प्राइम टाइम इंट्रो : मोदी सरकार के तीन साल का सरकारोत्‍सव

दिल्ली में विपक्ष का दिखना भी इस तरह से दिखना लग रहा है जैसे भाजपा शासित राज्यों ने अपने विज्ञापन दिल्ली के अखबारों में भेज दिये हों.

प्राइम टाइम इंट्रो : मोदी सरकार के तीन साल का सरकारोत्‍सव

आज सरकारोत्सव है. सरकारोत्सव उस उत्सव को कहते हैं कि जब सरकार अपने एक साल पूरे करती है. सरकारोत्सव मनाने की परंपरा शायद अमेरिका में शुरू हुई थी जब राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने अपनी सरकार के 100 दिन पूरे होने पर जश्न मनाया था. रूजवेल्ट 1932 में राष्ट्रपति बने थे. भारत में भी यह परंपरा चली आई लेकिन 100 दिन के बाद सरकारें 200 दिन नहीं मनाती हैं, वो सीधा सालगिरह मनाती हैं. सरकारोत्सव मनाने के लिए अख़बारों में फुल पेज के विज्ञापन छपते हैं, उन विज्ञापनों में बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं, घोषणाएं होती हैं, उद्घाटन होते हैं और नए नए स्लोगन होते हैं. सुबह सुबह इन छपी हुई उपलब्धियों को सारे मंत्री, नेता, महासचिव और टीवी में आने वाले दलीय प्रवक्ता ट्वीट करते हैं.

इतना कुछ हुआ होता है कि समझ नहीं आता कि क्या क्या नहीं हुआ होगा. 26 मई 2014, यही वो दिन है जब प्रधानमंत्री मोदी ने पद व गोपनीयता की शपथ ली थी लेकिन इस दिन सरकार अपनी सालगिरह मनाती है. यह तीसरा साल है. दो साल तक सेंटर की सरकार अकेले ही सरकारोत्सव मना रही थी लेकिन इस बार पैटर्न चेंज हुआ है. राज्य सरकारों ने दिल्ली के अख़बारों में विज्ञापन देकर सरकारोत्सव की बधाइयां भेजी हैं और बलाइयां ली हैं. राज्य सरकारें भी अपनी सालगिरह मनाती हैं लेकिन अब उन्हें सेंटर की भी सालगिरह का भार खुशी खुशी उठा रही हैं.

सवाल यह है कि जब दिल्ली का मीडिया झारखंड को एजेंसी के भरोसे कवर करता है, न्यूज़ चैनल तो झारखंड को स्पीड न्यूज़ में ही निपटा देते हैं तो झारखंड के मुख्यमंत्री उस राज्य की जनता के पैसे से मगर मुख्यमंत्री के फैसले से दिल्ली के अख़बारों में विज्ञापन छापना कितना उचित है. स्लोगन अंग्रेज़ी में है, on way to new india अर्थात नए भारत के रास्ते पर है झारखंड. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का विज्ञापन भी अच्छा है मगर संकोची है. सरकार सहमते हुए नीचे लिखा है कि राजा भोज सेतु का उद्घाटन होगा, लगता है कि इस बात का ख़्याल रखा गया है कि इस पुल के उद्घाटन की छाया कहीं असम में देश के सबसे बड़े पुल का उद्घाटन पर न पड़ जाए, जहां प्रधानमंत्री गए हुए हैं. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने विज्ञापनों में सेंटर की सरकार की उपलब्धियां गिनाई हैं मगर उसी पैसे में अपनी सरकार की कामयाबी गिनाना नहीं भूली हैं. उन्होंने आधी जगह मोदी जी को दी है, आधी जगह अपनी सरकार को दी है. इन तीनों विज्ञापनों में वसुंधरा जी ही ज़्यादा कॉन्‍फिडेंट लग रही हैं, अगर दोनों मुख्यमंत्री मेरी बात का बुरा न मानें तो. यूपी के योगी जी की सरकार में भी आधापन और सन्यासी भाव दिखता है. यूपी का विज्ञापन भी आधे पन्ने का है. योगी जी को पता है कि वे इन तीनों मुख्यमंत्रियों पर भारी पड़ सकते हैं तो विज्ञापन में क्या जगह घेरना.

