यह ख़बर 28 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : लालू-नीतीश का साथ आना असहज समझौता

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार, राजनीति में आप जिसके ख़िलाफ़ अपना वजूद बनाते हैं, उसी से उस वजूद को बचाने के लिए हाथ मिलाना पड़ जाता है। ये हुआ है और ये होता है। इसका हौसला इस बात से मिलता है कि जनता ने एक समय में एक अजूबे को स्वीकार किया है तो रिजेक्ट भी किया है। जब राजनीति का मतलब चुनाव जीतना ही हो जाए तो हारने वाला भी वही करता है जो जीतने वाला कर जाता है। बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के साथ आ जाने से अगर आप असहज महसूस कर रहे हैं तो आप अपवाद नहीं हैं।

आप जानते हैं कि बिहार में 21 अगस्त को दस सीटों के लिए उपचुनाव होने हैं। नरकटियागंज, राजनगर, जाले, छपरा, हाजीपुर, मोहिउद्दीन नगर, पर्बता, भागलपुर, बांका और मोहनिया। विधानसभा की इन दस सीटों के लिए आरजेडी और जेडीयू के बीच समझौता हुआ है।

महीनेभर से कम समय में पता चल जाएगा कि मंडल ने कोई गुल खिलाया और कमंडल खिला ही रह गया। यह सही है कि लोकसभा में नरेंद्र मोदी से सब लड़ तो रहे थे, मगर मिलकर कोई नहीं लड़ रहा था। हारने वालों को राहत पहुंचे इसलिए एक डेटा टेबलेट की तरह सप्लाई किया गया कि बीजेपी को पूरे देश में सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले, जबकि 69 प्रतिशत वोट खिलाफ में पड़े।
2009 में यूपीए को भी तो 31.5 प्रतिशत वोट मिले थे। फिर भी क्या इस 69 प्रतिशत में से कोई नया पुराना वोटबैंक मिलाकर मोदी को चुनौती दी जा सकती है। बिहार में मोदी गठबंधन को 39 प्रतिशत वोट मिले थे। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू को मिले वोटों को जोड़ दें तो करीब 45 प्रतिशत हो जाता है।

काग़ज़ पर ऐसा ही गुणा भाग चुनाव से पहले किया गया था जिसमें बढ़त के बावजूद मोदी को बहुमत नहीं मिल रहा था। फिर से वही फर्रा बिहार में आस्तीन से निकाला जा रहा है। एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि मोदी लहर के बावजूद बिहार के इन तीन दलों ने अलग−अलग ही सही बीजेपी से ज़्यादा वोट हासिल किए। 45 प्रतिशत वोट। फिर ये सवाल भी आता है कि तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद पिछड़ा−अति पिछड़ा, दलित−महादलित बीजेपी के साथ गया कि नहीं गया। नहीं जाता तो बीजेपी को 40 में से 31 सीटें कैसे मिल जातीं।

90 के दशक में मंडल ने कमंडल को रोक दिया था। पर 2014 में बीजेपी ने उसी कमंडल में मंडल डाल दिया।

पिछड़ा ग़रीब चायवाला हिन्दुत्व और विकास। मोदी ने ऐसा कॉकटेल बनाया कि लोहियावादियों का मॉकटेल फेल हो गया। संगठन और प्रचार क्षमता में तो मोदी विरोधी दल आज भी लचर और लुप्त प्राय दिखते हैं। कुल मिलाकर पिछड़ों और दलितों ने भी मोदी को अपना नेता माना। हर जाति समाज से मोदी के लिए वोट पड़े। यूपी में तो मोदी ने अपने वोट बैंक को जेब में लेकर चलने वाली मायावती को शून्य पर समेट दिया।

कहीं ऐसा तो नहीं कि आज भी लोहियाबादी, अंबेडकरवादी अपनी राजनीति के उसी पिंजरे में फंसे रह गए और तोता उड़ गया। क्या तोता वापस पिंजरे में आएगा।

किसी भी गठबंधन का एक राजनैतिक औचित्य होता है तो एक नैतिक और प्राकृतिक औचित्य भी होता है। नीतीश कुमार ने इतना बड़ा रिस्क लिया ही क्यों या फिर उनके पास क्या चारा था। जब बीजेपी रामविलास पासवान की पार्टी से गठबंधन कर सकती है जो लालू के दशक पुराने सहयोगी रहे और नीतीश बीजेपी गठबंधन विरोधी रहे तो नीतीश लालू के साथ क्यों नहीं जा सकते हैं। पर हम तराजू पर आलू नहीं तौल रहे। इधर एक कम हुआ तो उधर से एक चढ़ा दिया।

