विपक्षी एकता- हकीक़त या फ़साना: ममता के मंच पर एकजुटता तो दिखी, मगर लोकसभा में कांग्रेस 'किस-किस' से लड़ेगी?

ममता बनर्जी की इस रैली से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी का अलग रहना, अपने आप में कई सवाल खड़े कर रहे हैं.

विपक्षी एकता- हकीक़त या फ़साना: ममता के मंच पर एकजुटता तो दिखी, मगर लोकसभा में कांग्रेस 'किस-किस' से लड़ेगी?

ममता के मंच पर विपक्षी एकता से कांग्रेस को हासिल क्या? (फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

देश का सबसे बड़ा सियासी अखाड़ा यानी लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2019) सिर पर है. 'महामुकाबला' की रणभेरी बजने से ठीक पहले पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में ममता बनर्जी (Mamata Banarjee) ने सभी विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर साथ लाकर न सिर्फ अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है, बल्कि विपक्षी एकता की झलक भी दिखा दी है. मगर ममता बनर्जी की इस रैली से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी का अलग रहना, अपने आप में कई सवाल खड़े कर रहे हैं. मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष का राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की कवायद हकीकत का जामा पहनेगा या फिर यह फसाना बनकर रह जाएगा यह तो खैर वक्त बताएगा, मगर कई राज्यों में जिस तरह से कांग्रेस से क्षेत्रीय पार्टियां दूरी बनाती दिख रही हैं, उससे यह अब एक बार फिर से चर्चा होने लगी है कि क्या सच में विपक्ष एकजुट है? ऐसे सवाल मन में इसलिए भी कौंध रहे हैं क्योंकि ममता के मंच पर करीब 20 राजनैतिक दलों के नेता मौजूद दिखे, जिनमें से कुछ का कांग्रेस के साथ गठबंधन है और कुछ ऐसे हैं जो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बगैर लड़ने का ऐलान कर चुके हैं. कोलकाता में विपक्षी नेताओं के जमावड़े से यह स्पष्ट होता है कि भले ही उनके बीच गठबंधन न हो, मगर वह लोगों को यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह मोदी सरकार के खिलाफ एक हैं.

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मंच पर साथ-साथ, मगर चुनावी मैदान में अलग: 

दरअसल, शनिवार को ममता बनर्जी द्वारा आहुत 'संयुक्त भारत रैली' में करीब 20 से 22 दलों के 20 नेता एक मंच पर साथ आए. ये नेता एक मंच पर एक साथ तो जरूर आ गए, मगर इनमें से कई ऐसे हैं जो पहले ही लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से अलग जाने का फैसला ले चुके हैं. अगर एक मंच पर विपक्षी दलों के नेता एक साथ नजर आ भी जाते हैं तो अब सवाल उठता है कि क्या बीजेपी को हराने के लिए एक साथ चुनावी मैदान में भी उतरेंगे? इसका जवाब शायद ज्यादातर ना ही होगा. कयोंकि हाल ही में उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव ने सपा-बसपा के गठबंधन का ऐलान कर इस बात की तस्दीक कर दी कि यूपी में कांग्रेस अकेली हो गई है. यानी यूपी में अब कांग्रेस को बीजेपी से तो लड़ना है ही, साथ ही उसे बसपा और सपा से भी लड़ना है. इस तरह से विपक्षी पार्टियों के पास विजन स्पष्ट है कि केंद्र की सत्ता से मोदी सरकार को हराना है, मगर कैसे हटाना है यह तरीका नहीं पता है. 

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यूपी में अकेली कांग्रेस:

यूपी में बात करें तो 80 लोकसभा सीटों पर बसपा-सपा ने साथ-साथ लड़ने का ऐलान कर दिया है. इस गठबंधन में कांग्रेस को जगह नहीं मिली है. यानी यहां कांग्रेस को बीजेपी और सपा-बसपा गठबंधन के खिलाफ अकेले लड़ना है. मगर हैरानी की बात यह है कि ममता की रैली में ये तीनों विपक्षी एकता के गवाह बने. अब सवाल उठता है कि अगर मंच पर ये पार्टियां एक साथ होने का दमखम दिखा रही है, तो फिर चुनाव में जाने से क्यों कतरा रही है?.

