यह ख़बर 04 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : मनरेगा को लेकर खींचतान

नई दिल्ली:

नमस्कार... मैं रवीश कुमार। मनरेगा हर गांव में एक दस्तावेज़ की तरह है। भ्रष्टाचार का दस्तावेज़ और बदलाव का भी। पिछले एक दो सालों से मनरेगा को लेकर बदलाव की तरह तरह की आवाज़ें आती रही हैं।

मोदी सरकार ने औपचारिक स्तर पर कभी मनरेगा को बदलने या खत्म करने की बात नहीं की है, मगर फिर आज राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की चिट्ठी से आशंकाओं को यकीन होने लगा कि कहीं सरकार के निशाने पर मनरेगा तो नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मनरेगा में बदलाव के बहाने सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं के दिन लद रहे हैं, जो आगे चल कर वित्तीय घाटा कम करने की कामयाबी के किस्सों में बिला जाएंगे।

एकदम से आशंकित होने की ज़रूरत नहीं है, मगर सामाजिक सुरक्षा की इन योजनाओं के बारे में मध्यमवर्ग को जरूर सोचना चाहिए कि यह खैरात नहीं, ज़रूरत हैं। ऐसे एक्सपर्ट जिनके लेखों से सौ फीसदी रोज़गार तो पैदा नहीं हो सका, वह भी आए दिन लिखते रहते हैं कि ऐसी योजनाओं पर खर्च करने से कोई लाभ नहीं है।

आज के इंडियन एक्सप्रेस में सीमा चिश्ती की एक खबर छपी कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने 6 जून को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी को खत लिखा है कि क्या मनरेगा को एक्ट यानी कानून की जगह योजना में बदला जा सकता है। ग्रामीण रोजगार को क्यों किसी कानून के सहारे गारंटी की जानी चाहिए और क्या ऐसे रोजगार किसी योजना के जरिये नहीं दिए जा सकते। यानी आप दशर्कों को यह फर्क भी समझना होगा कि कानून की गारंटी और सिर्फ योजना में क्या बुनियादी फर्क है। वसुंधरा ने लिखा है कि एक्ट होने से क्या लाभ है इसे देखना चाहिए। नतीजा यह हुआ है कि तमाम तरह के संगठनों ने मुकदमों की बाढ़ लगा दी है। विभागीय कार्यों के ज़रिये दिए गए काम को भी मनरेगा के तहत रोज़गार समझा जाना चाहिए।

गांवों के विकास के लिए अलग-अलग नाम से कई योजनाएं चलती हैं। मगर इनसे अलग 2005 में कानून बनाकर रोज़गार को अधिकार का रूप दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनावी भाषणों में इन अधिकार कानून की आलोचना किया करते थे। लेकिन 26 जून को कमजोर मानूसन पर समीक्षा बैठक के बाद पीएमओ की तरफ से जारी नोट में कहा गया है कि प्रधानमंत्री ने यह निर्देश जारी किया है कि जहां जहां जरूरत हो मनरेगा का इस्तमाल ग्रामीण इलाकों में रोज़गार पैदा करने के लिए होना चाहिए यानी मनरेगा में उनका यकीन झलकता है।

दिवंगत ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे ने भी अपनी प्राथमिकताओं में कहा था कि मनरेगा से भ्रष्टाचार खत्म करेंगे मज़दूरी के भुगतान में देरी बर्दाश्त नहीं होगी। साल 2012 में भी यूपीए सरकार ने इसका दूसरा वजर्न लांच किया था।

इसके तहत मनरेगा में तीस नए कामों को जोड़ा गया। इसके लिए इन कामों को दस श्रेणियों में रखा गया। वाटरशेड, सिंचाई, बाढ़ प्रबंधन, खेती और पशुपालन के काम, मत्स्य पालन, ग्रामीण पेयजल और सफाई का काम। पहली बार इसमें शौचालय निर्माण को भी शामिल किया गया। यानी मनरेगा में संशोधन होता ही रहा है। मौजूदा सरकार नई बात यह कह रही है कि मनरेगा के तहत गांवों में स्थाई ढांचा तैयार किया जाए ताकि वे लंबे समय तक आजीविका यानी रोजगार के साधन बने रहें।