नीतीश बिहार की उस जनता को कैसे समझाएंगे जो उनकी इतनी सी बात न समझ सकी कि उन्होंने नरेंद्र मोदी का साथ इसलिए छोड़ा क्योंकि वे धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर समझौता नहीं कर सकते थे। बिहार की जनता ने नीतीश के विकास के मॉडल को भी रिजेक्ट कर दिया। गुजरात के अनदेखे मगर सुने हुए मॉडल पर ज़्यादा भरोसा किया। यह ध्यान रखना चाहिए कि लोकसभा में बिहार की जनता ने नीतीश को तब भी छोड़ दिया जब वे लालू के साथ नहीं थे।
बल्कि लालू उनके ख़िलाफ़ लड़े और चतुराई दिखाते हुए कांग्रेस को नीतीश के पास जाने से रोक दिया। पासवान पर लालू और जेडीयू दोनों की नज़र थी मगर बीजेपी ले उड़ी। क्या नीतीश को वाकई अब अपने विकास के मॉडल में यकीन नहीं रहा। इसे आप नीतीश का मास्टर स्ट्रोक कहेंगे या स्ट्रोक मार देने पर मास्टर दवाई। बचेंगे तो इसी से वर्ना नहीं।

2004 में सोनिया गांधी ने भी यही किया था। मज़बूत अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व के सामने गठबंधनों का अंबार लगा दिया था। वाजपेयी हार गए। तब भी जब बीजेपी को सोनिया के विदेशी मूल वाले मुद्दे पर बहुत भरोसा था। क्या नीतीश यह फॉर्मूला वाकई बिहार में दोहराने की स्थिति में हैं।

हमारी राजनीति में अनैतिक और अविश्वसनीय से लगने वाले गठबंधन हुए हैं और होते रहेंगे। हम अपनी नैतिकता का पैमाना अपनी सुविधा के अनुसार चुनते रहेंगे और एक गठबंधन से दिल लगाकर दूसरे को गरियाते रहेंगे।

कांग्रेस विरोध के लंबे दौर में क्या समाजवादियों ने उन्हीं कमंडल वालों से हाथ नहीं मिलाया था। क्या इन्हीं कांग्रेस विरोधी समाजवादियों ने कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाया। क्या ममता बनर्जी कांग्रेस से निकल कर कांग्रेस की सरकार की सहयात्री नहीं बनी। क्या शरद पवार ने विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर उसी सोनिया गांधी का नेतृत्व नहीं स्वीकारा। किसे भरोसा है कि कल शरद पवार शिवसेना से गठबंधन नहीं करेंगे। ऐसी खबरें तो उड़ती ही रहती हैं। क्या कांग्रेस के परिवारवाद से लड़ने निकली बीजेपी ने अकाली, शिवसेना और रामविलास पासवान के परिवारवाद को अनदेखा नहीं किया।

अपनी पार्टी के भीतर परिवारवाद को अनदेखा नहीं किया। कोई गारंटी नहीं दे सकता कि बीजेपी चौटाला की पार्टी से समझौता नहीं करेगी। लोकसभा में अकाली दल ने चौटाला की पार्टी के लिए प्रचार किया बीजेपी ने अनदेखा किया।
चौटाला पिता पुत्र शिक्षक भर्ती घोटाले में जेल भेजे गए थे। फिलहाल ज़मानत पर हैं। येदुरप्पा को निकालकर बीजेपी वापस ले आई और क्या जनता ने वोट नहीं किया। क्या बिहार में कांग्रेस को खत्म करने वाले लालू ने कांग्रेस से गठजोड़ नहीं किया।

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उदाहरण तो खूब हैं। इन उदाहरणों से राजनीति में आप ख़ून तक माफ कर सकते हैं। सवाल है, एक समय विशेष में किसी गठबंधन की विश्वसनीयता का। मकसद का। नीतीश के ब्रैंड बिहार में उन्हीं का गढ़ा हुआ, लालू का जंगल राज कैसे मिक्स होगा। प्राइम टाइम।