क्या भारत का मीडिया समाज दिल्ली में रहता है, जिसके अखबारों में राज्यों की सरकारें विज्ञापन देती रहती हैं. केरल की सरकार के विज्ञापन इस तरह से आते हैं जैसे सीपीएम के सारे वोटर यहीं रहते हों. अब तो उड़ीसा सरकार के विज्ञापन भी आने लगे हैं. देश दिल्ली में न दिखे तो दिखता ही नहीं होगा शायद. एनिवे, हमने सोचा कि इस ओकेशन पर आलोचनात्मक बदलाव करते हैं, ये वो बदलाव है जो नकारात्मक और सकारात्मक बदलाव से काफी अलग है. अब देखिये साल भर लोग पूछते रहते हैं कि भारत में विपक्ष नहीं है. दिल्ली में 16 विपक्षी पार्टियों के मुख्यमंत्री, नेता जमा हुए.

दिल्ली में विपक्ष का दिखना भी इस तरह से दिखना लग रहा है जैसे भाजपा शासित राज्यों ने अपने विज्ञापन दिल्ली के अखबारों में भेज दिये हों. फिर भी विपक्ष को खोजने वाले देख सकते हैं कि नेताओं की खास कमी नहीं है, असल बात यह है कि आज का मीडिया विपक्ष विरोधी मीडिया है. विपक्ष को जगह कम देता है और फिर सवाल भी करता है कि विपक्ष कहां है. संयोग ही है कि जिस दिन विपक्ष के इतने नेता दिल्ली आए, उसी दिन प्रधानंमत्री दिल्ली से दूर चले गए. कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्ष को दिल्ली आता देख, प्रधानमंत्री असम चले गए या प्रधानमंत्री को असम जाता देख, विपक्ष दिल्ली में जमा हो गया. वैसे राजनीति को रहस्य और रचना की तरह देखिये, आपको इसके किस्से रोमांचित करेंगे.

आज सरकारोत्सव है. केंद्र सरकार के कई मंत्री अलग-अलग दिशाओं में सरकार की कामयाबी का संदेश लेकर जा रहे हैं. इस मौके पर मंत्रियों ने तरह तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया है. कई कार्यक्रमों की फ्रेंचाइज़ी जैसी खुल गई है. जैसे शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू राजस्थान के एक गांव में ग्राम पंचायत स्तर पर चर्चा की है. जो कि चाय पर चर्चा और खाट पर चर्चा से काफी अलग है. खाट पर चर्चा की याद आते ही कुछ याद नहीं आया. इसी मौके पर मैं विजय गोयल जी का धन्यवाद करना चाहता हूं. उन्होंने एक नए प्रकार के युवा की खोज की है.

स्लम युवा. स्लम युवा वो युवा है जो स्लम में रहता है. इससे पता चलता है कि अभी तक जो युवा थे साफ नहीं था कि वे स्लम युवा हैं या पॉश युवा हैं. ट्वीटर पर जारी पोस्टर के विश्लेषण से लगता है कि युवाओं की पहचान उम्र के अलावा वे कहां बसते हैं, उन बस्तियों के आधार पर भी हो सकती है. इस कार्यक्रम का नाम है स्लम युवा दौड़. अडॉप्ट अ स्लम यानी गोद लीजिए दिल्ली का एक स्लम. इससे यह साफ नहीं है कि दिल्ली के एक स्लम को कोई गोद कैसे ले सकता है, सांसद गोद लेगा, विधायक गोद लेगा या ये युवा ही अपने स्लम को गोद ले लेंगे जिसकी गोद में ये पलते बढ़ते हैं. बहरहाल नेहरू युवा केंद्र के तत्वाधान में स्लम युवाओं की दौड़ हुई, भीड़ काफी थी, टी शर्ट पर भी लिखा था स्लम युवा दौड़. सब कुछ हिन्दी में था सिर्फ स्लम अंग्रेज़ी में दिखा. झुग्गी लिख सकते थे. इन तस्वीरों से पता चलता है कि हमारे स्लम युवा भी दक्षिण दिल्ली की पॉश कालोनियों में पलने वाले युवाओं जैसे ही दिखते हैं. फिर भी ये नया आइडिया था और अच्छा आइडिया लगा, कुछ कमी होगी तो विजय गोयल जी उदार मंत्री हैं, सुधार कर लेंगे.

