यह ख़बर 22 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : न्यायपालिका की निष्पक्षता पर बहस

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार। कुछ हफ्ते पहले ही तो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम केंद्र सरकार पर आरोप लगा रहे थे कि अमित शाह मामले में राय देने के कारण उनका नाम सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति प्रक्रिया से अलग किया गया है। सरकार कह रही थी कि आईबी की रिपोर्ट में प्रतिकूल बातें सामने आर्इ हैं, इसलिए ऐसा किया गया है।

तब छुट्टी से लौट कर आते हैं भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएम लोधा और इस मामले में बयान देते हैं कि कार्यपालिका यानी सरकार ने एकतरफा तरीके से गोपाल सुब्रमण्यम का नाम अलग किया। यह सही नहीं हुआ। वे आगे कहते हैं कि यह धारणा मत बनाइये कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से समझौता हुआ है। मैंने हमेशा इसके लिए लड़ा है और अगर इससे समझौता हुआ तो मैं सबसे पहले कुर्सी छोड़ दूंगा। मैं एक अरब बीस करोड़ लोगों को वादा करता हूं कि न्यायपालिका की स्वंतत्रता से समझौता नहीं होगा।

किसे मालूम था कि चंद दिनों बाद वही कोलेजियम कटघरे में होगा और भारत के तीन-तीन मुख्य न्यायाधीश सवालों के घेरे में। सत्ता संतुलन में नैतिक बल जिसका प्रधान होता है, वही उस वक्त तक प्रधान होता है। अब जजों की नियुक्ति के मामले में पारदर्शिता को लेकर न्यायपालिका की जगह सरकार बयान दे रही है कि वह चिंतित है।

बयान देने में काटजू साहब की फितरत पर शक करने वालों को उस समय धक्का पहुंचा, जब तबके कानून मंत्री हंसराद भारद्वाज ने स्वीकार कर लिया है कि उन्होंने तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से मद्रास हाई कोर्ट के जज की सिफारिश की थी।

काटजू साहब ने रविवार को ब्लॉग लिखकर बताया था कि इस जज पर भ्रष्टाचार के कई आरोप थे और उनके कैरियर रिकॉर्ड में आठ-आठ प्रतिकूल टिप्पणियां थीं, तब भी राजनीतिक दबाव में मद्रास हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस ने उन टिप्पणियों को समाप्त कर एडिशनल जज नियुक्त कर दिया। काटजू के अनुसार आईबी रिपोर्ट के बाद भी रिटायर्ड चीफ जस्टिस लाहोटी ने दिवगंत जस्टिस अशोक कुमार को एक साल का एक्सटेंशन दिया चीफ जस्टिस सबरवाल ने एक और टर्म दे दिया और चीफ जस्टिस बालाकृष्णन ने उनकी नियुक्ति को स्थाई कर दूसरे राज्य में तबादला कर दिया। मद्रास हाईकोर्ट का एक जज, तीन-तीन चीफ जस्टिस के कायर्काल में पहुंच रखता है तो विवाद कैसे नहीं होगा।

जस्टिस काटजू के ब्लॉग लेखन में टाइमिंग की दुर्गंध तलाशने वालों को उनके फेसबुक पर जाकर उन तमिल लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जिन्होंने काटजू साहब से कहा कि आप मद्रास हाईकोर्ट के अपने अनुभवों पर भी लिखें। काश इन तमिल भाइयों ने तभी याद दिला दिया होता, जब मनमोहन सरकार के समय काटजू साहब प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन बन रहे थे। तब ये मामला कितना विस्फोटक होता वैसे अब भी कम नहीं है।

