यह ख़बर 18 जून, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : इराक के कितने करीब, कितने दूर

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार, आपने कभी न कभी तो ट्रकों की टंकियों पर इराक का पानी लिखा देखा ही होगा। बस याद दिलाने के लिए कहा कि इराक के हम कितने करीब है। यह भी याद दिलाने के लिए कि हम इराक से कितने दूर चले आए हैं। अमेरिका जिसे मध्य पूर्व कहता है और जिसे भारत पश्चिम एशिया कहता है उस इलाके के साथ कुछ तो है कि वहां आग लगती है तो हमारा घर भी जलता दिखता है। सिर्फ तेल के दाम बढ़ जाते हों इसीलिए नहीं। बल्कि अब तो इस खबर की भी पुष्टि हो गई है कि इराक के मोसुल प्रांत में 40 भारतीयों को अगवा कर लिया गया है। ये सभी पंजाब से हैं और तारीक नूर अल हुदा कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करते हैं।

यह इलाका सुन्नी उग्रवादी संगठन के कब्जे में हैं। अभी तक किसी प्रकार की फिरौती की मांग की कोई सूचना नहीं है। यह इलाका इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया − आईसीस के कब्जे में है। यहां करीब 100 भारतीय कामगार हैं। सरकार ने कहा है कि वह 46 नर्सों के संपर्क में है। इन नर्सों ने बताया है कि वे घायलों के इलाज में जुटी हुई हैं। सरकार तमाम एजेंसियों के संपर्क में हैं और गंभीर प्रयास कर रही है।

क्या ऐसा हो सकता है कि रातों रात कोई इस्लामिक संगठन वजूद में आ जाए वो भी खतरनाक सैन्य क्षमता और सामानों से लैस और एक के बाद एक इराक के शहरों पर कब्जा करता चला जाए। चालीसों साल से पश्चिम एशिया में लोकतंत्र का फ्रेंचाइज़ी बांटने निकले पश्चिमी जगत के जानकार ऐसे जागे जागे से बर्ताव कर रहे हैं जैसे किसी को पता ही नहीं था। यह आईसीस या आईसीएल।

इराक के सैनिकों को अगवा कर सरेआम गोली मारता है और वीडियो जारी कर देता है। 400 मिलियन डॉलर बैंकों से लूट लेता है और इराक के कई शहर मोसुल टिकरित फलूज़ा वगैरह पर कब्ज़ा कर लेता है। हालत यह हो गई है कि इस लड़ाई के कारण इराक के सबसे बड़े तेल रिफाइनरी का उत्पादन बंद कर दिया जाता है।

आखिर अमेरिका और ब्रिटेन कौन से लोकतंत्र की बुनियाद डालने का झांसा पूरी दुनिया को दे रहे थे कि 2011 में इराक से अमेरिकी सेना की वापसी के इतने कम समय में एक मिलिशिया ऐसी टक्कर देने की स्थिति में आ गई है कि अमेरिकी सेना की वापसी की बात होने लगी है। क्या इराक बिखर जाएगा। वो तो सद्दाम के वक्त भी नहीं बिखरा जब उसके नियंत्रण से 18 में से 15 प्रांत चले गए थे। शिया सुन्नी का विवाद तो नया नहीं है मगर यह संगठन इतने सशक्त रूप में कैसे उभर गया। इसे समझने के लिए क्या प्रथम विश्वयुद्द के बाद फ्रांस और ब्रिटेन के बीच हुए बंटवारे की तरफ झांके या 2003 के बाद अमेरिका और ब्रिटेन की रसोई में। आखिर वहां कौन सा लोकतांत्रिक ढांचा बनाया गया है जिसके रहते हुए भी इतनी बड़ी संख्या में लोग कबायली पहचान और उससे मिलने वाली सत्ता में यकीन करने लगते हैं और एक दूसरे को शिया सुन्नी के नाम पर मारने लगते हैं।

कई लोग आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि आईसीस के कारण इराक का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन हो जाएगा। आई सीस ज़रूर सुन्नी संगठन है, लेकिन इस पर तो सीरिया के भी सुन्नियों को मारने का आरोप है। इंटरनेट पर मौजूद कई लेखों में एक लेख में यह जानकारी मिलती है कि इराक में चुनाव के बाद आई सरकार ने पिछले साल सुन्नी अलगाववादियों के खिलाफ कार्रवाई कर 800 लोगों को बंदी बनाया। उनके साथ क्या हुआ किसी को पता नहीं। इस बार भी शिया सैनिकों की हत्या के बदले सुन्नी कैदियों को मार दिया गया। जब यह हो रहा था तब अमरीका जी क्या कर रहे थे। लोकतंत्र के निर्यात का कंटेनर किस बंदरगाह पर पड़ा हुआ है।