स्लम गोद लेने की प्रेरणा शायद आदर्श ग्राम योजना से ली गई होगी. अक्टूबर 2014 में इसका एलान हुआ था कि हर सांसद एक गांव गोद लेगा और आदर्श बनाएगा. भाजपा के 281 सांसद हैं, उस हिसाब से तीन साल बाद 282 गांवों को आदर्श रूप में पेश किया ही जा सकता था. लगता है अब उस पर कोई बात नहीं करना चाहता है. बट एनिवे. मूल बात से शिफ्ट होना हो तो अंग्रेज़ी में बट एनिवे का इस्तमाल करते हैं. क्या आपने रेलवे स्टेशन पर कुर्सियां देखी हैं. कितनी कम होती हैं, जितने लोग बैठे नहीं होते हैं उससे ज्यादा लोग बैठे हुए को घूरते रहते हैं कि कब उठें कि हम बैठें. समाचार एजेंसी पीटीआई ने जब ये तस्वीर जारी की कि सांसद हेमामालिनी ने मथुरा रेलवे स्टेशन पर कुर्सियों का उद्घाटन किया है. तस्वीर देखकर लगा कि ऐसा उद्घाटन होता तो होगा मगर देखा पहली बार है. लेकिन जब हमने पता किया तो हेमा मालिनी ने अच्छा काम किया है. मथुरा रेलवे स्टेशन इतना व्यस्त स्टेशन है. किसी का ध्यान ही नहीं गया कि यात्रियों के बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए. खंभों के किनारे गोल गोल बैठने का सिस्टम था लेकिन हेमा मालिनी ने इसे बदल दिया है. उन्होंने वहां पर अपने सांसद निधि से 100 बेंच लगवा दी है. प्लेटफार्म नंबर वन पर 40 बेंच, प्लेटफार्म नंबर दो और तीन पर 40 बेंच और बाकी पर बीस बेंच लगा दी है. अभी तक हम समझते थे कि रेलवे ही स्टेशन पर बेंच की व्यवस्था करती होगी, मगर सांसद निधि का यह अच्छा इस्तेमाल है.

सरकार अपनी उलब्धियों के दावों से लबालब है, विपक्ष कहता है कि कुछ हुआ ही नहीं. कमल निशान वाली भाजपा के नेता एक तरफ उपलब्धियों को लेकर ट्वीटर से लेकर बरगद के नीचे खड़े नज़र आए तो कांग्रेस की तरफ से कमल नाम वाले कमलनाथ ने गिनाना शुरू कर दिया है कि 35 किसान रोज़ आत्म हत्या कर रहे हैं. 7 साल में रोज़गार अपने न्यूनतम स्तर पर है.

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गुरुवार को राजधानी दिल्ली में आयोजित रामनाथ गोयनका व्याख्यान माला में फेक न्यूज़ के बारे में चिंता जताई. कहा कि मीडिया का काम है सरकार से सवाल करना. मीडिया अपना मूल काम नहीं कर रहा है तो लोग खुश हो गए हैं कि राष्ट्रपति ने इशारों इशारों में प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर कटाक्ष कर दिया है. मगर सरकारोत्सव के रोज़ राष्ट्रपति भवन में जब मन की बात पर आई एक किताब के विमोचन में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के संचार कौशल कम्युनिकेशन स्किल की तारीफ भी करने लगे. कुछ दिन पहले राष्ट्रपति ने यह भी कहा था कि भारतीय इतिहास की इंदिरा गांधी सबसे स्वीकृत प्रधानमंत्री हैं. प्रधानमंत्री मोदी के बारे में कह रहे हैं कि वे एक प्रभावी कम्युनिकेटर हैं और उनकी तुलना पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से भी की जा सकती है. इसी कार्यक्रम के दौरान रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया कि पिछले कुछ साल से रेडियो पिछड़ता जा रहा था लेकिन पीएम मोदी ने एक माध्यम के रूप में रेडियो की ताकत को पहचाना.

