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  • मज़दूरों को यह लग रहा है कि नीतीश कुमार ने उनके साथ भेदभाव किया, उनको अपने हाल पर छोड़ दिया. लोग मनमाने दाम पर अपने साधन कर वापस आने पर मजबूर हुए और उसके लिए नीतीश कुमार के प्रति उनकी चिढ़ देखते बनती है. हालांकि ट्रेन से जो लोग लौटे उनके लिए प्रशासन चुस्त दुरुस्त रहा. स्टेशन पर आते के साथ खाने की थाली और पानी से उनका स्वागत करते दिखे.
  • जनता दल यूनाइटेड (JDU) के प्रमुख नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने मंगलवार को विधिवत रूप से प्रशांत किशोर को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. हालांकि संयमित भाषा के लिए पहचान रखने वाले नीतीश कुमार, पवन वर्मा और प्रशांत किशोर पर कुछ इस तरह गुस्सा निकाला कि अपनी पार्टी के प्रवक्ता जिस भाषा में बोलते हैं नीतीश भी उसी अंदाज़ में आ गए. लेकिन प्रशांत किशोर की विदाई का एक ही राजनीतिक अर्थ है कि भाजपा के साथ सीटों का समझौता नीतीश कुमार के मनमुताबिक हो गया हैं.
  • साल खत्म होने को है. बीते साल का हर व्यक्ति अपने हिसाब से नफ़ा नुक़सान का आकलन कर रहा है. यह साल बिहार की राजनीति के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा है. ख़ासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिनकी छवि एक समाजवादी नेता के रूप में अभी तक थी, उनके अपने कई कदमों के कारण अब एक धारणा मज़बूत होती जा रही है कि वे समाजवादी -भाजपाई हैं.
  • झारखंड में नए मुख्यमंत्री के रूप में हेंमत सोरेन रविवार को शपथ लेंगे, लेकिन उनके सता संभालने से पहले ये क़यास लगाये जाने लगे हैं कि आख़िर बिहार की सता पर इसका क्या असर होगा. खासकर क्या नीतीश कुमार जो अगले साल सता में पंद्रह वर्ष पूरे करेंगे और एक बार फिर जनता से जनादेश मांगेंगे. क्या उनके ऊपर बगल के राज्य के सत्ता परिवर्तन का ताप पड़ेगा? इस सवाल का जवाब आपको झारखंड और बिहार की राजनीति के तीन उदाहरण से मिल जायेगा.
  • क्या बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए राजनीति में सारे सिद्धांतों से समझौता कर लिया है? या नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सामने सत्ता में बने रहने के लिए घुटने टेक दिए हैं.  ये दोनों सवाल नगरिकता संशोधन बिल पर जनता दल यूनाइटेड के समर्थन के बाद सब कर रहे हैं.
  • पटना शहर से जल जमाव की समस्या फ़िलहाल ख़त्म हो गई है. इस जल जमाव के यूं तो कई कारण रहे लेकिन वो चाहे भाजपा समर्थक हों या विरोधी, सब मानते हैं कि अगर एक व्यक्ति जिसकी लापरवाही का सबने ख़ामियाज़ा उठाया वो हैं सुशील मोदी. और राजधानी पटना की इस नरकीय स्थिति ने सबसे ज़्यादा नुक़सान किसी की व्यक्तिगत और राजनीतिक छवि को पहुंचाया है तो वो हैं बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी. सुशील मोदी ने पटना की हर समस्या में आम लोगों के साथ खड़े होकर अपनी व्यक्तिगत राजनीतिक छवि चमकाई और साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी को लगातार पिछली पांच विधानसभा चुनावों से हर सीट पर जीत दिलाई. उसी सुशील मोदी ने इस बार के पानी में, उनके समर्थकों के अनुसार सब कुछ खोया है.
  • पटना शहर में बहुत कुछ विचित्र हो रहा है. शहर में एक हफ़्ते में केंद्र, राज्य और अन्य एजेंन्सी मिलकर भी बारिश के जमा पानी निकाल नहीं पाये हैं. आपको जानकर हैरानी होगी कि न पटना नगर निगम और न पानी निकालने का ज़िम्मा जिस  एजेंसी को दिया गया है उसके पास शहर के नालों का कोई नक़्शा है.  हद तो तब हो गई शहर के रख रखाव और बाहर से पानी की निकासी कैसे हो जिसका ज़िम्मा जिन लोगों के ऊपर था वे ही अब आक्रमक तरीके से दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो राग छेड़ दिया है. मतलब आप ठीक समझे जो BJP के नेता हैं ख़ासकर बिहार BJP के नवनियुक्त अध्यक्ष संजय जयसवाल पटना कि मेयर सीता साहू ये अब मांग कर रहे हैं कि दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो जबकि उन्हें मालूम है कि अधिकांश दोषी कोई और नहीं इनके अपने मंत्री विधायक और मेयर हैं जिन्होंने अपना काम और दायित्व ठीक से नहीं निभाया. 
