यह ख़बर 10 अक्टूबर, 2011 को प्रकाशित हुई थी

जेम्स कैमरून चाहिए कर्णपुरा को बचाने के लिए...?

खास बातें

  • झारखंड की इस घाटी के लोगों को अपना हीरो अपने बीच से ही तलाशना होगा, और जब तक 'अवतार' किसी चैनल पर दोबारा नहीं आती, क्या हममें से कोई कर्णपुरा जाएगा...?
New Delhi:

जिन लोगों ने जैम्स कैमरून की सुपरहिट फिल्म 'अवतार' देखी है, उन्हें झारखंड की कर्णपुरा घाटी ज़रूर जाना चाहिए... अगर हमारे फिल्मकारों के पास नज़र है, तो वे इस घाटी में जाकर वैसा कथानक ज़रूर ढूंढ लेंगे, जिस पर कैमरून ने अपनी मेगा हिट फिल्म बनाई, और इसके लिए उन्हें कैमरून की तरह किसी हाईटेक 3-डी एनिमेशन की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि घाटी में किसानों की हिम्मत ने पहले ही किसी मेगा हिट फिल्म की पटकथा लिख दी है... हज़ारीबाग से 40 किलोमीटर दूर कर्णपुरा घाटी में प्रवेश करने से पहले आप एक बेहद खूबसूरत रास्ते से गुजरते हैं, लेकिन पहली नज़र में जंगलों और हरे-भरे खेतों की खूबरसूरती के पीछे छिपे उस खतरे का एहसास नहीं होता, जो इस शांत इलाके की फ़िज़ां में पसरा हुआ है...आज कर्णपुरा में 30 से अधिक माइनिंग और पावर कंपनियां घुसना चाहती हैं... राज्य सरकार के साथ रिलायंस के अलावा मित्तल, जिंदल, डीवीसी, अभिजीत ग्रुप, एस्सार, रूंगटा माइन्स और निको जायसवाल जैसी कंपनियों ने एमओयू साइन किए हैं, और खुद सरकारी कंपनी एनटीपीसी इलाके में 8000 एकड़ से अधिक ज़मीन किसानों से लेना चाहती है... लेकिन यह कर्णपुरा के लोगों की ताकत है कि वे ढाई दर्जन से अधिक माइनिंग कंपनियों का प्रतिरोध कर रहे हैं और कोई भी कंपनी अब तक यहां पर ज़मीन नहीं ले पाई है... हज़ारीबाग और चतरा जिले की 90,000 एकड़ ज़मीन में फैली कर्णपुरा घाटी में आज कोई 260 करोड़ टन कोयला दबा हुआ है और उस पर कब्ज़े के लिए हर मुमकिन कोशिश हो रही है... लेकिन इसी ज़मीन के ऊपर लहलहाती फसल और घने जंगलों की संपदा है, जिसके बारे में न निजी कंपनियां बात करना चाहती हैं, न ही यह सरकार को दिखाई दे रहा है... विडम्बना देखिए कि वन क्षेत्र होने की वजह से पिछले पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उत्तरी कर्णपुरा के इलाके में खनन को हरी झंडी नहीं दी, लेकिन माइनिंग और पावर कंपनियां यहां घुसने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं... बड़कागाम, आज़ादनगर, बादम, गोंदलपुरा, बाबूपाड़ा और हरली जैसे गांवों में घूमकर यही महसूस होता है कि यहां का किसान विदर्भ, आंध्र प्रदेश या मालवा की तरह परेशान या कर्ज़ में डूबा नहीं है... ओबीसी और आदिवासी अपनी खेती और जंगल से मिलने वाले उत्पादों से खुश हैं तो दलित ज़मीन के मालिकाना हक से समाज में खुद को ताकतवर महसूस करते हैं... इसीलिए कर्णपुरा के तमाम गांवों में संगठित होकर 1.5 लाख से अधिक लोगों ने ज़मीन न देने का फैसला  किया है... उनका कहना है कि कई सालों से यहां की बहुफसली खेतिहर ज़मीन किसानों को जितना पैसा दे रही है, उस अनुपात में कोई भी कंपनी मुआवज़ा नहीं देगी... लेकिन बात सिर्फ विस्थापित होने या खेतिहर ज़मीन छिनने की नहीं, पर्यावरण की भी है... पूरे देश में आज 500 मिलियन टन कोयले का उत्पादन होता है और रिलांयस का इरादा अकेले इस इलाके से ही कोई 100 मिलियन टन कोयला खोदने का है... यह बात याद रखनी चाहिए कि झारखंड का यह हिस्सा हिन्दुस्तान के फेफड़े की तरह है... अगर इस तरह यहां विकास का बुलडोज़र चला, तो न जंगल बचेंगे, न यहां की जीवनदायिनी दामोदर नदी... लेकिन कर्णपुरा के लोगों के पास कोई जेम्स कैमरून नहीं, जो उनके संघर्ष को 3-डी एनिमेशन के जरिये दिखाए... उन्हें अपना हीरो अपने बीच से ही तलाशना होगा और इस बीच जब तक स्टार मूवीज़ पर दोबारा 'अवतार' नहीं आती, क्या हममें से कोई कर्णपुरा जाएगा...?


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