यह ख़बर 10 मार्च, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार… मतदाता ईश्वर की तरह निराकार तो होता है, मगर उसके नाम और कमर्कांड भी देवताओं की तरह अलग-अलग होते हैं। लेकिन इन सब में एक कैटगरी ऐसी है, जिसके बारे में नेताओं को पता नहीं कैसे लगता है कि उसमें जाति, धर्म और वर्ग के भेद नहीं हैं। इस कैटगरी का नाम है महिला वोटर। क्या हमारी राजनीति महिला वोटर से बराबरी से संवाद करती है या उपदेश आशीर्वाद देने का लहजा ही हावी रहता है। अगली बार जब टीवी पर रैलियों की तस्वीर आए तो ध्यान से देखिएगा। औरतों अलग बैठी हैं और मर्द अलग। सिनेमा हॉल में तो ऐसा नहीं होता, जहां अंधेरा होता है मगर रैलियों में क्यों?

दिल्ली में निभर्या कांड के वक्त हमारी राजनीति को औरतों की राजनीतिक दलों से अलग आवाज के दबाव का सामना करना पड़ा था। अचानक बड़ी-बड़ी कार से लेकर हथियारों के बीच चलने वाले ये नेता कैमरे के सामने नारीवादी होने लगे। इस आंदोलन का एक सबसे बड़ा फायदा हुआ कि औरतों की सुरक्षा का सवाल मौजूदा राजनीति के बड़े सवालों में से एक बन गया। लेकिन एक और नुकसान हुआ, औरतों के सारे सवाल सुरक्षा के नाम पर पीछे धकेल दिए गए। संख्या यानी भागीदारी के सवाल से नेताओं को बचने का मौका मिल गया।

महिला उम्मीदवारों के चयन में इन राजनीतिक दलों के यहां भी वही पैमाना है जो टीवी सीरीयल और तेल मसाला के विज्ञापन में होता है। महिलाओं को टिकट देना होता है, तो सिनेमा-सीरीयल से लेकर राजशाही खानदानों के खंडहरों से निकाल लाते हैं। आप तमाम राजनीतिक दलों का ढांचा देखिए। महिला कायर्कर्ता कैसे शुरू से अलग रखी जाती है। महिला मोर्चा उन्हें हाशिये पर रखने का ठिकाना भर है।

आज-कल आपने टीवी पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को औरतों से अलग से संवाद करते हुए देखा होगा। राहुल गांधी अपनी बाड़शाला में बुलाते हैं और उनके सपनों से दो चार होने लगते हैं। उनसे घिर कर नए जमाने के नेता दिखने लगते हैं। नरेंद्र मोदी महिला दिवस के दिन चाय पे चर्चा के लिए कई लोकेशन पर औरतों से बात करते हैं।

इन दोनों के वीडियो फुटेज को यूटूब पर जाकर फिर से देखिएगा और इन्हीं नेताओं को मंच पर से भाषण देते हुए वीडियो से मिलान कीजियेगा। मंच पर ये अपनी भाषा से लेकर भाव-भंगिमा तक में सिर्फ और सिर्फ पुरुष होते हैं। आए दिन मर्दाना शब्दावली से नवाजे जाते हैं, लेकिन जब औरतों के बीच आते हैं इनके कंधे झुके होते हैं, चेहरे पर मुस्कान होती है और पूरा माहौल सौम्य होता है। यह बदलाव सिर्फ नाटकीय है या औरतों को इतना ही समझ कर प्रभावित करने का आसान टेक्निक। क्या उनकी देह भाषा औरतों के साथ बराबरी से पेश आती है या खुद को उन्हें दान देने के अंदाज में पेश करती है। जैसे इन्हें संबोधित करने नहीं मोहित करने आए हों।

फिर भी क्या हमारे नेता औरतों की भागीदारी के सवाल पर ईमानदार हैं। साठ के दशक में एक हजार मतदाता में 715 औरतें होती थीं और आज 803 हो गर्इ हैं। यूपी विधानसभा चुनावों में 60.29 फीसदी औरतों ने मत दिया था। जो पुरुषों से अधिक था। मतदान करने में औरतें पुरुषों से आगे निकल रही हैं, मगर लिंग अनुपात में वह पीछे हैं।

12 सितंबर 1996 को महिला आरक्षण बिल संसद में पेश हुआ था। आज तक यह लोकसभा में पास नहीं हो सका, जबकि यह बिल 9 मार्च 2010 को राज्य सभा में पास हो गया था। तमाम राजनीतिक दल पंचायतों से लेकर निगमों तक में महिलाओं के आरक्षण को शानदार कामयाबी की तरह पेश करते हैं, मगर संसद और विधानसभा के नाम पर आकर आरोप प्रत्यारोप में बहस उलझा देते हैं। महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन करने में ही हमारे राजनीतिक दलों की महिला मोर्चा क्यों सक्रिय कर दी जाती है। कहीं हमारे राजनीतिक दल औरतों को राजनीति में भी घरेलू औरत की तरह तो स्थापित नहीं करते। वह चाहते तो बड़ी संख्या में महिला उम्मीदवारों को टिकट दे सकते थे। कायर्कर्ता बना सकते थे। अभियान चला सकते थे।

इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की रिपोर्ट बताती है कि औरतों के सवालों पर गंभीर हमारे राजनीतिक दलों का प्रदर्शन इतना खराब क्यों हैं? इस नाकामी में सबकी भागीदारी रही है। बिना औरतों की भागीदारी के कैसे हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं। खैर 2013 की रिपोर्ट के अनुसार संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी देने के सवाल पर भारत का स्थान 108 वां हैं। पाकिस्तान 66वें स्थान और नेपाल 24वें स्थान पर होते हुए इस मामले में भारत से कहीं आगे है। 543 सांसदों में से सिर्फ 60 महिला सांसद हैं।

18 से 19 साल के इस बार जितने भी नए मतदाता हैं, उनमें से 41 फीसदी लड़कियां हैं। वह अपनी भागीदारी के सवाल को कैसे देखती हैं? वह अपनी महिला मतदाता की पहचान को किस नज़रिये से देखती हैं? सुरक्षा के नाम पर भागीदारी के सवाल से क्यों बचते हैं हमारे नेता?


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