याकूब मेमन की 2012 की तस्वीर
मुंबई: क्या 1993 धमाकों का दोषी याकूब पकड़ा गया था? अगर नहीं तो फिर उसने सरेंडर कैसे, कब और कहां किया? आने वाले वक्त में सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला लेगा उसमें पूरा मामला इन दो सवालों पर आकर जरूर अटकेगा। रॉ के पूर्व अधिकारी का लेख इशारा करता है कि याकूब किसी 'डील' के तहत लाया गया था। ऐसी डील जिसके बारे में या तो खुफिया एजेंसियां जानती हैं या फिर याकूब और उसका परिवार। पूरी कहानी में यही वो पेंच है जो सबसे ज्यादा पेचीदा सवाल पैदा करता है।
तर्क के खातिर मान लें कि याकूब को सीबीआई ने दिल्ली स्टेशन से पकड़ा था, तो फिर आजतक एजेंसियां ये क्यों नहीं बता पाई कि स्टेशन पर पकड़ने के पहले याकूब कहां रहता था। अगर वो भारत में ही था तो जिन लोगों ने पनाह दी वो कौन थे? ज़ाहिर सी बात है ऐसा कुछ था ही नहीं तो बहस ही नहीं उठी। तो तर्क के आधार पर ये साफ है कि याकूब की दिल्ली में गिरफ्तारी के पहले ही वो पुलिस की पकड़ में था। जो लोग एजेंसियों के कामकाज और तौर तरीकों को जानते हैं उन्हें पता है कि ये बेहद आम है कि कोई आरोपी पक़ड़ा कहीं भी जाए उसकी गिरफ्तारी पुलिस अपनी सुविधा के हिसाब से बताती है।
याकूब का परिवार कहता रहा है कि उसने काठमांडू में सरेंडर किया था...यानी नेपाल में ही सारी गतिविधियां हुईं हैं। तर्क के खातिर मान लें कि नेपाल में ही गिरफ्तारी हुई है तो फिर सवाल उठते हैं कि याकूब वहां तक पाकिस्तान से पहुंचा कैसे? और पहुंचा भी तो पकड़ा कैसे गया? याकूब की कहानी में और बड़े पेंच तब दिखते हैं जब ये समझ आना बंद हो जाता है कि अगर याकूब की गिरफ्तारी हुई थी और वो तैयार नहीं था तो इस सबके बाद भी उसका परिवार कैसे वापस आ गया? क्यों सारे लोग लौट आये? क्या उन्हें नहीं पता था कि याकूब को कैसे गिरफ्तार किया गया है? अगर पता था तो वो सब खुद को खतरे में डाल कर क्यों लौटे?
चलिये कुछ देर के लिये मान लेते हैं कि हमारी एजेंसियों ने बरगला कर याकूब और उसके परिवार को पकड़ लिया और बाद में उनको सज़ा दिला दी। अब बड़ा सवाल उठता है कि याकूब ने शुरू से ही ये क्यों नहीं बताया कि उसने सरेंडर किया है, पकड़ा नहीं गया है?
इन तमाम पेंच और सवालों के जवाब दरअसल कानूनी प्रक्रिया में हैं। 1993 बम धमाकों पर फैसला देने वाले जज पीडी कोदे कहते हैं कि याकूब ने सरेंडर किया है, इसके वो सबूत पेश नहीं कर सका। बड़ा सवाल है कि क्या गिरफ्त में आने के बाद कोई शख्स सबूत पेश कर सकता है? जज साहब का मानना है कि अदालतें फैसला सबूत और बयानों के आधार देती हैं और याकूब नाकाम रहा खुद के सरेंडर की बात साबित करने में, जबकि सीबीआई ये बता पाई कि उसे गिरफ्तार किया है।
जाहिर सी बात है अदालत का इससे लेना देना नहीं हो सकता कि कौन से सबूत काठमांडू में थे और वो याकूब के पास कैसे नहीं रह पाए।
ऐसा नहीं है कि याकूब ने अपने सरेंडर की बात जज को नहीं बताई। जज साहब के मुताबिक सीआरपीसी की धारा 313 के तहत मुलजिम को सज़ा के बाद भी अपनी बात कहने का हक़ है और इसी का इस्तेमाल करते हुए याकूब ने अपने सरेंडर की बात कही। लेकिन ये बात किसी शपथ के तहत नहीं होती इसलिए उसका कोई कानूनी महत्व नहीं बचता।
पेंच की कहानी यहीं खत्म नहीं होती, रॉ के अफसर और याकूब के बीच जो कुछ हुआ था, वो अदालतों की सीमा के बाहर हुआ है इसलिए उसके आधार पर रहम की गुंजाइश कम होती है, ऐसे में सवाल यही कि क्या याकूब बच पाएगा फांसी के फंदे से?