प्रधानमंत्री के इस अमेरिकी दौरे का अलगपन

प्रधानमंत्री के इस अमेरिकी दौरे का अलगपन

अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्‍त सत्र को संबोधित करते पीएम मोदी (फाइल फोटो)

प्रधानमंत्री के ताजा विदेशी दौरों की समीक्षा करने में मीडिया बड़ी उलझन में दिखा। वैसे तो दूसरे देशों से संबंध के मामले में सभी देशों के आम लोग एकमत से स्वार्थी हो जाते हैं। वे यही देखते हैं कि दूसरे देश से हमें क्या फायदा मिलने वाला है। पता नहीं किस काल में ऐसा होता होगा कि दूसरे देशों से संबंध बनाने या बढ़ाने के मामले में दो देश एक दूसरे के फायदे की बात सोचते होंगे। इतिहास तो यही बताता है कि हमेशा से ही अच्छी कूटनीति यही मानी जाती रही है कि कोई कितनी चतुराई से किसी देश से ज्यादा से ज्यादा लेकर आए और कम से कम देकर आए। आइए इसी नजरिए से देखें कि प्रधानमंत्री अमेरिका से क्या लेकर आए और क्या देकर आए।

वो जो भारतीय मीडिया के जरिए हमारे सामने आया
हमारे अपने मीडिया ने यही बताया है कि हम पनमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता को और पक्का करके आए हैं। दूसरा फायदा यह कि मिसाइल प्राद्योगिकी को विकसित देशों से पाने में जो अड़चनें थीं वह अमेरिकी दौरे में कम करके आए हैं। तीसरा यह कि अमेरिकी जनप्रतिनिधियों के सामने अपनी शान बढ़ाकर आए हैं। भारतीय मीडिया ने प्रधानमंत्री के दौरे के पहले जो एजेंडा प्रचारित किया था वह भी यही था सो दौरे के बाद यह धारणा बनना स्वाभाविक ही था कि अपने देश ने कमाल कर दिया। प्रधानमंत्री के वापस लौट आने के कम से कम दो दिन बाद तक तो यही स्थिति बनी हुई है।

और वो जो अमरिकी मीडिया में प्रचारित हुआ
सबकी तरह अमेरिकी मीडिया भी अपने देश के प्रति देशभक्ति क्यों नहीं दिखाएगा। खासतौर पर तब जब दुनिया के तमाम बड़े देशों की तरह अमेरिका भी मंदी की मार से दिन पर दुबला हुआ जा रहा हो और उनके सामने दूसरे देशों को अपना सामान बेचने का सबसे बड़ा लक्ष्य हो। अमेरिकी मीडिया ने अपने जागरूक पाठकों के लिए, अपने देश के हितों को सबसे ऊपर रखते हुए और तीन करोड़ भारतीय मूल के अमेरिकियों की स्वाभाविक प्रसन्नता के लिए भारतीय प्रधानमंत्री के दौरे को कमतर करके नहीं दिखाया। दौरे से एक हफ्ते पहले यानी 27 मई को और दौरे से ऐन पहले 5 जून के न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्टों को गौर से देखेंगे तो एक बात यह भी पाएंगे कि प्रधानमंत्री के पिछले 15 साल के इतिहास और सत्ता में आने के दो साल के काम काज का जिक भी इस अखबार ने किया था। ओबामा और मोदी की पारिवारिक पृष्ठभूमि और अल्पसंख्यक मामले में राजनीतिक सोच की भिन्नता तक का जिक्र अमेरिकी मीडिया में किस मकसद से आया होगा यह बात ऊंचे किस्म के राजनयिक ही बता पाएंगे।

