सन्यास लेने का वक्त आ गया है। आखिर वे भी तो कुछ साबित करना चाहते होंगे।

एक अच्छा कार्यकर्ता अंतिम समय तक अपने कार्यकर्तापन को नहीं छोड़ता है, लेकिन अगर आडवाणी अपनी ही लिखी चिट्ठी की बातों के लिए लड़ते तो वो और भी यादगार कार्यकर्ता बन सकते थे। उनकी चिट्ठी बस याद दिलाने के लिए पढ़ रहा हूं-

प्रिय श्री राजनाथ जी,
जीवन भर जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के लिए काम करना मुझे इज़्ज़त और बेइंतिहा सुकून की वजह लगता रहा। पिछले कुछ समय से मुझे पार्टी के मौज़ूदा काम करने के तरीके और जिस दिशा में पार्टी जा रही है, उससे तालमेल बिठाने में मुश्किल हो रही है। मुझे नहीं लग रहा है कि कि पार्टी डॉ मुखर्जी, दीनदयाल जी, नानाजी और वाजपेयी जी के आदर्शों वाली बीजेपी है, जिसकी एक मात्र चिंता देश और उसकी जनता थी। आज के हमारे अधिकतर नेताओं के निजी एंजेडे हैं। इसलिए मैंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति से इस्तीफ़ा देने का फ़ैसला किया है। इसे मेरा त्यागपत्र समझा जाए।

आपका
लालकृष्ण आडवाणी

इस ख़त की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही इतिहास बनाने से पहले यह खुद इतिहास बन गया। मार्गदर्शक मंडल के दूसरे सक्रिय पार्टनर हैं- मुरली मनोहर जोशी, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी के लिए बनारस की सीट छोड़नी पड़ी। कानपुर से जीत तो गए मगर मंत्रिमंडल में उम्र की पाबंदी लग गई। 87 साल के बलराम दास टंडन छत्तीसगढ़ और 82 साल के कल्याण सिंह राजस्थान के राज्यपाल बन गए मगर इनसे छोटे मुरली मनोहर जोशी रह गए। वह अब उस लीग में है, जिसमें एक पूर्व प्रधानमंत्री एक मौजूदा प्रधानमंत्री, एक उप प्रधानमंत्री, चार पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। नरेंद्र मोदी कभी अध्यक्ष नहीं रहे वे सिर्फ प्रधानमंत्री के कोटे से मार्गदर्शक हैं। आडवाणी और जोशी को अपने लीग में मोदी को देख अच्छा ही लगा होगा।

बीजेपी नई हो रही है। लगातार बदल रही है। अमित शाह जब अध्यक्ष बने तो उनकी टीम के साठ प्रतिशत लोगों की उम्र पचास साल या उससे कम है। कुछ इक्का दुक्का लोग ज़रूर साठ या सत्तर साल के हैं। मंत्रिमंडल में भी चंद अपवादों को छोड़ उम्र का पैमाना तय किया गया।

हमारे सहयोगी अखिलेश शर्मा ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि बीजेपी में अटल-आडवाणी का युग अधिकारिक रूप से खत्म हो गया। जिस पार्टी को बनाया-चलाया उसी के बारे में आडवाणी टीवी पर यह न्यूज़ देखें कि उनके युग की समाप्ति की घोषणा हो गई है तो कैसा लगा होगा? उस एकांत को समझेंगे तो एक बार डर ज़रूर लगेगा। आखिर क्या बात है कि आडवाणी के प्रति कहीं कोई सहानुभूति नही है।

मार्गदर्शक मंडल कहीं वह छोटा सा कमरा जो अक्सर कई घरों में होता है जहां बचे हुए बुज़ुर्ग रहते हैं। उनकी दवा होती है, छड़ी होती है और होता है टूटा हुआ चश्मा… मुनव्वर राना साहब के दो शेर हैं-

मोहाजिरों यही तारीख है मकानों की।
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा।।

मैं अब आंगन में सो जाता हूं कमरे में नहीं सोता।
मेरे बच्चों को अब उतनी परेशानी नहीं होगी।।

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बीजेपी में अगर इस तरह से उम्रवाद छाया रहा तो वह दिन दूर नहीं जब संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति से भी ज्यादा सदस्य मार्गदर्शक मंडल में होंगे। पर बीजेपी ने मार्गदर्शक मंडल ही क्यों बनाया? क्या ऐसा कर बीजेपी उन सवालों से बच गई जिसका सामना उसे सीधे सीधे आडवाणी-जोशी को बाहर करने से करना पड़ता।

(प्राइम टाइम इंट्रो)