ताकत पहचानने की बात सही है लेकिन पिछले कुछ साल से रेडियो पिछड़ता जा रहा था इस बात को लेकर अलग अलग राय हो सकती है. इसमें कोई दो राय नहीं कि मन की बात एक अनोखा कार्यक्रम है. यह पहला रेडियो कार्यक्रम है जो उसी समय टीवी पर भी आता है. टीवी पर ही नहीं, दिल्ली में ही यह सारे प्राइवेट एफएम चैनलों पर भी आता है. जब भी मन की बात की घोषणा होती है उस दौरान किसी भी रेडियो चैनल पर इसके अलावा कोई कार्यक्रम नहीं आता है. मन की बात का प्रसारण दूरदर्शन पर भी होता है. इसलिए मन की बात के असर के विश्लेषण में सरकारी टीवी, प्राइवेट चैनल, प्राइवेट एफएम चैनल को भी शामिल करना चाहिए. क्या किसी और के कार्यक्रम को एफएम चैनल अपना कार्यक्रम बंद कर सुना सकते हैं. हां ये कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने टीवी को मन की बात के दौरान रेडियो में बदल दिया है. रेडियो के विकास के बारे में फिक्की केपीएमजी अपनी सालाना रिपोर्ट में जानकारी देती है. 2013 की फिक्की केपीएमजी रिपोर्ट ने कहा था कि 2012 से 2017 के बीच रेडियो 16.6 प्रतिशत की ग्रोथ रेट से बढ़ेगा. 2017 की फिक्की केपीएमजी रिपोर्ट में कहा गया कि 2016 में रेडियो ने 14.5 प्रतिशत के हिसाब से ही ग्रोथ रेट हासिल की. यानी अनुमान से करीब दो प्रतिशत विकास दर कम रही. इस वक्त भारत के 86 शहरों में 243 निजी रेडियो चैनल चल रहे हैं. सन 2000 में रेडियो सेक्टर का निजीकरण हुआ था, कई सौ चैनल नीलाम हुए हैं मगर ऑपरेशन में 243 ही हैं. फिक्की केपीएमजी की रिपोर्ट कहती है कि तीसरे चरण की नीलामी को लेकर खासा उत्साह नहीं दिखा है.

रेडियो भी कई प्रकार के हैं. डिजिटल रेडियो, कम्युनिटी रेडियो. इनकी प्रगति भी देखनी चाहिए. अब ज़रा राजस्व का एंगल देख लेते हैं. टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (टीआरएआई) की 15 मार्च 2016 की रिपोर्ट कहती है कि 2014 में रेडियो सेक्टर का राजस्व 2013 की तुलना में 18 प्रतिशत बढ़ा था, 2019 तक इसके राजस्व में 18 प्रतिशत की ही वृद्धि होने की उम्मीद है.

मन की बात से कमाई और विज्ञापन से हुए खर्चे को लेकर हमारे पास कोई स्वतंत्र जानकारी नहीं है. मगर इससे संबंधित दो खबरें हमें इंटरनेट के आर्काइव में मिली हैं. 9 दिसंबर 2016 के लाइव मिंट में छपा है कि लोकसभा में मंत्री राज्यवर्धन राठौर ने लिखित जवाब दिया है कि 2015-16 में मन की बात से जो राजस्व आया है वो 4 करोड़ 78 लाख है. 5 अगस्त 2015 के इंडियन एक्सप्रेस में आरटीआई के हवाले से एक ख़बर छपी है कि सिर्फ अख़बारों में मन की बात के विज्ञापन पर साढ़े आठ करोड़ रुपये खर्च किये हैं. आपने देखा कि राजस्व आया 4 करोड़ 78 लाख, विज्ञापन पर खर्च हुआ करीब दुगना साढ़े आठ करोड़. लाइव मिंट ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि मन की बात को ज़्यादा विज्ञापन सरकारी विज्ञापनों से आता है.

