2015 में हमारा साथ छोड़ गईं ये हस्तियां, जिनसे भारत को मिली बड़ी सीख

2015 में हमारा साथ छोड़ गईं ये हस्तियां, जिनसे भारत को मिली बड़ी सीख

नई दिल्ली:

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सहित इस साल हमारा साथ छोड़कर गईं हस्तियों ने अपने जीवन से हमें ऐसी सीखें दी हैं जो हमारे देश के भविष्य के लिए अनमोल रहेंगी। डॉ. कलाम ने कहा था कि बुराई खत्म करो और बड़ा सोचो छोटी सोच अपराध है। वहीं, आरके लक्ष्मण हमें यह सिखा गए कि आवाज उठाइए, लेकिन जरूरी नहीं कि उसके लिए आपको शोर मचाना है। इसका मतलब साफ है कि किसी भी काम को शांतिपूवर्क तरीके से भी किया जा सकता है।

आइए, डालते हैं उन हस्तियों पर एक नजर जिन्होंने अपने जीवन से हमें सीखें दी...
 

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (1931-2015)
 
कलाम अपनी लगन, कड़ी मेहनत से आगे बढ़ते गए। जीवन में अभाव के बावजूद वे किस तरह राष्ट्रपति के पद तक पहुंचे ये बात हम सभी को प्रेरणा देती है। उनकी शालीनता, सादगी और सौम्यता हर एक का दिल जीत लेती थी। उनके जीवन दर्शन ने भारत के युवाओं को एक नई प्रेरणा दी। लाखों लोगों के वह रोल मॉडल हैं। कलाम कहते थे कि जो लोग जिम्मेदार, सरल, ईमानदार एवं मेहनती होते हैं, उन्हे ईश्वर द्वारा विशेष सम्मान मिलता है। क्योंकि वे इस धरती पर उसकी श्रेष्ठ रचना हैं। किसी के जीवन में उजाला लाओ। दूसरों का आशीर्वाद प्राप्त करो, माता-पिता की सेवा करो, बड़ों तथा शिक्षकों का आदर करो, और अपने देश से प्रेम करो। इनके बिना जीवन अर्थहीन है।
 
आरके लक्ष्मण (1921-2015)
 
आरके लक्ष्मण की बचपन से ही चित्रकला में रुचि थी। 55 साल तक आम आदमी को आकार देने वाले मशहूर कार्टूनिस्ट ने 94 साल की उम्र में अंतिम सांस ली। वे कहते थे कि आवाज उठाइए, लेकिन जरूरी नहीं कि आप उसके लिए शोर मचाएं। उन्होंने हर नेता के कार्टून बनाए। इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के भी। वह कहते थे कि मैं अपनी जगह सही हूं, इसलिए मैं डरता नहीं हूं।
 
चार्ल्स कोरिया (1930-2015)

पदम पुरस्कारों से अलंकृत चार्ल्स कोरिया ने स्वतंत्रता के बाद भारत की वास्तुकला को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई और कई बेहद उत्कृष्ट संरचनाएं डिजाइन कीं। अहमदाबाद में महात्मा गांधी मेमोरियल, जयपुर का जवाहर कला केंद्र, कनाडा का इस्माइली सेंटर, मध्य प्रदेश में विधान भवन और भोपाल का भारत भवन की उत्कृष्ट संरचनाएं कोरिया के हुनर का ही नमूना हैं। चार्ल्स का तय सिद्धांत था कि आसमान उनकी इमारत के तमाम हिस्सों को देख सके।
 

साधना शिवदासानी (1941-2015)
 
साधना अपने माता पिता की एकमात्र संतान थीं और 1947 में देश के बंटवारे के बाद उनका परिवार कराची छोड़कर मुंबई आ गया। साधना का नाम उनके पिता मे अपनी पसंदीदा अभिनेत्री साधना बोस के नाम पर रखा था। उनकी मां ने उन्हें आठ वर्ष की उम्र तक घर पर ही पढ़ाया था। मुल्क का बंटवारा भी साधना की अभिनय यात्रा को नहीं तोड़ सका।
 
अरुणा शानबाग(1948-2015)
 
अरुणा शानबाग साहस का ऐसा प्रतीक बन चुकी हैं जिसे हम और आप सहसा एक आह के साथ याद करते हैं। पूरे 42 साल तक अरुणा उस सजा के दर्द सहती रहीं जिसमें उनकी कोई गलती नहीं थी। मौत तो 27 नवंबर 1973 को ही हो गई थी, जिस रात दुराचार के बाद वे कोमा में चली गई थीं। हालांकि, सांसें 42 साल बाद थमीं। 68वें जन्मदिन से महज 13 दिन पहले। अरुणा मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में नर्स थीं। यहीं के वार्डब्वॉय ने उनसे दुष्कर्म किया था। यही नहीं, उनका गला कुत्ता बांधने वाली चेन से दबा दिया था।
 
ब्रजमोहन मुंजाल (1923-2015)

हीरो ग्रुप के संस्थापक ब्रजमोहन और उनके भाई ओपी मुंजाल। दोनों इसी साल चल बसे। दुनिया को दो पहियों पर घुमाने वाले मुंजाल भाई बंटवारे के वक्त साइकिल के कुछ पुर्जे लेकर पाकिस्तान से पैदल आए थे। मुंजाल की कहानी बड़े सपनों के सच होने और कभी न हार मानने के जज्बे की सीख देती है।
 

सईद जाफरी (1929-2015)
 
शतरंज के खिलाड़ी, गांधी जैसी फिल्मों से पहचान बनाने वाले सईद जाफरी हमेशा याद रहेंगे। वे कला और विज्ञान के क्षेत्र में ब्रिटेन के सबसे बड़े सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एंपायर’ से सम्मानित पहले भारतीय थे। जाफरी की पहचान विश्व रंगमंच में एक ऐसे भारतीय चेहरे के रूप में थी जो मंजा हुआ कलाकार होने के साथ ही कला के विभिन्न पक्षों का जानकार भी था।
 
नेकचंद (1924-2015)
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नेकचंद ने लोगों द्वारा फेंके जाने वाले कचरे से कलात्मक कृतियां बनाने की कला ईजाद की और उत्तरी चंडीगढ़ के वन क्षेत्र में चुपचाप अपनी प्रयोगशाला बनाई, ताकि वह अपनी कृतियों को आकार दे सकें। 1970 के दशक के मध्य में नेकचंद की कृतियों को पहचाना गया और इसे रॉक गार्डन का नाम दिया गया। इस उद्यान का आधिकारिक रूप से अक्टूबर 1976 में उद्घाटन किया गया। नेकचंद का जन्म शकरगढ़ तहसील के गुरदासपुर गांव में हुआ था, जो इलाका अब पाकिस्तान में आता है। बंटवारे में गांव से दूर होने का दर्द वे कभी नहीं भूले और यही दर्द कला में बदल गया।