आखिर दुनिया भर में इस्लामिक कहे जाने वाले मुल्कों और नेताओं का ऐसी हत्याओं के प्रति क्या रवैया है। कोई भूमिका है भी या नहीं। सब जानते हैं कि इराक के तमाम शहर अपने बजट और अन्य ज़रूरतों के लिए बगदाद पर निर्भर हैं। इस्लामिक धर्मुगुरुओं की क्या कोई भूमिका भी है।

इराक के मौजूदा प्रधानमंत्री मलिकी अमरीकापरस्त बताये जाते हैं। इनकी नीतियों की वजह से सत्ता और सस्थाओं में सुन्नियों का अलगाववाद बढ़ा है। मलिकी सरकार के रक्षामंत्री सुन्नी हैं मगर जेबी माने जाते हैं। मलिकी सरकार भी शिया मिलिशिया पर निर्भर है। इराक की संसद के स्पीकर ओसामा अल नुज़ायफी सम्मानित सुन्नी नेता हैं, लेकिन सरकार में शिया सुन्नी संतुलन की उनकी मांग को क्यों अनदेखा किया गया। आज अमेरिका प्रधानमंत्री मलिकी से इस संतुलन को दूर करने के लिए कह रहा है, मगर कल क्या कर रहा था।

एक जानकार ने लिखा है कि सभी सुन्नी आई सीस के साथ नहीं हैं। सुन्नियों का एक बड़ा तबका राजनीतिक प्रक्रिया में यकीन करता है। मगर मलिकी का विरोध करता है। यह भी बात सामने आ रही है कि मलिकि ने जब इस सुन्नी मिलिशिया पर काबू पाने के लिए अमरीका से मदद मांगी तो नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

इराक के संकट को शिया सुन्नी विवाद की नज़र से देखते हुए उस दौर के बचे हुए सपने को भी समझना होगा जहां ये लौट कर इस्लामिक राज्य की स्थापना की वकालत करते हैं। बीसवीं सदी के इस दौर के उन सपनों को भी देखना होगा जो अमेरिका, फ्रांस रूस और ब्रिटेन के लिए कुचल दिए गए। आखिर क्या वजह है कि कबायली पहचान कभी तालीबान बन कर उभर आती है तो कभी अल कायदा तो कभी आई सीस। 30 साल तक एक दूसरे को आंख दिखाने के बाद इराक के बहाने ईरान और अमरीका करीब आते दिख रहे हैं। ब्रिटेन ने तो ईरान में दूतावास भी चालू कर दिया है। क्या इससे स्थायी हल निकलेगा। 2003 के युद्ध से तो नहीं निकला।

अमेरिका और ब्रिटेन में जनमत युद्ध के खिलाफ है। ओबामा के विरोधी रिपब्लिकन नेता दबाव डाल रहे हैं कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी रोकी जाए। कुछ राय दे रहे हैं कि अमेरिका को हवाई हमले करने चाहिए। जैसे उसने ड्रोन हमले से पाकिस्तान अफगानिस्तान सीमा पर तालिबान को खत्म कर दिखा ही दिया हो। 2003 के युद्ध में साथ देने वाले टोनी ब्लेयर कहते हैं कि युद्ध नहीं होता तो हालात और बदतर होते। समय से पहले सेना निकल जाने के कारण यह स्थिति पैदा हुई है। हमें लोकतंत्र को बचाने के लिए लौटना चाहिए। पर क्या इराक में वाकई कोई मजबूत लोकतंत्र कायम हुआ जिसे बचाने के लिए 2003 के बाद ये 2014 में भी लौटना चाहते हैं।

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इराक अफगानिस्तान और न जाने क्या क्या पश्चिम एशिया के खित्तों में बर्बाद मुल्कों की दास्तानें खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जिसे ठीक करने के लिए अमेरिकाऔर ब्रिटेन डाक्टर बन कर जाते हैं आपरेशन करते हैं और मरीज को इस हाल में छोड़ आते हैं कि वो एलोपैथिक छोड़ यूनानी मेडिसिन के नाम पर किसी इस्लामिक गणराज्य की स्थापना की कपोलकल्पना में एक दूसरे को मारने काटने लगता है। प्राइम टाइम एंकर के लिए रातों रात इराक पर विशेषज्ञ बन जाना आसान नहीं। जो कुछ भी पढ़ा उससे और उलझ गया। इराक और पश्चिम एशिया को बचाने के लिए अरब जगत के देशों को अपनी बची खुची शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए या नहीं या सब कुछ अमेरिका के भरोसे छोड़ दिया जाए जो कभी अपने सैनिकों को लेकर उतरता है तो कभी उड़ जाता है। प्राइम टाइम...