यह ख़बर 13 जून, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : कौन बनेगा नेता विपक्ष?

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार....समूह और दल में क्या अंतर होता है? इसके लिए हिंदी व्याकरण की किसी किताब की नहीं बल्कि संसद के कानूनी प्रावधानों और परंपराओं में झांकने का वक्त आ गया है। एक सामान्य राजनीतिक जन की इस विषय में दिलचस्पी होनी ही चाहिए कि क्यों कांग्रेस नेता विपक्ष का पद मांग रही है और क्यों सरकार अपनी तरफ से सक्रिय नहीं दिख रही है। और क्या हो जाएगा जब 16वीं लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं होगा।

इतिहास पर नजर डालें तो साल 1952 से लेकर साल 1969 के बीच नेता विपक्ष था ही नहीं। साल 1969 में पहली बार कांग्रेस सरकार से निकल कांग्रेस ओ बनती है, जिसके नेता राम सुभग सिंह लोकसभा के इतिहास में पहली बार नेता विपक्ष बनते हैं। राम सुभाग सिंह बिहार के बक्सर से चुनाव जीते थे। इसके बाद साल 1980 और 89 के बीच भी कोई नेता विपक्ष नहीं था, लेकिन साल 1989 से 2014 तक हमेशा नेता विपक्ष रहा।

लोकतांत्रिक संस्थाओं से जुड़ी बहसों में उसकी विकास यात्राओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए और देखना चाहिए कि 1952 से लेकर आज तक नेता विपक्ष की भूमिका कैसे बदल रही है। कैसे आज का नेता विपक्ष सदन के भीतर सरकार पर नजर रखने के अलावा सदन के बाहर सरकार के कई फैसलों में भागीदार बनता है, ताकि जनता को यह यकीन दिलाया जा सके कि सरकार से स्वतंत्र होकर काम करने वाली संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखों की नियुक्ति पारदर्शी तरीके से की गई है और सरकार ने अपने हितों का ध्यान रखते हुए नियुक्ति नहीं की है। ये संस्थाएं हैं केंद्रीय सूचना आयुक्त, केंद्रीय सतर्कता आयोग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, लोकपाल, सीबीआई और चुनाव आयोग।

एक सवाल यह है कि जब सरकार लोक सभा और राज्य सभा के प्रति उत्तरदायी होती है तो क्यों न इन नियुक्तियों के प्रावधानों में लोकसभा के साथ राज्य सभा के नेता विपक्ष को भी शामिल करना चाहिए। अब आते हैं 1977 और 1998 के दो कानूनों पर जिनकी चर्चा इस संदर्भ में हो रही है। दोनों में फर्क है। 77 के एक्ट में लीडर्स ऑफ आपोजीशन लिखा है और 98 के एक्ट में दलों के नेता और चीफ व्हीप की मान्यता लिखी है। 98 के एक्ट में नेता विपक्ष शब्द नहीं है और न ही दस प्रतिशत की शर्त है।

साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने पहली बार सैलरी एंड अलाउंसेज ऑफ लीडर्स ऑफ अपोज़ीशन एक्ट पास किया। इसके अनुसार पहली बार नेता विपक्ष को वैधानिक मान्यता कैबिनेट मंत्री का दर्जा, सैलरी और अन्य सुविधायें मिलती हैं। इसमें कहा गया है कि सबसे अधिक संख्या वाले दल का नेता इस पद के योग्य होगा। दस प्रतिशत वाली शर्त नहीं है।

परंपरा के अनुसार जब 1969 तक इसी दस प्रतिशत यानी कोरम के बराबर सदस्य न होने के कारण कोई नेता विपक्ष नहीं हुआ तो 1977 के एक्ट में विपक्ष से सरकार में आई जनता पार्टी ने दस प्रतिशत की जगह सबसे बड़ा दल क्यों कहा। हमारे आज के मेहमान सूयर्प्रकाश जी ने लिखा है कि लोकसभा के पहले स्पीकर जी वी मावलंकर का विचार था कि जब तक पार्टियों की संख्या कम से कम न होगी लोकतंत्र सही तरीके से विकसित नहीं हो सकता।

मावलंकर के अनुसार लोकसभा में संसदीय दल होने के लिए किसी दल की अपनी विचारधारा और कायर्क्रम होने चाहिए, जो चुनाव के पहले घोषित किए जाएं और देश के जनमत के संपर्क में रहने के लिए सदन के बाहर भी उसके संगठन का ढांचा हो। पार्टी के पास सदन की कार्रवाई के जरूरी कोरम की संख्या से कम सदस्य नहीं होने चाहिए। आप जानते हैं कि सदन में कोरम सदस्य संख्या का एक बटा दस होता है।

