Blogs | रवीश कुमार |बुधवार मई 1, 2019 04:44 AM IST अगले तीन चरण के चुनाव मुख्य रूप से हिन्दी भाषी प्रदेशों में ही हो रहे हैं. लेकिन इन प्रदेशों में हिन्दी की ही हालत ख़राब है. हिन्दी बोलने वाले नेताओं के स्तर पर क्या ही चर्चा की जाए, उनके भाषणों में करुणा तो जैसे लापता हो गई है. आक्रामकता के नाम पर गुंडई के तेवर नज़र आते हैं. सांप्रदायिकता से लैस हिन्दी ऐसे लगती है जैसे चुनावी रैलियों में बर्छियां चल रही हों. चुनाव के दौरान बोली जाने वाली भाषा का मूल्यांकन हम बेहद सीमित आधार पर करते हैं. यह देखने के लिए कि आचार संहिता का उल्लंघन हुआ है या नहीं. मगर भाषा की भी तो आचार संहिता होती है. उसका अपना संसार होता है,संस्कार होता है. ज्ञान का भंडार होता है. उन सबका क्या.