लोगों में निराशा दूर कर उत्साह भरने का शौक है. इसलिए इससे जुड़े विषयों पर कई किताबें लिखी हैं जो लोगों ने काफी पसंद की हैं. अधिकतर पुस्तकें जीवन प्रबंधन से जुड़ी हुई हैं.
क्या सचमुच काले धन को खत्म करने की यह कोशिश व्यर्थ सिद्ध होगी? अर्थशास्त्री इस बारे में दुनिया के देशों द्वारा उठाए गए कदमों का उदाहरण देते हुए इस कोशिश को महज़ 'राजनीतिक एवं अहमकाना' कदम मानते हैं. उनके इस निष्कर्ष का ठोस बौद्धिक आधार है - 'दुनिया के बहुत से देश', लेकिन यहां कुछ सवाल कौंधते हैं.
वस्तुतः काले धन की नींव पर खड़े महल का तल दलदल का होता है, जो कभी भी धंसकर गायब हो सकता है. भुजियावाले जैसों के महल का हश्र आप पढ़ ही रहे हैं, जबकि सफेद धन से बनाई गई एक झोंपड़ी भी चट्टान पर खड़ी रहती है, जिसके अस्तित्व और साथ के प्रति आप आश्वस्त हो सकते हैं.
थोड़ा सब्र रखें. बड़े-बड़े अर्थशास्त्री अपने कैलकुलेटर की गणना से नोटबंदी को असफल घोषित कर रहे हैं. यह महज उनकी आर्थिक सोच है, सामाजिक और राजनैतिक नहीं. भले ही यह घटना उस रूप में सफल न हो पाए, लेकिन इतना पक्का है कि यह असफल तो नहीं ही होगी.
अंतिम दो प्रश्न. पहला, यदि आप सचमुच काले धन को खत्म करना चाहते हैं, तो बताएं कि जो अभी किया गया है, उसका विकल्प क्या है...? और दूसरा, यदि इससे बेहतर विकल्प थे तो वे अब तक किए क्यों नहीं गए...? इसलिए अब यदि किसी ने किया है, तो यह हमारा नागरिक दायित्व है कि हम उसका साथ दें. इसका नतीजा क्या निकलेगा, भविष्य पर छोड़ दें.
विशेषकर पिछले चार महीनों के दौरान हमारा देश चार ऐसे अत्यंत चर्चित मुद्दों से गुज़रा है, जिनमें देश की राजनीति के बदले और बदलते चेहरे की झलक देखी जा सकती है.
नोटबंदी के मामले में भी तो कहीं ऐसा ही फिर से तो नहीं हो रहा है? यह इस बार सत्ता पक्ष की ओर से नहीं, बल्कि कुछ अपवादों को छोड़कर सम्पूर्ण विपक्ष की ओर से है.
न केवल डोनाल्ड ट्रम्प की जीत, बल्कि इस बार का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का पूरा अभियान ही कुछ इस तरह का रहा है, जिसने अमेरिका के छद्म चेहरे पर से नकाब को हटाकर उसके असली चेहरे के दर्शन पूरी दुनिया को करा दिए हैं. यह जीत कहीं न कहीं बौद्धिकता के सामने अबौद्धिकता की, ज्ञान के सामने व्यापार की, साथ ही सुगढ़ता के सामने अगढ़ता की जीत दिखाई पड़ रही है.
आरिफ मोहम्मद खान ने अपना यह भाषण एम.बनातवाला द्वारा प्रस्तुत एक गैर-सरकारी विधेयक के विरोध में 23 अगस्त 1985 को लोकसभा में दिया था. यह घटना, जिसे एक ऐतिहासिक घटना के रूप में लिया जाना चाहिए, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के ठीक तीन महीने बाद घटी थी.
जो लोग भी समाज में; विशेषकर भारत जैसे बहुविध एवं लोकतांत्रिक समाज में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को जानते हैं, उन्हें अभी तीन बार तलाक कहने तथा मुस्लिम समाज की बहुविवाह प्रथा जैसे मुद्दों पर हो रही खींचातानी बहुत अजीब नहीं लग रही होगी. इस तरह के मामलों में; युग चाहे जो भी रहा हो, धर्म और समाज चाहे जो भी रहे हों, होता वही है, जो अभी हो रहा है. साथ ही यह भी कि होगा वह ही, जिसके कंधे पर राजनीतिक शक्ति का साथ होगा.
मामला चाहे हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का हो, अथवा लखनऊ की मस्जिद में महिलाओं के नमाज़ पढ़ने का, सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है. परिवर्तन के इस प्रवाह को परम्परा की पतली मेढ़ रोक पाएगी, इसमें पर्याप्त संदेह है. सवाल केवल वक्त का है, वह कितना लगेगा. और प्रश्न यह भी है कि इसका श्रेय मिलेगा किसे...
