एक बीमार समाज और निर्भया का इंसाफ़

अपराध और दंड का सदियों पुराना जो विधान चला आ रहा है, उसका अनुभव यही बताता है कि न इससे अपराध घटे हैं और न नृशंसता घटी है.

एक बीमार समाज और निर्भया का इंसाफ़

निर्भया गैंगरेप के खिलाफ प्रदर्शन करते लोग (फाइल फोटो)

निर्भया के मुजरिमों के साथ कोई हमदर्दी नहीं रखी जा सकती है. उनका अपराध इतना नृशंस था कि 6 साल बाद भी उसकी याद एक सिहरन पैदा करती है. न्याय की सहज बुद्धि कहती है कि इनके साथ किसी क़िस्म की नरमी की बात सोचना गलत है. हमारे संविधान में अगर किसी जघन्य अपराध के लिए फांसी की व्यवस्था है तो वह जघन्य अपराध ऐसा ही हो सकता है. इसलिए कोई नादान ही बोलेगा कि निर्भया के मुजरिमों को फांसी नहीं होनी चाहिए.

फिर भी मेरी तरह के कुछ खब्ती लेखक के भीतर यह नादानी करने की इच्छा होती है. बस इसलिए कि अपराध और दंड का सदियों पुराना जो विधान चला आ रहा है, उसका अनुभव यही बताता है कि न इससे अपराध घटे हैं और न नृशंसता घटी है. न्याय की निष्फलता इस इच्छा का आधार नहीं है. मानव स्वभाव में प्रतिशोध का अपना एक मूल्य होता है. व्यक्ति ही नहीं, देश भी प्रतिशोध लेते हैं, सभ्यताएं भी प्रतिशोध लेती हैं. तब कोई गांधी की यह तजबीज याद नहीं करता कि आंख के बदले आंख का सिद्धांत अंततः एक दिन इस दुनिया को अंधा कर देगा.

बहरहाल, यह आदर्शवादी ख़याल भी मेरी नादान इच्छा का स्रोत नहीं है. लेकिन जिस तरह निर्भया के मुजरिमों को फांसी देने की मांग एक सामूहिक कोरस में बदल रही है, वह मुझे डराता है. इन्हें जल्दी से जल्दी फांसी पर लटका देने की मांग के पीछे चाहे जितना सात्विक आक्रोश हो, लेकिन मुझे लगता है कि यह आक्रोश विवेक से कम, अंधे आवेग से ज्यादा संचालित है. यह आक्रोश इस ज़रूरी प्रश्न पर भी विचार करने को तैयार नहीं है कि बलात्कार से हमारी सामूहिक घृणा के बावजूद न बलात्कारी कम हो रहे हैं, न निर्भयाएं कम हो रही हैं. उल्टे सामने आ रहा हर नया मामला शायद बर्बरता की नई हद पार करता नज़र आ रहा है.

बर्बरता से बर्बरता की काट खोजने और सुझाने वाली इस दृष्टि का एक और ख़तरनाक पहलू है. हमारे दैनंदिन के शब्दकोश में जो नए शब्द शामिल हुए हैं- उनमें एक मॉब लिंचिंग भी है. इस मॉब लिंचिंग के कई रूप हैं- एक तो वह जो बच्चा चोरी से गोरक्षा और राष्ट्र रक्षा तक के नाम पर हम सड़कों पर देखते हैं. बीते दो साल में इस मॉब लिंचिंग ने कम से कम 60 लोगों की जान ली है- यह कई रिपोर्ट्स बताती हैं.

मॉब लिंचिंग की यह मानसिकता एक अन्य स्तर पर सोशल मीडिया पर दिखाई पड़ती है जिसके लिए एक दूसरा शब्द ट्रोलिंग है. यह ट्रोलिंग अमूमन इतनी अमानवीय और असामाजिक होती है जैसे लगता है कोई बर्बर सेना विवेक के खात्मे के लिए उतरी हुई हो. कुछ दिन पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को ऐसी ही ट्रोलिंग झेलनी पड़ी जिसमें उनके पति से यह कहा गया कि वे उन्हें पीटते क्यों नहीं हैं.

यह बेचेहरा हिंसक मानसिकता जैसे हमारे स्वभाव का हिस्सा होती जा रही है. जब हम निर्भया के गुनहगारों के लिए फांसी-फांसी चिल्लाते हैं तो ऊपर से तो एक उचित न्याय की मांग करते हैं, लेकिन भीतर से उसी हिंसक मनोवृत्ति से संचालित होते हैं जो हमें भरोसा दिलाए कि हम अब भी न्याय चाहते हैं. यह इसलिए कि हमारे आसपास शायद अन्याय बढ़ते जा रहे हैं. हम अमूमन ऐसे अन्याय झेलने के आदी होते जा रहे हैं. जब कोई कमज़ोर आदमी हमें मिलता है तो हम उसे गो-तस्कर बना कर या बच्चा चोर मान कर- मार डालते हैं. लगातार अन्याय झेलते-झेलते खुद न्याय कर बैठने की यह दमित इच्छा अक्सर ख़ौफ़नाक नतीजों में फूटती है और ज़्यादातर ऐसे मामलों के शिकार निरीह और मासूम लोग होते हैं.

