ताकि ज़िंदा रहे नदी : ये सरकारी रिपोर्ट ना हो नज़रअंदाज़


नई दिल्‍ली : नदी में जान बची रहे और वो ज़िंदगी का पैगाम देती रहे इसके लिए ज़रूरी है कि पर्यावरण के लिहाज़ से उसके बहाव का लगातार आंकलन हो और उसके बाद ही उसमें बांध जैसी बेड़ियां डालने से जुड़े बड़े फ़ैसले लिए जाएं। ये सिफ़ारिश ख़ुद सरकार की ही बनाई एक कमेटी ने की है। एक ऐसे दौर में जब बड़े बांधों की भूमिका सवालों के घेरे में है, सुप्रीम कोर्ट में कई बांधों को मंज़ूरी देने की मांग पर सुनवाई जारी है और सरकार के रवैये को शक़ से देखा जा रहा है तो ख़ुद ये सरकारी रिपोर्ट सबका ध्यान अपनी ओर खींचती है।

जल संसाधन मंत्रालय की ओर से गठित तीन सदस्यों की इस कमेटी में पर्यावरण मंत्रालय में विशेष सचिव डॉ. शशि शेखर, जल संसाधन मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव अमरजीत सिंह और आईआईटी कंसोर्शियम के डॉ. विनोद तारे शामिल रहे। पिछले ही महीने मार्च में ये रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई जिसका कम से कम दो बार उच्चस्तरीय बैठकों में जिक्र भी हो चुका है।

पूरे अध्ययन और जांच के बाद ये कमेटी इस नतीजे पर पहुंची है कि पर्यावरण बहाव आंकलन यानी E-flows Assessment (EFA), नदी की सेहत यानी River Health Regime (RHR) का पता लगाने का एक अहम ज़रिया है। नदी की सेहत को एक ख़ास स्तर (RHR) पर बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि ठोस नीतिगत फ़ैसले लेने के बाद ही सिंचाई और पनबिजली परियोजनाओं को मंज़ूरी दी जाए और उनकी हदें तय की जाएं। फिर चाहे अभी उन्हें बनाने की योजना ही बन रही हो या फिर उन पर काम शुरू हो चुका हो। रिपोर्ट में ये बेलाग सिफ़ारिश भी है कि ज़रूरत पड़े तो नदी के बहाव को भयानक नुकसान पहुंचा रही चालू परियोजनाओं को भी रद्द करना पड़े तो कर दिया जाए।

रिपोर्ट के मुताबिक नदी का ई-फ्लो ही उसके पानी की क्वॉलिटी और उसमें मौजूद जलीय जीवन को निर्धारित करता है। नदी का ई-फ़्लो ही आध्यात्मिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के कायम रहने की बुनियाद भी साबित होगा और नदी आधारित रोज़गारों और उद्यमों की रीढ़ साबित होगा। नदी का ई-फ़्लो सिर्फ़ पानी के बहाव तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये पानी के साथ आगे जाने वाले सेडिमेंट यानी गाद की मात्रा को भी तय करता है। नदी की ये गाद निचले मैदानी इलाकों की उर्वरता को बनाए रखने के लिए बेहद ज़रूरी है। इसीलिए कमेटी की रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि किसी भी परियोजना के बनने के बाद भी नदी में पानी और गाद का संतुलन वैसा ही बने रहना चाहिए जैसा बिना किसी बाधा या बांध के था।

ख़ास बात ये भी है कि 32 पन्नों की इस रिपोर्ट की सिफ़ारिशें सिर्फ़ गंगा ही नहीं बल्कि देश भर की नदियों पर लागू होती है। इस रिपोर्ट में गंगा नदी पर तैयार की गई पूर्व की कई रिपोर्टों का हवाला दिया गया है। इनमें आईआईटी कंसोर्शियम की रिपोर्ट और विवादित बीके चतुर्वेदी कमेटी रिपोर्ट शामिल हैं। लेकिन हैरानी की बात ये है कि गंगा बेसिन के क्युमुलेटिव इम्पैक्ट एसेसमेंट पर वाइल्ड लाइफ़ इंस्टिट्‌यूट ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट का ज़िक्र इसमें नहीं है जबकि ये रिपोर्ट गंगा बेसिन पर तैयार सबसे भरोसेमंद रिपोर्टों में से एक मानी जाती है।

कमेटी ने नदी के पर्यावरण बहाव यानी ई-फ़्लो के आकलन के तरीके और न्यूनतम पर्यावरणीय ज़रूरत (Minimum Environment Requirement-MER) को भी तय करने के लिए सुझाव दिए हैं। इनमें से एक अहम सुझाव ये है कि नदी पर आश्रित उन ख़ास जीव जंतुओं की पहचान की जाए जो नदी की पूरी यात्रा के दौरान उसके स्वस्थ होने का इंडिकेटर माने जा सकते हैं। जैसे इस रिपोर्ट में अपर गंगा बेसिन में स्नो ट्राउट और गोल्डन महाशीर मछलियों को ऐसा इंडिकेटर माना गया है। नदी के पूरे उथले और गहरे रास्ते में साल के अलग-अलग मौसमों में कहां कितना पानी बनाए रखकर ऐसे जीव जंतुओं की प्रजाति को बचाए और बढ़ाए रखा जा सकता है उसी के आधार पर ई फ़्लो और MER को तय किया जाना चाहिए। रिपोर्ट में नदी की सेहत को पांच वर्गों में बांटा गया है। मौलिक, मौलिक के क़रीब, थोड़ा प्रभावित, काफ़ी प्रभावित और विकृत रूप।

अगर नदी का बहाव न्यूनतम पर्यावरणीय ज़रूरत(MER) से कम है तो वो विकृत रूप में है। भारत में ज़्यादातर नदियां (उत्तर पूर्व और हिमालय के ऊपरी कैचमेंट की कुछ नदियों को छोड़कर) विकृत रूप में हैं क्योंकि उनमें न्यूनतम बहाव भी नहीं है।

अगर नदी का बहाव बीते कई सालों के उसके औसत बहाव के बराबर है तो नदी को उसके मौलिक रूप में माना जाना चाहिए। कमेटी के मुताबिक नदी में पानी का ई फ़्लो उसके MER यानी न्यूनतम पर्यावरणीय ज़रूरत से ज़्यादा होना चाहिए ताकि वो अपनी मौलिक भूमिका को निभाती रह सके। लेकिन नदी की सेहत का ये विवरण उसके पानी की मात्रा से ही ज़्यादा जुड़ा है। पानी की क्वॉलिटी, उसके जैविक गुण वगैरह पर बातें तय होनी अभी बाकी हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक पानी का न्यूनतम बहाव बनाए रखना नदी ही नहीं लोगों और समाज की भी ज़रूरत है। अगर ये न्यूनतम हद भी नहीं बनाए रखी गई तो नदी का विकृत रूप उसके इकोसिस्टम को ख़त्म कर देगा जिसका दूरगामी असर इंसानी समाज पर भी जल्द ही दिखाई देगा।

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जाने-माने पर्यावरणविद् हिमांशु ठक्कर का मानना है कि अपने ही जल संसाधन मंत्रालय की बनाई कमेटी की इस सबसे ताज़ा रिपोर्ट को ही अगर सरकार गंभीरता से ले और सुप्रीम कोर्ट में अपने रुख़ को सुधार ले तो उसे अपने सामने खड़े कई कठिन सवालों के जवाब ख़ुद ही मिल जाएंगे। रिपोर्ट पर अमल से ना सिर्फ़ गंगा बल्कि देश भर की नदियों को निर्मल और अविरल बनाने का रास्ता खुल सकता है।