लोकसभा में लिखित जवाब देते हुए मंत्री राज्यवर्धन राठौड़ ने बताया था कि ऑल इंडिया रेडियो का राजस्व 2014-15 में 435.1 करोड़ था. 2015-16 में 447.6 करोड़ था. तो राजस्व के हिसाब से भी देखिये तो राजस्व में मात्र 12 करोड़ 66 लाख की वृद्धि हुई है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि रेडियो का विकास हुआ है. हुआ है लेकिन मन की बात से कितना हुआ है कहना मुश्किल है. हां मन की बात का असर हुआ है. इससे प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने भी मन की बात जैसा कार्यक्रम करते हैं. विपक्ष के नेताओं में कांग्रेस के संदीप दीक्षित ने मन की बात के मुकाबले काम की बात शुरू की है. मगर संदीप दीक्षित का कार्यक्रम रेडियो का नहीं है, वीडियो का है. इस वीडियो को बहुत ही कम लोग देखते हैं. लोग क्यों नहीं देखते हैं इसे आप भी देख लीजिए.

रेडियो पर हमारी रिसर्च अंतिम नहीं हो सकती. जो पब्लिक में है उसी के आधार पर हमने प्रस्तुत किया है. सरकारोत्सव के मौके पर रेडियो पर रिसर्च करने का मौका मिला इसके लिए हम जेटली जी के उस बयान का स्वागत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछले कुछ साल से रेडियो पिछड़ता जा रहा था. सरकारोत्सव के मौके पर सर्वे भी अनेक प्रकार के होते हैं. इन सर्वे में सरकार के लिए काफी अच्छी ख़बर है. ज़्यादातर लोग संतुष्ट हैं. खुश हैं. इन सर्वे को लेकर भी कुछ मस्ती की जा सकती है. दैनिक भास्कर का सर्वे कहता है कि 52 फीसदी लोग नोटबंदी के तरीके से नाराज़ हैं, 83 फीसदी लोग सर्जिकल स्ट्राइक से खुश हैं. अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के सर्वे में 11 प्रतिशत लोगों ने सर्जिकल स्ट्राइक को महत्वपूर्ण फैसला माना है, 48 फीसदी लोगों ने नोटबंदी के फैसले को महत्वपूर्ण माना है.

अब हिन्दी और अंग्रेज़ी के अखबार के सर्वे को देखिये. कितना अंतर है. हिन्दी की जनता 83 फीसदी सर्जिकल स्ट्राइक से खुश है. अंग्रेज़ी की जनता सर्जिकल स्ट्राइक से ज्यादा नोटबंदी को महत्वपूर्ण फैसला मानती है. जबकि हिन्दी की जनता में 52 फीसदी नोटबंदी से नाराज़ हैं. तो सर्वे में भी काफी मज़ेदार मसाला रहता है. अब देखिये भास्कर के अनुसार 83 प्रतिशत जनता सर्जिकल स्ट्राइक से खुश है. बीबीसी को भी अपने सर्वे में 83 प्रतिशत जनता मिली है जो सर्जिकल स्ट्राइक से नहीं, फेक न्यूज़ से परेशान है. सर्वे के अनुसार 83 प्रतिशत न्यूज़ देखने वाले भारत के दर्शक फेक न्यूज़ को लेकर चिंतित हैं. इनमें से 72 प्रतिशत को पता लगाने में मुश्किल होती है कि कौन सी ख़बर सही है कौन सी मनगढ़ंत ख़बर है.