बलात्कार के मुद्दे पर लौटें. क्या हर तरह का बलात्कार हमारी संवेदना को झकझोरता है? या हम सिर्फ उन्हीं बलात्कारों से परेशान होते हैं जिनमें अतिरिक्त बर्बरता बरती गई हो या जो महानगरों के आसपास हों या जिनमें हमें कोई सांप्रदायिक कोण मिलता हो या फिर अपने हिस्से की राजनीति मिलती हो या फिर अपने ऊपर कोई वर्गीय हमला नज़र आता है? क्या हम वाकई बलात्कार के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करते हैं? क्या हम कभी सोचते हैं कि जिस देश में हर 18 मिनट पर किसी लड़की के साथ बलात्कार होता हो, वहां हमें किसी निर्भया की, किसी कठुआ की या किसी मंदसौर की पीड़ा ही बड़ी क्यों लगने लगती है? हम जिस उग्रता से निर्भया के बलात्कारियों के लिए फांसी चाहते हैं, क्या उस उग्रता से कभी हमने बिलक़ीस बानो के बलात्कारियों के लिए फांसी की मांग की? बर्बरता में वे भी इनसे पीछे नहीं थे. या हम बलात्कारों को भी अपनी जातिगत और धार्मिक पहचान के साथ जोड़ कर देखने के आदी हैं? क्या झारखंड-छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर और कश्मीर में स्त्रियों के साथ होने वाले ऐसे दुराचार हमारे संवेदना-तंतुओं को प्रभावित करते हैं? ये असुविधा में डालने वाले सवाल हैं. इनसे आंख मिलाते मुश्किल होती है. हम समझ नहीं पाते कि बिलक़ीस बानो अपने न्याय से संतुष्ट क्यों है. वह अपने मुजरिमों के लिए उम्रक़ैद ही चाहती है, उनकी मौत क्यों नहीं.

अगर कुछ और ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि हमारी प्रतिक्रियाओं में हमारे निजी पूर्वग्रहों का रंग ही नहीं, हमारी कई तरह की ग्रंथियां झांकती हैं. हम स्त्रियों के बलात्कार का विरोध करते हैं, लेकिन स्त्रियों को लगातार वस्तु में- 'कमोडिटी'- में बदलने वाले मनोरंजन और विज्ञापन उद्योग से हमें परहेज नहीं है. उल्टे, स्त्रियों को बस उनकी देह तक महदूद करने वाली उस संस्कृति का हम हिस्सा हैं जिसमें वे साबुन से लेकर कार बेचने तक में इस्तेमाल की जा रही हैं. इस प्रश्न पर कुछ और विचार करें तो पाते हैं कि धीरे-धीरे हमारी सामाजिकता के तार टूटते जा रहे हैं. हम बस उपभोग के लिए व्याकुल एक समाज में बदल रहे हैं जहां स्त्री भी एक आखेट है.

यह अनायास नहीं है कि इस नई दुनिया में जहां-जहां पर्यटन उद्योग बड़े पैमाने पर विकसित हो रहा है, वहां देह-व्यापार भी गैरकानूनी ढंग से उसका हिस्सा होता जा रहा है. दुनिया के कई हरे-सुनहरे समुद्र तटों की सुंदरता के पीछे जो अंधेरा है, उसमें गरीब मुल्कों से ख़रीदी और लाई गई लड़कियों की सिसकियां भी शामिल होती हैं- क्या यह हम जानते हैं? क्या हमें नहीं मालूम है कि इक्कीसवीं सदी में स्त्री की खरीद-फ़रोख़्त किसी दूसरे कारोबार की तरह लगातार बड़ी हुई है? इन सबकी याद दिलाने का अभिप्राय कहीं भी यह नहीं है कि निर्भया के मुजरिमों को फांसी न हो. उन्हें यह फांसी होगी तो एक न्यायिक कार्यावाही के दायरे में होगी. इस दायरे के बाहर कोई भी मांग या कोशिश हत्या या हत्या की इच्छा ही कहलाएगी. बेशक, इसके बाद हमें अगली बहस यह करने की ज़रूरत भी है कि फांसी बरकरार रखी जाए या नहीं.

दरअसल सभ्यता और मनुष्यता में आस्था वह चीज़ है जो हमारे यहां हाल के वर्षों में बहुत तेज़ी से क्षरित हुई है. हम लगातार जैसे झाग उगलते, एक-दूसरे से नफ़रत करते, एक-दूसरे पर संदेह करते ऐसे बीमार समाज में बदल रहे हैं जिसमें निर्भयाएं असुरक्षित होने को अभिशप्त हैं. ऐसा बीमार समाज अपने लोगों को नहीं बचा सकता. दुनिया के कई देशों ने फांसी पर रोक लगा दी है- अगर हम भी लगाएंगे तो कहीं ज़्यादा सभ्य देश और ज्यादा मानवीय समाज होंगे. अगर हम इस मनुष्यता का सम्मान करेंगे तो अपने कमजोर जनों को बचाएंगे- अपने दलितों को, अपने आदिवासियों को, अपने ग़रीबों को, अपने बच्चों को और अपनी लड़कियों को भी. बल्कि ऐसा करके हम अपने-आप को भी बचाएंगे- ये सब लोग हमारी भी मनुष्यता के रक्षक होंगे. यह यूटोपिया लग सकता है- लेकिन यह यूटोपिया भी मुझे किसी खूंखार यथार्थ से ज़्यादा प्रिय है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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