नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी का जादू!

नई दिल्ली:

आखिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी हर मैच कैसे जीत रही है। नतीजे आने के बाद अखबारों में इनकी रणनीतियों और रैलियों की खूब चर्चा है। उम्मीदवार लाए, कैसे प्रचार किया जाए और कैसे रैलियां हों वगैरह वगैरह। इस जोड़ी को जीतने का जुनून है और इनके सामने की जोड़ियों को पहले टूटने और फिर बिखरने की बेचैनी दिखाई मालूम पड़ती है।

महाराष्ट्र और हरियाणा में मुख्यमंत्री कौन होगा, अब सूत्र भी अटकल लगाते लगाते थक गए हैं। इस बीच शरद पवार ने कहा है कि कांग्रेस के एक नेता ने शिवसेना को प्रस्ताव दिया था कि आप सरकार बनाइये हम साथ देंगे। पवार ने उस प्रतिभाशाली नेता का नाम नहीं बताया है, मगर यह बयान बता रहा है कि शरद पवार बीजेपी को दिए अपने समर्थन को लेकर बचाव की मुद्रा में नहीं आने वाले हैं। इस बात के बावजूद कि केरल में वाम मोर्चा में शामिल उनकी पार्टी के दो विधायकों ने बीजेपी को समर्थन देने को नाकाबिले बर्दाश्त कहा है।

कांग्रेस ज़रूर एनसीपी के बहाने बीजेपी से नैतिक सवाल कर रही है। कांग्रेस नेता मोहन प्रकाश ने कहा है कि शरद पवार का अलग होना पहले से तय था।

यह अमित शाह मॉडल पोलिटिक्स है। गुजरात मॉडल के बाद अमित शाह मॉडल लांच कर दिया। शिवसेना की बैठक ज़रूर हुई, जिसके बारे में बताया गया कि बीजेपी पर कोई चर्चा नहीं हुई। महाराष्ट्र के प्रभारी राजीव प्रताप रूडी ने कहा है कि शिवसेना के  साथ बातचीत संभव है। प्रधानमंत्री के दिल में बाला साहब के प्रति सम्मान है। एनसीपी के साथ गठबंधन पर संसदीय दल की बैठक में चर्चा का कोई सवाल ही नहीं है।

उद्वव ने कहा है कि अगर बीजेपी सम्मानजन प्रस्ताव लायेगी तो विचार करेंगे वर्ना विपक्ष में बैठेंगे। मनोबल गिराने की ज़रूरत नहीं है।

उधर मुख्यमंत्री पद को लेकर जिस तरह नितिन गडकरी बार बार खुद को दौड़ से अलग बता रहे हैं, शक होता है कि कहीं उनसे कहा तो नहीं गया था। हरियाणा में लगता है कि अनिल विज, कैप्टन अभिमन्यु और मनोहर लाल खट्टर और रामविलास शर्मा में से ही कोई मुख्यमंत्री होगा।

अब आते हैं आज के विषय पर। मोदी और शाह की जोड़ी की जीत ने विरोधी खेमे में टीम से लेकर कप्तान के बदलाव तक पर दबाव डालना शुरू कर दिया है। हैरानी नहीं होनी चाहिए जब कुछ दल विदेशों से चुनाव जीतने के कोच ले आएं क्रिकेट की तरह।

क्या बीजेपी की जीत क्षेत्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी हैं। क्या वाकई बीजेपी की जीत जाति से लेकर क्षेत्रीय अस्मिताओं के खात्मे का एलान है।

मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत, क्षेत्रीय दल मुक्त भारत भी होने लगा है। जीत की इस रफ्तार से क्या मान लेना चाहिए कि राजनीतिक नक्शा भाजपा युक्त भारत में बदलने वाला है। अगले दो सालों में 10 राज्यों के चुनाव में क्या कोई बीजेपी को हरा पाएगा? क्या बीजेपी को सिर्फ विरोधी दलों के बिखराव का लाभ मिल रहा है?

अखबारों के विश्लेषण में मोदी की जीत की संभावना को कोई असीम बता रहा है तो कोई कह रहा है कि महाराष्ट्र के नतीजे से लगता है कि मोदी अपने शिखर को छू चुके हैं। उनकी चुनावी सभाओं को देखकर तो नहीं लगता कि जीतने की भूख में कोई कमी आई है।

रविवार को अमित शाह ने कहा है कि मोदी लहर आज भी सुनामी की तरह चल रही है। मोदी ही देश के निर्विवादित नेता हैं। मोदी राजनीति के नए धोनी हैं। एक के बाद एक तीन विश्वकप तो जीते ही धोनी ने हैं।

महाराष्ट्र में नरेंद्र मोदी ने 27 रैलियां की और वोट प्रतिशत भी 27.8 ले आए जो हर लिहाज़ से बेहतरीन है। पिछली विधानसभा में बीजेपी को 13.8 प्रतिशत ही वोट मिले थे। मोदी ने मराठवाड़ा में 5, मुंबई और सटे इलाकों में 5, पश्चिम महाराष्ट्र में 7 विदर्भ में 4, उत्तर महाराष्ट्र में 3 कोंकण में 2 रैलियां की। पश्चिम महाराष्ट्र में 7 रैलियां की और यहां की 72 में से 24 सीटों पर कब्जा कर लिया। लेकिन यहां शिव सेना को भी 13, कांग्रेस को 10 और एनसीपी को 19 सीटें मिलीं।