ये कौन लोग हैं जो सर्वे में शामिल होते हैं. ये सवाल पूछने वाले भी बहुत मिल जाते हैं. सालगिरह का मौका दावे प्रतिदावे के कारण तनाव का हो जाता है, मेरा प्रयास है कि कुछ हल्का हो जाए. अब देखिये ट्रंप साहब का कोई लेना देना नहीं है मगर उनके तीन वीडियो के ज़रिये हम पुरूष मानसिकता के आंगन में झांक सकते हैं.

इन दो वीडियो में देखिये ट्रंप अपनी पत्नी का हाथ थामने का प्रयास करते हैं मगर जाने अनजाने में वो ट्रंप का हाथ झटक देती हैं. अब जब सैकड़ो कैमरे लगे हों तो राष्ट्रपति को बुरा तो लगा ही होगा, लेकिन जब मौका आया तो ट्रंप ने पत्नी के हाथ झटकने का बदला पुरुष नेताओं के कंधे को झटका देकर ले लिया. वे मंच पर पीछड़ रहे थे, बस धक्का दिया और सबके सामने आ गए.

जो भी हो, सरकार ने अपने तमाम दावों से मीडिया में चल रही भीड़ की मारपीट, सहारनपुर की हिंसा वगैरह जैसी ख़बरों को पीछे कर दिया है. पूरी मज़बूती के साथ कामयाबी के आंकड़े पब्लिक स्पेस में बयानों और विज्ञापनों के ज़रिये पहुंचाए जा रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने असम में कहा भी है कि यह पहले की जैसी सरकार नहीं है कि क्या हो रहा है, कहां हो रहा है, कुछ पता ही नहीं चलता था. जो बताने में इस सरकार का वाकई कोई मुकाबला नहीं है. बताने में भी और बतियाने में भी. लेकिन इस बीच भारत की आम जनता अलग अलग तरह के विमर्श का निर्माण कर रही होती है.

एक वीडियो आया जिसमें अलवर में सिख समुदाय के कुछ लोगों के साथ मारपीट हो रही है. यह वीडियो जब वायरल हुआ तो राजस्थान का अल्पसंख्यक आयोग हरकत में आ गया. इन सिख भाइयों का कहना है कि वे सेवादार हैं और लंगर के लिए अनाज इकट्ठा करने निकले थे. लोगों से मदद मांगी कि बचा लो मगर कोई नहीं आया. भीड़ आराम से इन्हें पीट कर भाग गई. पुलिस को इस घटना की सूचना गांव के सरपंच से मिली. पुलिस ने इस मामले में सेवादार पर भी शांति भंग करने का आरोप लगा दिया.

भीड़ पता नहीं कैसे बन जाती है जिसके शिकार हिन्दू भी हो जाते हैं, मुसलमान भी हो जाते हैं और सिख भी हो गए. इसलिए समस्या उस भीड़ के भीतर है, शायद इसमें शामिल होने वाले युवाओं की बेचैनियों को हम ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं. इस वीडियो को देखकर यह मत समझ लीजिएगा कि जनता सिखों के खिलाफ हो गई है. इस तरह के डिबेट तो टीवी पर भी नहीं हुए हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक ख़बर हमें एक और नज़रिया देती है.

अजय की यह ख़बर है कि हरियाणा के नौजवान सेना में नौकरी पाने के लिए नकली तरह से सिख बन जा रहे हैं. ऐसा कमाल किसी एक युवक ने नहीं बल्कि 51 युवकों ने किया है. सेना ने पिछले दो साल में ऐसे मामलों में 51 एफआईआर दर्ज कराई है. हरियाणा के कई जवानों ने खुद को जट सिख बताने की कोशिश की ताकि सेना की सिख रेजिमेंट ज्वाइन कर सके. बाद में पता चला कि वे सिख नहीं हैं.