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दिल्ली में कांग्रेस के सामने दोहरी चुनौती:

कोलकाता में ममता बनर्जी के मंच पर कांग्रेस के नेता और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल भी थे. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों मोदी सरकार के खिलाफ विपभी एकजुटता रैली के सदस्य थे, मगर 7 लोकसभा सीटों वाले दिल्ली में ये पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ेंगी. पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में गठबंधन की संभावना थी, मगर शीला दीक्षित और गोपाल राय के बयान के बाद इन संभावनाओं पर पानी फिर गया है. मतलब दिल्ली में भी कांग्रेस बीजेपी से तो लड़ेगी ही, साथ ही वह आम आदमी पार्टी से भी चुनावी जंग करेगी. 

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ममता की राह कांग्रेस से अलग:

ममता बनर्जी ने भले ही लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता का नेतृत्व शनिवार को कोलकाता में किया. मगर वह मंच पर भले ही कांग्रेस के साथ हैं, लेकिन चुनावी मैदान में कांग्रेस के साथ नहीं हैं. ममता बनर्जी पहले ही ऐलान कर चुकी हैं कि वह लोकसभा चुनाव में अकेली चुनाव लड़ेंगी. यानी टीएमसी का कांग्रेस से गठबंधन नहीं होगा. इसलिए यहां भी कांग्रेस बीजेपी के साथ-साथ टीएमसी से भी लड़ेगी. 

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बीजेपी के अलावा और भी विरोधी:

तेलंगाना में टीआरएस के मुखिया और मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव फेडरल फ्रंट की बात कर रहे हैं. फेडरल फ्रंट की कवायद में जुटे केसीआर इसके लिए केजरीवाल, ममता बनर्जी, अखिलेश आदि से भी मिल चुके हैं. वह न तो कांग्रेस के साथ आना चाहते हैं और न ही बीजेपी के साथ. इस तरह से 17 लोकसभा सीटों वाले तेलंगाना में भी कांग्रेस अकेली ही है. उसके सामने बीजेपी और टीआरएस दोनों से लड़ने की चुनौती है. 

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आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने शनिवार को ममता के मंच से कहा कि संविधान बचाने-देश बचाने के लिए केंद्र से मोदी सरकार को हटाना होगा. इसके लिए वह महागठबंधन की कवायद तो करते दिख रहे हैं, मगर अभी तक उसे अमली जामा नहीं पना पाए हैं. चंद्रबाबू नायडू ने अब तक लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ जाएंगे या नहीं, इसका ऐलान नहीं किया है. यह बात अलग है कि तेलंगाना विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस के साथ थे. बता दें कि यहां 25 लोकसभा सीटें हैं. 

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बिहार की राह आसान:

40 लोकसभा सीटों वाले बिहार में महागठबंधन की हालत अन्य राज्यों से बेहतर है. ममता के मंच पर राजद नेता तेजस्वी यादव भी दिखे. बस बिहार से ही कांग्रेस के लिए राहत की खबर दिख रही है. क्योंकि वहां राजद के साथ कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा है. मगर सीटों को लेकर वहां भी तकरार की खबरें हैं. लेकिन यह क्लीयर है कि कांग्रेस बिहार में महागठबंधन का हिस्सा होगी.

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21 लोकसभा सीटों वाले ओडिशा में भी कांग्रेस पूरी तरह से अकेली है. वहां कांग्रेस के सामने भी दो बड़ी पार्टिया हैं, जिनसे पार पाना इतना आसान नहीं है. ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजद प्रमुख नवीन पटनायक साफ कह चुके हैं कि वह न तो कांग्रेस के साथ जाएंगे और न ही बीजेपी के साथ.  वहीं, जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ है. वहां पीडीपी और बीजेपी के अलग होने से थोड़ी राहत कांग्रेस को जरूर मिलेगी. मगर राह इतनी भी आसान नहीं. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव वाला मायावती की बसपा का अजीत जोगी से गठबंधन अगर लोकसभा चुनाव में रहता है तो कांग्रेस के लिए यहां भी मुश्किलें बढ़ेंगे. 

इस तरह से देखा जाए तो लोकसभा चुनाव से पहले भले ही राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी एकता के गुब्बारे फुलाए जा रहे हैं, मगर यह कितने देर में फूट जाएगा, इस पर अब भी संशय के बादल बरकरार हैं. महागठबंधन के केंद्र में भले ही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस है, मगर जो तस्वीरें अभी दिख रही हैं, उसमें वह कई जगह अलग-थलग दिख रही है. 

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