  • इस बात में कोई विवाद नहीं हैं कि जलजमाव के बहाने चमकी बुखार की तरह नीतीश कुमार को मीडिया का एक तबका जिसकी भक्ति उनके सहयोगी भाजपा सरकारों और नेताओं के लिए जगज़ाहिर हैं के निशाने पर वो एक बार फिर हैं. नीतीश सरकार ने पटना के टाउन प्लानिंग की अपने शासन काल में जमकर उपेक्षा की इस बात पर कोई दो मत नहीं हैं. इसका खामियाजा पटना के लोगों को उठाना पड़ रहा है. लेकिन यह भी सच है कि जिस नगर विकास विभाग, नगर निगम या अन्य संस्थाओं ( जिनका जिम्मेदारी राजधानी पटना का विकास करना है) के बॉस भाजपा के लोग रहे. खासकर उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी. पटना में सभी विधायक भाजपा के हैं.
  • पटना में जो जलजमाव देखा जा रहा है वैसा पिछले कुछ दशकों में नहीं देखा गया. जलजमाव की जो तस्‍वीरें और वीडियो हर घंटे सामने आ रहे हैं उसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके सहयोगी BJP के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की छवि को धोकर रख दिया है.
  • बिहार विधानसभा का चुनाव अगले साल होना है और जब उसके पहले कई अन्य राज्यों में चुनाव होना है तो उस परिप्रेक्ष्य में बिहार के विधानसभा चुनाव को लेकर भविष्यवाणी जल्दीबाजी होगी लेकिन जो संकेत मिल रहे हैं उससे तो केवल एक बात साफ लग रही है, और वह है नीतीश कुमार का एक बार फिर मुख्यमंत्री चुना जाना. खासकर इस कथन को बल बिहार की राजधानी पटना में पिछले दिनों तीन अलग-अलग घटनाओं से मिला. इनका एक-दूसरे से कोई सम्बंध नहीं था लेकिन सबका राजनीतिक अर्थ एक था.
  • क्या बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड अपने सुप्रीमो नीतीश कुमार को अब 'कामचलाऊ' और 'अस्थायी'  मानती है. ये सवाल सोमवार को पार्टी दफ़्तर के बाहर लगाए गये नए होर्डिंग के बाद लोग पूछ रहे हैं.  रविवार शाम , पटना में पार्टी दफ़्तर के बाहर नए होर्डिंग लगाए गए जिसमें नारा  था , ‘क्यूं करे विचार ठीके तो है नीतीश कुमार’.  निश्चित रूप से जिसने भी स्लोगन लिखा होगा उसमें पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ख़ासकर नीतीश कुमार के क़रीबी आरसीपी सिंह के सहमति से  ही ये होर्डिंग लगायी होगी. लेकिन पार्टी के ही नेताओं को लगता है ये नारा लोगों को पच नहीं रहा. ठीके का मतलब बिहार की राजनीति और गांव घर में यही होता हैं कि वो बहुत अच्छे तो नहीं लेकिन ठीक ठाक कामचलाऊ हैं.
  • आर्टिकल 370 के मुद्दे पर केंद्र की भारतीय जनता पार्टी को अपने सहयोगी नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड से निराशा हाथ लगी. लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में जनता दल यूनाइटेड के नेताओं ने न केवल विरोध में भाषण दिया बल्कि सदन का बहिष्कार भी किया. जबकि इस मुद्दे की गंभीरता और जनता में इसको लेकर आम लोगों के बीच जो सरकार के प्रति भावना है उसके बाद बीएसपी, आम आदमी पार्टी जैसे विपक्षी दल सरकार के समर्थन में आगे आए. लेकिन सवाल है कि इस सबके बावजूद आख़िर इस मुद्दे पर अपनी पार्टी की पुराने लाइन और सिद्धांत पर नीतीश क्यों टिके रहे. इसके लिए आपको पांच वर्ष के एक घटनाक्रम पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का कमेंट जानना होगा.
  • लोकसभा चुनाव के बाद बिहार की राजनीति को लेकर जो भी क़यास लगाए जा रहे हैं उसके केंद्र में एक ही बात की प्रमुखता होती है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का अगला कदम क्या होगा और राजद टूटेगी या अब एक बार फिर नीतीश कुमार की शरण में जाएगी.
  • बिहार में चमकी बुखार (Acute Encephalitis Syndrome) से  अब तक 150 बच्चों की मौत हो गयी है. निश्चित रूप से इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार की सबसे अधिक आलोचना हो रही है. उसके बाद उप मुख्यमंत्री  सुशील मोदी जो विपक्ष के नेता के रूप में किसी भी घटना के बाद सबसे आक्रामक होके इस्तीफ़ा मांगते थे. इन सबके बाद राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय जो अपने संवेदनहीनता के कारण मज़ाक़ के पात्र बन बैठे हैं उनकी आलोचना हो रही है. ये तीनों नेता मीडिया से परेशान हैं क्योंकि मीडिया वाले इनका पीछा करते हैं और कुछ तो इनसे इन्हीं के पूर्व के बयानो का हवाला देते हुए पूछ देते हैं कि आख़िर इस्तीफ़ा कब देंगे. मीडिया ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कई दिन तक सुबह से शाम तक प्राइम टाइम में बच्चों की मौत, अस्पतालों की बदहाल स्थिति के बहाने सरकार की निश्चित रूप से जायज बिंदुओं  पर चैनल के पत्रकार से संपादक तक एक स्वर से आलोचना करते हैं.
