नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो).
लखनऊ: पिछले 2012 के विधानसभा चुनाव में राज्य की 403 सीटों में से बीजेपी को 47 सीटें मिली थीं. इस चुनाव में बीजेपी तीसरे स्थान पर रही थी. लेकिन उसके दो साल के बाद ही जब लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने अपना चुनावी अभियान शुरू किया तो उस लहर में यूपी में बीजेपी 337 विधानसभा सीटों पर आगे रही. इसके विपरीत 2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के नेतृत्व में 226 सीटें जीतने वाली सपा केवल 42 विधानसभा सीटों पर ही अपनी बढ़त बनाए रख सकी.
यूपी के चुनाव को जीतने के लिए यानी स्पष्ट बहुमत हासिल करने के लिए किसी पार्टी को 202 सीटों (कुल 403 में से) की दरकार है. स्पष्ट है कि इसके लिए करीब 35 प्रतिशत वोट शेयर चाहिए. इस लिहाज से यदि पिछले लोकसभा चुनावों का विश्लेषण किया जाए तो उसमें 42 सीटों पर बढ़त हासिल करने वाली सपा के हिस्से में 22 प्रतिशत वोट शेयर आता है. वहीं दूसरी तरफ 337 सीटों पर बढ़त हासिल करने वाली बीजेपी के हिस्से में 43 प्रतिशत वोट शेयर देखने को मिलता है. जबकि 2012 में यह हिस्सा महज 15 प्रतिशत था.
इस लिहाज से यदि आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो बीजेपी को 2014 की 'मोदी लहर' के नए वोटरों को साथ रखना होगा. यदि ऐसा नहीं होता है तो वह अपेक्षित निर्णायक 35 प्रतिशत वोट शेयर के मार्क से फिर नीचे आ सकती है.
लोकसभा चुनावों में बीजेपी के पाले में जाट, गैर-जाटव दलित और गैर-यादव ओबीसी आए. परंपरागत रूप से मायावती की बीएसपी को वोट करने वाले जाटवों और सपा को समर्थन करने वाले यादवों का एक हिस्सा भी बीजेपी के खाते में आया.
लेकिन लोकसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी में बीजेपी को समर्थन देने वाला जाट वोटबैंक नोटबंदी से नाराज है और विश्लेषकों ने अजित सिंह की रालोद की तरफ इसके फिर से जाने के कयास लगाए थे. लेकिन बीजेपी को 2014 की तुलना में कुछ अतिरिक्त अगड़ी जातियों का समर्थन मिलने की उम्मीद है. इसके पीछे यह वजह मानी जा रही है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन के मुस्लिम-यादव तबके की तरफ अधिक केंद्रित होने से अगड़ी जातियों का अतिरिक्त तबका बीजेपी के खाते में जा सकता है.
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