मनरेगा में भ्रष्टाचार ने इसकी विश्वसनीयता खराब कर दी है। हर गांव में इससे जुड़े अनेक किस्से मिल जाएंगे और मनरेगा के पैसे ने मुखिया के चुनाव को महंगा और हिंसक भी बना दिया है। लेकिन मनरेगा की कामयाबी के भी किस्से हैं, जो इन दागदार किस्सों के अंधेरे में खो गए।

नीति सेंट्रल नामक वेबसाइट के प्रवीण सिंह ने लिखा है कि मोदी सरकार मनरेगा को इंदिरा आवास योजना से जोड़ने जा रही है। इसके तहत प्रत्येक परिवार को घर बनाने के लिए अलग से 12000 रुपये मिलेंगे।

नीति सेंट्रल के मुताबिक इस वक्त इंदिरा आवास योजना के तहत मैदानी इलाकों में 70000 रुपये मिलते हैं। 12000 की राशि अलग से दी जाएगी। मनरेगा को गांवों के विकास से जोड़ा जाएगा और उसकी मज़दूरी मनरेगा के खाते से दी जाएगी। वसुंधरा राजे ने भी अपनी चिट्ठी में इस बात पर विचार करने के लिए लिखा है कि मनरेगा के तहत स्किल अपग्रेडेशन के खर्चें को शामिल किया जाना चाहिए और इसे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से जोड़ देना चाहिए।

26 जून को टाइम्स ऑफ इंडिया में सुबोध घिडियाल ने लिखा है कि केंद्र सरकार मनरेगा के तहत किसी जिले में जो काम होगा उसका साठ प्रतिशत खेती से जुड़ा होगा। इसे सभी राज्यों के लिए अनिवार्य बनाया जाएगा। इस मामले में राज्यों से राय मांगी गई है।

मनरेगा के स्वरूप में बदलाव की तमाम खबरों को देखकर एक सवाल यह भी पैदा होता है कि कहीं सरकार तमाम योजनाओं से इसे जोड़कर इस योजना को ही पिछले दरवाज़े से खत्म तो नहीं करना चाहती।

मोदी सरकार मनरेगा के पैसे और काम से गांवों में स्थायी साधनों का निर्माण करना चाहती है। जयराम रमेश ने भी ग्रामीण विकास मंत्री रहते मनरेगा 2 के लांच के वक्त कहा था कि मनरेगा को उत्पादकता बढ़ाने के उपकरण में जल्द से जल्द बदल देना चाहिए। लेकिन वसुंधरा की चिट्ठी तो इसके मूल स्वरूप पर ही सवाल उठा दे रही है कि इसे कानूनी अधिकार बनाए रखने की क्या ज़रूरत है। योजना क्यों न बना दें?

आज सीपीएम नेता वृंदा करात ने नितिन गडकरी को एक चिट्ठी लिख दी है जिसमें कहा है कि मनरेगा को वित्तीय मजबूरियों का शिकार नहीं बनाया जाना चाहिए। इस कानून को और मज़बूत करने की ज़रूरत है। वसुंधरा राजे की चिट्ठी से चिन्ता पैदा होती है। अगर ऐसा हुआ तो रोजगार देने के बादे से क्रूर मज़ाक होगा। मुझे उम्मीद है कि आप अपनी सरकार की नीति साफ करेंगे। मनरेगा के काम को खेती के कार्य से जोड़ने की बात हो रही है पर इसका पैंसठ से सत्तर फीसदी काम तो खेती से ही जुड़ा हुआ है। 2013−14 के वित्तीय वर्ष के पहले छह महीने में 78 फीसदी काम जल संरक्षण भूमि विकास और ग्रामीण संपर्क मार्गों से संबंधित हुआ है। मैं आग्रह करती हूं कि योजनाओं को आपस में मिलाने के नाम पर कार्य दिवस कम नहीं होने चाहिए।

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वहीं वसुंधरा राजे ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि विभागीय कामों को मनरेगा का काम समझा जाना चाहिए। सीपीएम नेता कहती हैं कि इन कामों को मनरेगा के काम के अलावा दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें सौ दिन से ज्यादा काम मिले। तो क्या रोजगार गारंटी कानून को रोजगार योजना में बदल दिया जाना चाहिए। और ऐसा हुआ तो क्या हो जाएगा।