  • अगर कुछ महीने छोड़ दिए जाएं, तो पिछले कुछ सालों से दोनों नेता राज्य की सता पर क़ाबिज़ हैं, लेकिन अब बिहार में कुछ ही दिनों में 130 से अधिक बच्चों की मौत ने इनकी प्रशासनिक कुशलता पर सवाल खड़े कर दिए हैं, और इसीलिए जहां नीतीश कुमार अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में बात करने की बजाय मीडिया से मुंह फुलाए बैठे हैं, वहीं सुशील मोदी का हमेशा की तरह इस बार भी 'लालू-राबड़ी' राग जारी है.
  • राजनीति में चीज़ें जितनी बदलती है उतनी ही अपने मूल स्वरूप में भी रह जाती हैं. ये सच बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार से बेहतर कोई नहीं जानता जो पिछले 5 दिनों से केंद्र के सरकार में हिस्सेदारी को लेकर सुर्ख़ियों में हैं. हालांकि वह हर दिन एक बात की दुहाई देते हैं की NDA में है और अगर केंद्र के सरकार में हिस्सेदारी को लेकर उनकी बात नहीं बनी तो इसका मतलब बिहार में BJP के साथ सरकार पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा और साथ ही वह केन्द्र और बिहार में एनडीए में ही रहेंगे. लेकिन वर्तमान विवाद और संकट का क्या समाधान होगा उसके लिए नीतीश कुमार की राजनीति को 25 साल पहले से देखना होगा. उस समय क्या हुआ था यह बिहार बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं जैसे सुशील मोदी और नंद किशोर यादव को अच्छी तरह से याद होगा. सत्ता में हिस्सेदारी का ही मामला था कि जब नीतीश कुमार ने लालू यादव से अलग होकर लोक समता पार्टी बनायी थी.
  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में वापस आने की संभावना चुनाव घोषित होने के पहले हफ़्ते में प्रबल दिख रही है. जबकि ये भी सच है कि इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा के शीर्ष नेता से कार्यकर्ता तक मानकर चल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में सीटों को संख्य कम होगी. वह पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में आधी भी हो सकती है. लेकिन इसके बावजूद एक महीने या 45 दिन पहले तक जो भाजपा उत्तर प्रदेश में हाशिये पर डबल डिजिट के लिए संघर्ष कर रही थी वह अब खेल में वापसी कर चुकी है.
  • बिहार की राजनीति में रविवार तीन मार्च का दिन कई कारणों से याद किया जाएगा. इस दिन सुबह कश्मीर में शहीद हुए सब इंस्पेक्टर पिंटू सिंह का पार्थिव शरीर पटना आया था. तब न तो नीतीश कुमार समेत उनके मंत्रिमंडल के किसी सदस्य ने, न ही मोदी मंत्रिमंडल में शामिल बिहार के किसी मंत्री ने पटना में मौजूद रहने के बावजूद पटना एयरपोर्ट पर जाकर सिंह को श्रद्धांजलि देने की जरूरत समझी. इससे साफ है कि पुलवामा हो या अन्य घटना, इन नेताओं के लिए मीडिया में प्रचार पाने के अलावा कुछ नहीं.
  • लोकसभा चुनाव सिर पर है और हर दल अपने-अपने हिसाब से राजनीतिक दांव खेलने में व्यस्त हैं. जहां एक ओर राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस के बीच सहयोगियों को जोड़ने की होड़ लगी है. वहीं, क्षेत्रीय दल भी अपने-अपने हिसाब से यानी कांग्रेस या BJP के साथ अब तालमेल को अंतिम रूप दे रहे हैं. कांग्रेस अगर सहयोगी या क्षेत्रीय दलों से समझौता कर रही है तो उसकी मजबूरी समझ में आती है लेकिन अचानक बीजेपी जिस तरह से महत्वपूर्ण राज्यों में अपने पुराने स्टैंड से 360 डिग्री घुमकर समझौते कर रही है, उससे तो यही लगता है कि भाजपा को अब सहयोगियों का महत्व समझ में आ रहा है. इतना ही नहीं, बीजेपी को शायद उनके बिना चुनाव में जाना आत्मघाती लग रहा है. इसलिए भाजपा एक बार फिर 'सहयोगी शरणम् गच्छामी' के मुद्रा में है. 
  • पश्चिम बंगाल में पिछले रविवार से लेकर अभी तक जो कुछ चल रहा है वह चिंताजनक है. बंगाल में सत्ता पर काबिज तृणमूल को भाजपा धूल चटाना चाहती है और सारी लड़ाई की जड़ में यही है. भाजपा का आकलन है जब तक तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी को सारदा घोटाले में फंसाया नहीं जाता तब तक बंगाल पर विजय का परचम फहराने का उनका कई दशक का सपना पूरा नहीं हो पाएगा.
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