नई दिल्ली:
ब्राजील आंसुओं में डूबा है। क्या सिर्फ इसलिए कि वो वर्ल्ड कप फुटबॉल का सेमीफाइनल मैच हार गया। ऐसा नहीं है कि उसने पहली बार हार देखी है। लेकिन जर्मनी के ख़िलाफ़ उसकी हार इस क़दर क्यों सालने वाली है क्योंकि इस मैच में ब्राजील जितना खेलता दिखा उससे ज़्यादा खेल से बाहर दिखा।
मैच के शुरुआती पांच मिनटों के बाद तो लगा कि किसी जादूगर ने उसके पांव बांध दिए हैं जिन्हें अगले आधे घंटे वह खोल तक नहीं पाया। इस दौरान जर्मनी गोल गोल गोल गोल दागता चला गया। ब्राजील के ये बंधे हुए पांव किस दबाव का नतीजा थे, क्या अपने एक स्टार खिलाड़ी के घायल और कप्तान के बाहर होने भर से ब्राजील की टीम ऐसी कमज़ोर हो गई कि वो जर्मनी का हमला झेल ही नहीं सकी या फिर फुटबॉल वर्ल्ड कप जीतने की उम्मीदों का दबाव उस पर इस क़दर तारी हो गया कि जब एक मज़बूत टीम से सामना हुआ तो वह बिखर गई।
ये सारी वजहें होंगी, लेकिन ब्राजील इसलिए भी हारा कि उसने ब्राजील की तरह खेलना छोड़ दिया। पहले ब्राजील फुटबॉल के साथ अपने पांवों की थिरकन के लिए जाना जाता था। वो मैच जीतने से पहले दिल जीतता था और इस बात की परवाह नहीं करता कि वो हार भी सकता है। लेकिन, नए बनते ब्राजील में खेलने से ज़्यादा जीतना ज़रूरी है− ये बात ब्राजीलियन फुटबॉल के कोच ने अपने खिलाड़ियों को समझाई।
ये जीतने वाला ब्राजील वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल हारने से पहले अपनी वो दुनिया हार चुका था जो उसने कभी अपने खेल से बनाई थी। जीत के इस दबाव ने उसकी सहज लय भी तोड़ दी और उसका सपना भी तोड़ दिया। बस उम्मीद करें कि ग़म के इस समंदर से उबरेगा तो ब्राजील फिर से पहचानेगा कि फुटबॉल उसका जिस्म भी है, उसकी आत्मा भी है, उसकी पहचान भी है और उसका सम्मान भी है।
फुटबॉल में जिसका कोई मुल्क नहीं होता उसका ब्राजील होता है। ब्राजील सबकी तरफ से खेलता रहा है। उसी तरह खेलेगा तो वर्ल्ड कप भी जीतेगा। और नहीं भी जीतेगा तो भी ब्राजील बना रहेगा।