सौदे का आकार सार्वजनिक नहीं किया गया इस बार
अमेरिका आधुनिक विश्व के सफलतम व्यापारी के रूप में सर्वमान्य है। इस समय भी उसका रुतबा दुनिया के सबसे मालदार देशों जैसा है। वह सामान भी वही बनाकर बेचता है जो ऊंची लागत और ऊंचे मुनाफे वाले यानी बेशकीमती होते हैं। और ज्यादातर वही सामान बनाता है जो विकासशील देशों को बेचे जा सकें। लिहाजा अमेरिकी मीडिया की नजरों में भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिकी दौरा एक ऐसे बड़े ग्राहक का दौरा समझा जा सकता है जिसके बारे में वह समझता है कि भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है। अमेरिकी मीडिया के रुख को गौर से देखें तो उसने तीन बातों को तवज्जो दी। एक भारत को एटमी बिजली घर जल्दी बेचे जा सकें। दूसरी यह कि मिसाइल प्रौद्योगिकी बेची जा सके। और तीसरी कि सौर ऊर्जा का आधुनिक सामान बेचा जा सके। रही बात इसकी कि इनसे संबंधित सौदों के आकार को इस बार सार्वजनिक नहीं किया गया। कहने को ये बातें रक्षा संबंधी गोपनीयता वाली कही जाती हैं। लेकिन इस सौदे के भारी भरकम आकार के कारण भी हो सकता है कि इसे सार्वजनिक करने से बचा गया हो।

तीनों मकसद किस रूप में प्रचारित हुए
मीडिया में जिक्र एटमी बिजली घरों के सौदे का ज्यादा नहीं हुआ। इस काम को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता के लिए भारत का समर्थन करने के नाम पर प्रचारित किया गया। उसी तरह मिसाइल प्रौद्योगिकी को बेचने का जिक्र नहीं हुआ बल्कि संबंधित व्यवस्था में भारत को शामिल करने में अमेरिकी समर्थन का हुआ। सौर ऊर्जा का सामान बेचने का जिक्र नहीं हुआ बल्कि इस बात को जलवायु संधि पर भारत की रजामंदी की दिशा में आगे बढ़ने का हुआ। धरती को ठंडा रखने के लिए स्वच्छ ऊर्जा या हरित ऊर्जा यानी सौर ऊर्जा को प्रोत्साहन के लिए भारत पर अच्छा खास दबाव है। हमारी दिक्कत यह है कि हम इस पर भारी भरकम खर्च की माली हैसियत में नहीं हैं।

अमेरिकी सांसदों गदगद होना
फौरन ही समझ में नहीं आया था कि अमेरिकी संसद में भारतीय प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान आठ बार देर तक ताली बजने का चक्कर क्या है। गौर से देखने से पता चला कि प्रधानमंत्री के भाषण में ये वे मौके थे जो संकेत देते थे कि भारत अमेरिका के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को राजी है। अमेरिकी जनप्रतिनिधि विश्व में इस भयावह मंदी के दौर में यह सुनकर गदगद क्यों नहीं होंगे कि तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला और 130 करोड़ आबादी वाला भारत आज मुश्किल समय में अमेरिका के साथ है, सिर्फ साथ ही नहीं है बल्कि अमेरिका का बेस्ट फ्रेंड है।

हम क्या ला सकते थे अमेरिका से
ये तो सबको भनक लगने देने की बात नहीं है कि हम खुद किस स्थिति में है। हालांकि इस मुगालते में रहने से भी अब कोई फायदा नहीं है कि किसी को पता नहीं है। मसलन न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारत की मौजूदा सरकार के वायदों और उस पर अमल की बात भी प्रधानमंत्री के इसी अमेरिकी दौरे के पहले लिखी थी। खैर कुछ भी हो, इस बार हम बराबरी के लेन देन की बात सोच सकते थे। मसलन मेक इन इंडिया के लिए सीधे ओबामा के जरिए जिक्र छिड़वा सकते थे। पता नहीं क्यों इस बार अमेरिका में बसे भारतीय समुदाय और दूसरे अमेरिकी निवेशकों से भारत मैं पैसा लगाने, भारत में बेरोजगारी मिटाने की बातें सुनाई नहीं दीं। शायद हम एनएसजी की संभावित सदस्यता से ही अपने को गदगद मुद्रा में दिखाना चाहते थे।

(सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं)

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