दो दिनों से संसद में हंगामा हो रहा है। एआईडीएमके नेता डीएमके के उस मंत्री का नाम जानना चाहते हैं, जिसके दबाव में दिवंगत जज को प्रोन्नति दी गई। कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद ने अपने बयान में भी काटजू की बात को सत्यापित कर दिया कि 2003 में कोलेजियम को कुछ एतराज़ था और तय हुआ कि इस जज को प्रमोट नहीं करना चाहिए। यूपीए शासन में पीएमओ ने सफाई मांगी कि क्यों इस जज का नाम प्रस्तावित नहीं किया जाना चाहिए। कोलेजियम ने तब भी मना कर दिया, लेकिन बाद में कानून मंत्रालय ने कोलेजियम को लिखा कि इस केस में कुछ सेवा विस्तार दिया जा सकता है। ध्यान में यह बात रखियेगा कि इस मामले में आईबी रिपोर्ट खिलाफ होने के बाद भी कोलेजियम ने जज बनाया तो गोपाल सुब्रमण्यम मामले में आईबी रिपोर्ट सही नहीं होने के कारण सरकार ने जज नहीं बनने दिया।

लिहाजा अब टाइमिंग नहीं जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया का सवाल महत्वपूर्ण है। बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का वादा किया है। मंगलवार को कानून मंत्री ने कहा कि सरकार इसकी स्थापना को लेकर गंभीर है। यूपीए सरकार ने राज्यसभा में अगस्त 2013 में 'The Judicial Appointments Commission Bill' पेश किया था। इस विधेयक पर उसी साल दिसंबर में स्टैंडिंग कमेटी अपनी रिपोर्ट दे चुकी है।

इस विवाद के लिए संविधान की कुछ धाराओं को भी समझना होगा।

- धारा 124 (2) 217 (1) 222 (1) पढ़ सकते हैं, जिसके तहत राष्ट्रपति को जजों की नियुक्ति और तबादले का अधिकार दिया गया है।
- इन धाराओं के अनुसार जजों की नियुक्ति का काम कार्यपालिका और न्यायपालिका का साझा उपक्रम है।
- मगर कुछ व्याख्याओं के अनुसार कार्यपालिका को न्यायपालिका पर सर्वोच्चता हासिल है।

1993 के एक फैसले से यह व्याख्या पलट गई तब से असहमति की स्थिति में न्यायपालिका की राय को प्रधान माना जाने लगा। स्टैंडिंग कमेटी ने विस्तार से इन बातों की समीक्षा कर कहा है कि संविधान निर्माताओं ने इस मामले में कार्यपालिका या न्यायपालिका किसी को संपूर्ण विवेकाधिकार नहीं दिया था। एक संतुलन कायम किया गया था।

संविधान में कोलेजियम शब्द का ज़िक्र तक नहीं है। मगर न्यायपालिका ने धारा 141 के व्याख्या के अधिकार के तहत यह मतलब निकाल लिया कि कोलेजियम ही जजों की नियुक्ति करेगा। सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के अलावा चार वरिष्ठ जज होते हैं। स्टैंडिंग कमेटी के सामने जस्टिस एमएन वेंकट चेलैया, जस्टिस बीआर कृष्णा अय्यर और जस्टिस जेएस वर्मा ने सुझाव दिया था कि नेशनल ज्युडिशियल कमिशन बनना चाहिए ताकि पारदर्शी तरीके से नियुक्ति हो।

इन जजों ने चिन्ता व्यक्त की थी कि हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के मामले में बहुत ज्यादा लौबी होती है। कई बार योग्य व्यक्तियों को अनदेखा किया जाता है। ख्वामखाह लोग काटजू साहब के पीछे पड़ गए हैं। उनसे पहले भी न्यायधीश महोदय ऐसी बातें कह चुके हैं। लौबी होती है। लौबीइंग हुई है।

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मगर क्या वही राजनीति अपने हाथ से इस घोषित अघोषित अधिकार क्षेत्र को जाने देगी। आखिर 24 हाईकोर्ट के आठ सौ जजों की नियुक्ति के मामले में देरी तो नहीं होनी चाहिए। क्या राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बेहतर विकल्प है। जब सुप्रीम कोर्ट के पांच जज मिलकर विश्वसनीय प्रक्रिया नहीं बना सके तो राष्ट्रीय न्यायिक आयोग में ऐसे कौन से सुरखाब के पंख लगे होंगे, जहां ये सब नहीं होगा।