स्वच्छता की चेतना इन लोगों के दिमाग में इतने गहरे बैठ गई थी कि ग्रामीण हर चीज़ का इस्तेमाल पोंछकर और धोकर ही करते थे. यहां मुझे एक घटना याद आ रही है. वह गर्मी की भरी दुपहरी थी. मैं एक के यहां गया. मेरी खातिरदारी में पहले तो एक चमचमाती हुई प्लेट में लाकर गुड़ और पानी मुझे दिया गया. फिर पपीते की फांक मुझे परोसी गई. चौंकाने वाली बात यह थी कि पपीते की उन छिली हुई फांकों को भी धोकर परोसा गया था.
फिल्म ‘‘पिंक’’ आज की लड़कियों से जुड़ी हुई एक बहुत बड़ी और समाज के लिए, विशेषकर लड़कों के लिए एक बहुत ही शर्मनाक घटना को महानगरीय परिवेश के अत्यंत आधुनिक संदर्भों में उठाती है. कोई भी फिल्म केवल अभिनय के दम पर अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वाह नहीं कर सकती. उसमें व्यक्त विचारों में दम होना जरूरी है. तभी वह लाल रंग अख्तियार कर पाती है.
हमारे देश में हिन्दी की जो आज दुर्गति है, वह सिर्फ और सिर्फ इस अंग्रेजी के ही कारण है. अंग्रेजी की इस अमरबेल को हटा दीजिए, हिन्दी के साथ-साथ सारी भारतीय भाषायें हरहरा उठेंगी.
वर्तमान में भाषा के संकट ने अवचेतन तक पहुंच पाने के हमारे संकट को कई-कई गुना बढ़ाकर उसे असंभव बना दिया है, क्योंकि न तो चेतन की भाषा को अवचेतन समझ पा रहा है, और न अवचेतन की भाषा (जो संकेतों में, कोड में, स्वप्न के दृश्यों में होते हैं) को चेतन डीकोड कर पा रहा है. भाषा की इस खाई ने 'इनोवेशन' की हमारी सारी संभावनाओं की भ्रूण-हत्या कर दी है.
ज़ाहिर है, ट्रंप की आज की आवाज़ में 'विश्व-विजेता' के अहंकार की हुंकार सुनाई दे रही है. सिकंदर को खुद की अवहेलना कतई स्वीकार नहीं थी, जबकि वह दूसरों की अवहेलना करने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था... सो, अमेरिका आज का सिकंदर है. इसलिए लग रहा है कि 'विश्व-राष्ट्र' के दिन अब पूरे होने वाले ही हैं. यदि ट्रंप जीते, तो फिर इस जीत को इसके ताबूत की अंतिम कील मान लिया जाना चाहिए.
ऐसा लगता है कि निश्चित रूप से गोपीचन्द और पीवी सिंधु की गुरु-शिष्य की यह जोड़ी अब खेल जगत में नए प्रतिमान स्थापित करेगी. इसके लिए गुरु एवं शिष्य; इन दोनों की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम ही होगी, क्योंकि उनकी यह सफलता केवल खेलों की सफलता की ही राह नहीं दिखाती है, बल्कि जिन्दगी की भी सफलता की राह दिखाती है.
यदि मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला ने अपने 16 साल से जारी भूख हड़ताल को खत्म करने की तारीख को पांच दिन आगे बढ़ा दिया होता, तो देश की स्वंत्रता दिवस के साथ उसका एक सुखद संयोग बैठ सकता था. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो निश्चित रूप से उसके पीछे कोई सोचा-समझा विचार जरूर होगा.
अपने अंदर झांकने के लिए जो आंखें चाहिए, वे हैं - समर्पण की आंखें, सरलता, सहजता और आंतरिक संतुलन की आंखें. क्या केजरीवाल जी ने अपने पास इनमें से एक भी आंख होने को कोई प्रमाण अभी तक लोगों को दिया है?
नसीरुद्दीन शाह ने हिन्दुस्तानी सिल्वर स्क्रीन के पहले सुपर स्टार के बारे में कुछ नकारात्मक टिप्पणी करके दरअसल कला, कलाकार और समाज के बारे में एक बहस को जन्म दिया है। यह विषय वैसे तो काफी पुराना हो चुका है, लेकिन विषय ऐसा है, जो समकालीनता के संदर्भ में हमेशा विचार किये जाने की मांग करता रहता है।
मैंने जिन चार घटनाओं का ज़िक्र किया है, ऊपर से देखने पर तो ये चारों अलग-अलग दिखाई देती हैं, लेकिन ध्यान से देखने पर इनके बीच एक बहुत मजबूत और स्पष्ट धागा दिखाई देने लगता है... क्या यह सच है...? आइए, यहां इनकी गहराई में दुबके इस सच की तलाश करने की कोशिश करते हैं... इसमें छिपे सच ही इसके फरमान हैं...