यह ख़बर काफी कुछ कहती है. रोज़गार महत्वपूर्ण है, मज़हब नहीं. रोज़गार के लिए जब हम गांव शहर और देश छोड़ सकते हैं तो मज़हब को लेकर क्या कहा जा सकता है. इस बीच सरकार ने अपनी उलब्धियां खुद तो बताई ही हैं, मीडिया भी सरकार की कामयाबी से काफी प्रभावित लगता है. साकाल अखबार ने अपने एक पेज पर प्रधानमंत्री मोदी को बाहुबली के रूप में दिखाया है. कई टीवी चैनलों पर प्रधानमंत्री को बाहुबली रूप में दिखाया जा रहा है. अखबार ने प्रधानमंत्री को 5 में से साढ़े तीन अंक दिये हैं मगर सूंढ़ से चढ़ते हुए हाथी के मस्तक पर पांव रख देने की मुद्रा बताती है कि उन्होंने विजय प्राप्त कर ली है. हाथी को सामने से पकड़ लेना, वीरता के सर्वोच्च उदाहरणों में से एक है. मीडिया के जनमानस की कल्पना के प्रधानमंत्री अब बाहुबली भी हैं.

सरकार अपने दावे मज़बूती से रखती है. एक जगह से नहीं रखती बल्कि कई शहरों में अलग अलग तरीके से रखती है. विपक्ष अपने दावे एक प्रेस कांफ्रेस में रखने के बाद चला जाता है. कांग्रेस ने वीडियो आइटम तो बनाए हैं मगर सरकार के बनाए वीडियो आइटम भारी पड़ सकते हैं. आप सरकार का भी विडियो देखिये और कांग्रेस का भी, खुद फैसला कीजिए.

आपने देखा कि बीजेपी के इस वीडियो में एक बंदा है जो बॉक्सिंग कर रहा है यानी ताकत का प्रतीक है. वो हर पंच के साथ सरकार की कामयाबी को बताता है. इससे पता चलता है कि सरकार खुद को भी ताकतवर बलशाली रूप में पेश करना चाहती है. जैसे साकाल अखबार ने प्रधानमंत्री को बाहुबली के रूप में पेश किया है. ऐसा नहीं है कि सरकारी दावों को मीडिया में चुनौती नहीं मिल रही है बल्कि वे चुनौतियां प्रमुख जगह हासिल नहीं कर पाती हैं. बिजली को लेकर कितने दावे किये जाते हैं. यह सेक्टर सरकार का एक कामयाब सेक्टर माना जाता है. लेकिन इंडिया स्पेंड नाम की एक वेबसाइट के अनुसार बीजेपी सरकार दावा करती है कि दो साल में 13,523 गांवों का विद्युतीकरण कर दिया गया है.

2015 में बीजेपी सरकार ने 18,452 गांवों की पहचान की थी, इनमें से 73 फीसदी में बिजली पहुंच गई है. मगर सरकार के ही आंकड़े कहते हैं कि इनमें से मात्र 8 प्रतिशत गांवों का ही संपूर्ण विदयुतीकरण हुआ है यानी इन गांवों के सभी घरों में बिजली का कनेक्शन पहुंचा है. इंडिया स्पेंड की साइट पर कहा गया है कि 25 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के यहां अभी तक बिजली नहीं पहुंची है. एक गांव में अगर स्कूल, पंचायत कार्यालय और स्वास्थ्य केंद्रों के अलावा दस प्रतिशत घरों में बिजली पहुंचने पर मान लिया जाता है कि उस गांव का विद्युतीकरण हो गया. अगर किसी गांव के 90 फीसदी घरों में बिजली न हो तो भी उसे बिजली युक्त गांव मान लिया जाता है. हो सकता है कि अब सरकार की नीति हो कि सभी घरों को बिजली से जोड़ा जाए.

ये नीतिगत समीक्षा है, लेकिन गैस सिलेंडर बांटने में सरकार की कामयाबी की विपक्ष ने भी आलोचना नहीं की है. ज़ाहिर है कि आप मूल्यांकन सिर्फ आलोचना से नहीं कर सकते, सिर्फ दावों से नहीं कर सकते. आपको लगता है कि रोज़गार के सवाल, किसानों की आत्महत्या के सवाल से विपक्ष सरकार को घेरने में कामयाब रहेगा, सोचियेगा.


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