लोकतंत्र में कितनी पार्टियां हों यह मावलंकर जी के अपने विचार हो सकते हैं। परंपरा या कानून का हिस्सा नही। मावलंकर जी ने कोरम के बराबर संसदीय दल की मान्यता के लिए दस प्रतिशत की बात कह कर एक परंपरा की बुनियाद डाली। उनके इस कथन में नेता विपक्ष शब्द का इस्तमाल नहीं हुआ है। संसदीय दल का हुआ है। कानून का हिस्सा तब भी नहीं बना। मुझे यह ज्ञात नहीं हो सका कि 1952 से 1969 के बीच क्या किसी ने नेता विपक्ष की मान्यता को लेकर सवाल उठाया था। वैसे भी सूयर्प्रकाश जी के इस लेख में मावलंकर जी संसदीय दल होने के लिए जो दो शर्तें बताते हैं उनमें से एक कांग्रेस पूरी करती है और एक नहीं। कांग्रेस के पास अखिल भारतीय ढांचा और विचार तो है ही। इस संबंध में लिखने वाले किसी ने नहीं लिखा है कि संविधान सभा का क्या रुख था नेता विपक्ष को लेकर।

इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक अन्य लेख में सुभाष कश्यप जी भी लिखते हैं कि स्पीकर किसी नेता को विपक्षी नेता के लिए सुविधा से लेकर बैठने की जगह और बोलने के समय तय कर सकती हैं। मगर स्पीकर दस प्रतिशत की शर्त नहीं हटा सकतीं। संविधान विशेषज्ञ कश्यप के लेख से मेरे लिए यह मतलब निकालना मुश्किल है कि क्या वह यह कह रहे हैं कि स्पीकर 1977 के एक्ट के अनुसार सुविधाएं दे दें। अगर हां तो स्पीकर उसी एक्ट में नेता विपक्ष की वैधानिक मान्यता को कैसे नजरअंदाज़ कर सकती हैं। अगर कश्यप जी यह नहीं कह रहे हैं तो क्या यह मसला सिर्फ स्टाफ और सैलरी को लेकर ही है।

सुभाष कश्यप ने यह भी लिखा है कि अगर कई विपक्षी पार्टियां मिलकर दस प्रतिशत की सीमा पार कर लें यह पब्लिक एक्सचेकर के साथ फ्रॉड होगा। कश्यप जी सही लगते हैं क्योंकि 1977 और 1998 के एक्ट में समूह या गठबंधन शब्द का ज़िक्र ही नहीं है। वे लिखते हैं कि संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखों की नियुक्ति के प्रावधान में तब्दीली की जा सकती है। लेकिन बीजेपी का तो यही आरोप रहा है कि कांग्रेस के वक्त संवैधानिक संस्थाओं के साथ खिलवाड़ हुआ है। वह इनकी पवित्रता को बहाल करेगी।

अब कांग्रेस कैसे यह दावा कर रही है। जवाहरलाल नेहरू ने जब नेता विपक्ष की मान्यता देने की उदारता नहीं दिखाई तो वह प्रधानमंत्री मोदी से उदारता की अपेक्षा किस आधार पर रखती है। नेहरू को छोड़िये। क्या इंदिरा गांधी ने 1971 में 352 सीटें जीतकर 25 सीटें जीतने वाली सीपीएम और 22 सीटें जीतने वाले जनसंघ के किसी नेता को नेता विपक्ष की मान्यता दी थी। तथ्य है कि नहीं दी थी। राजीव गांधी को जब 404 सीटें मिली थी, तब बीजेपी को 2 सीटें आई थी। उस समय टीडीपी को सबसे अधिक 30 सीटें आई थी। तब क्यों राजीव गांधी ने टीडीपी नेता माधव रेड्डी को नेता विपक्ष की मान्यता नहीं दी थी।

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लोकतंत्र का उच्चतम आदर्श तो यही मांग करता है कि सदन में दो ही सदस्य विपक्ष में हो तो उसमें से किसी एक को नेता विपक्ष की मान्यता देनी चाहिए। जिन लोगों को नरेंद्र मोदी पर शक है, वह राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त उनके भाषण को फिर से पढ़ सकते हैं, जिसमें प्रधानमंत्री सदन को विश्वास दिलाते हुए कहते हैं कि हमें संख्या के बल पर नहीं चलना है। हमें सामूहिकता के बल पर चलना होगा। हम उस सामूहिकता के भाव को लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं। तो इम्तहान किसका है, प्रधानमंत्री की इस भावना का लोकसभा के प्रावधानों का या परंपरा का?