यहां बीजेपी का वजूद नहीं था मगर 24 सीटें जीत गईं, यहां कांग्रेस, एनसीपी को मिलाकर 29 सीटें हासिल हुई हैं जो बीजेपी से ज्यादा है।

पश्चिम महाराष्ट्र में बीजेपी ने एनसीपी कांग्रेस के बागियों को टिकट दिया, स्वाभिमानी शेतकरी संगठन या राष्ट्र समाज पक्ष के साथ गठबंधन किया। इसके बावजूद मोदी उन कद्दावर नेताओं को नहीं हरा पाए, जिनके इलाके में उन्होंने सीधे ललकारा था। मसलन बारामती जहां चाचा−भतीजे के खिलाफ मोदी ने प्रचार किया था। लेकिन अजित पवार अच्छे खासे मार्जिन से जीत कर आये।

इतना ही नहीं वह आसपास के इलाकों में भी ज्यादा चोट नहीं पहुंचा पाए। एनसीपी की करीब 40 फीसदी सीट इसी इलाके से मिली हैं।

महाराष्ट्र में 123 सीटें जीतना किसी भी नज़रिये से कम नहीं है। 1990 के बाद पहली बार किसी दल को सौ से ज्यादा सीटें मिली हैं। लेकिन क्या यह जीत उत्तर प्रदेश की तरह धुआंधार है, जहां लोकसभा में बीजेपी ने बीएसपी को जीरो पर पहुंचा दिया और खुद 80 में से 72 सीटें जीत ली। तो क्या महाराष्ट्र में बीजेपी का स्ट्राइक रेट कम हुआ या लोकसभा के बाद मोदी का कुछ और हकीकत से सामना हुआ।

मुंबई में बीजेपी पहले नंबर पर है उसे शहर की 15 सीटें मिली हैं लेकिन शिवसेना को भी 14 कांग्रेस को 5 सीटें मिली हैं। मुंबई शहर में पहली बार आंध्र प्रदेश की पार्टी मुत्तहिदा मजलिस ए मुस्लमीन को 1 सीट मिली और मराठवाड़ा में उसने एक सीट जीती। राज्य में करीब 12−16 सीट ऐसीं थी, जिसमें मुस्लिम वोट कांग्रेस से निकल कर दूसरे विकल्पों के पास गया या पूरी तरह बंट गया। इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला है।

मुंबई शहर में कांग्रेस के सिर्फ पांच एमएलए चुने गए, जिनमें 3 मुसलमान हैं। यहां पर एमआईएम का उम्मीदवार नहीं था, लेकिन जहां एमआईएम का उम्मीदवार था वहां कांग्रेस हारी है। जैसे भायखला।

लेकिन हरियाणा की जीत क्या यह नहीं कहती है कि अभी किसी भी दल के पास मोदी की काट नहीं है। चार सीट से सीधा 47 और स्पष्ट बहुमत से सरकार। फिर भी विरोधी दल साफ नहीं हुए लोकसभा की तरह। लोकसभा में 10 में से सात सीटें जीतने के बाद बीजेपी ने उस आंधी को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया।

जीटी करनाल रोड की 27 में से 22 सीटें बीजेपी ने जीती हैं। पहले यहां सिर्फ एक सीट भाजपा के पास थी। मध्य हरियाणा में भी 45 में से 16 सीटें बीजेपी को मिलीं। दक्षिण हरियाणा की 18 में से 9 ही बीजेपी को मिली। फरीदाबाद की छह में से तीन ही सीट पर बीजेपी जीत सकी। यहां प्रधानमंत्री की बड़ी रैली हुई थी।

केंद्रीय मंत्री कृष्ण पाल गुर्जर अपनी विधानसभा में बीजेपी को नहीं जीता सके। बीजेपी ने 27 जाट उम्मीदवार उतारे मगर जीते 6। हिसार और जींद में आईएनएलडी का गढ़ बचा ही रह गया उसे 20 सीटें मिली हैं।

दलित वोट के लिए डेरा सच्चा सौदा के पास जाना, दो दजर्न से अधिक जाट उम्मीदवारों को टिकट देना क्या इसके बाद भी कहा जा सकता है कि बीजेपी की इस जीत में जातिगत समीकरणों का कोई रोल नहीं था।

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यह जीत जाति और क्षेत्रिय अस्मियता को ध्वस्त करती है। ऐसा क्यों है कि बीजेपी के सामने सब बदहवाश नज़र आ रहे हैं। क्या बीजेपी की जीत को सिर्फ राष्ट्रीय आकांक्षा के फ्रेम में देखा जा सकता है जिसमें जाति धर्म की कोई भूमिका नहीं है।

(प्राइम टाइम इंट्रो)