
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
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सबसे पहला कारण है कि नीतीश कुमार फ़िलहाल प्रशांत किशोर और पवन वर्मा के विरोध को गंभीरता से नहीं ले रहे क्योंकि उनका साफ़ मानना है कि ये ज़मीन के नेता नहीं बल्कि बुद्धिजीवी नेताओं में से एक हैं. जो पार्टी में पद से उनकी पहचान बनी है ना कि उनसे पार्टी की. कुछ नीतीश समर्थक नेता व्यंग्य में ये भी कह रहे हैं कि ये लोग पार्टी के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर शाखा के नेता हैं जिन्हें केवल मीडिया गंभीरता से लेती है.
नीतीश इस मुद्दे पर पुनर्विचार नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने निर्णय लेने के पहले ही ये मन बना लिया था कि जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उनके नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है तो इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी स्टैंड लेने से मीडिया में वो हीरो तो बन जाते लेकिन भाजपा के साथ संबंधों में खटास आ सकती थी, जो जोखिम फ़िलहाल मोल लेना नहीं चाहते.
नीतीश ने फ़िलहाल अपने वोटर ख़ासकर जो अतिपिछड़ी समुदाय से आते हैं और महादलित वर्ग, इन दोनों वोटरों को एकजुट रखने के लिए जानबूझकर इस बिल पर भाजपा का समर्थन किया है. उन्हें मालूम है कि इन दोनों वर्गों के वोटरों में भगवा के प्रति काफ़ी रुझान है इसलिए वो कोई अनायास कन्फ्यूजन उनके बीच नहीं पैदा करना चाहते.
जब नीतीश कुमार ने धारा 370 और ट्रिपल तलाक़ का विरोध किया था तब ख़ासकर पहले मुद्दे पर भाजपा ने उन्हें विश्वास में नहीं लिया था लेकिन इस बार उन्हें पिछले कई दिनों से सब कुछ की जानकारी थी.
धारा 370 के मुद्दे पर अपने सिद्धान्तों के कारण नीतीश ने विरोध तो कर दिया और वोटिंग में अनुपस्थित रहे लेकिन उनकी अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का फ़ीडबैक इसके विपरीत रहा था. इसलिए उन्होंने आनन फ़ानन में इसका समर्थन भी किया. नीतीश वो ग़लती फिर नहीं दोहराना चाहते थे.
नीतीश वापस लालू यादव के साथ राजनीतिक तालमेल नहीं करना चाहते हैं क्योंकि बिहार भाजपा के साथ कामकाज में उन्हें अपने प्रभाव और हैसियत को लेकर न कोई चिंता होती है और न तनाव होता है. जैसा वो चाहते हैं वैसी सरकार चलती है. इसलिए राज्यसभा में इस बिल पर वो सरकार के पक्ष में ही वोटिंग करेंगे.
नीतीश ने मुस्लिम वोट का मोह त्याग दिया है. उन्हें इस बात का विश्वास और भरोसा है कि मुस्लिम मतदाता अगर लालू यादव के साथ उनके ख़िलाफ़ आक्रामक वोटिंग भी करे तो 200 का आंकड़ा पार करना मुश्किल नहीं होगा.
इसके अलावा नीतीश को भरोसा है कि हर मुद्दे पर भाजपा के साथ अलग-अलग राय रखने के कारण ऊंची जातियों के एक वर्ग में जो नाराजगी है वो ख़त्म होगी.
नीतीश कुमार ने इस समर्थन के फ़ैसले के साथ उतर पूर्व के राज्यों में जो उनकी एक पहचान बनी थी, उसे भूल जाने का वैसा ही त्याग किया है जैसे लालू यादव से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वकांक्षा का त्याग किया था.
नीतीश 2020 में बिहार का फिर मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं इसलिए अब वो हर विवादास्पद मुद्दे पर भाजपा का साथ नहीं छोड़ेंगे जिससे दोनों दलों के वोटर में कोई कन्फ़्यूज़न ना हो.