अंग्रेजी बोलने-सुनने पर अतिरिक्त अंक, हिन्दी का क्या?

अंग्रेजी बोलने-सुनने पर अतिरिक्त अंक, हिन्दी का क्या?

प्रतीकात्मक फोटो

हिन्दी की बात कर रहा हूं, जबकि फिलहाल हिन्दी दिवस नहीं है। देश में हिन्दी की बात आम तौर पर हिन्दी दिवस, यानि 14 सितंबर को ही होती है। बाकी दिनों में राजभाषा कहलाने वाली हिन्दी किसी को याद नहीं आती। सिर्फ यही एक दिन है जिस दिन हिन्दी की शान में कसीदे किए जाते हैं, व्याख्यानों में इसका गुणगान होता है। हिन्दी का उपयोग करने, इसे प्रचारित-प्रसारित करने की शपथ भी ली जाती है। बाकी दिनों में तो हिन्दी को चिंदी-चिंदी होते हुए आप सरकारी दस्तावेजों से लेकर अखबारों, वेबसाइटों, टीवी चैनलों और रेडियो स्टेशनों पर भी पढ़, देख और सुन सकते हैं।

सीबीएसई, यानि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने एक ताजा फैसले में अंग्रेजी की महत्ता और बढ़ा दी है, या यूं कहें कि हिन्दी को और भी अधिक नकार दिया है। अब अंग्रेजी बोलकर पढ़ने व सुनने के भी छात्रों को अंक मिलेंगे। इसके लिए अधिकतम 20 अंक तय किए गए हैं। अंग्रेजी में रुचि लेने वाले नौवीं से 12वीं तक के विद्यार्थियों को इसका फायदा मिलेगा। फिलहाल अतिरिक्त अंकों की यह व्यवस्था मौजूदा सत्र के लिए की गई है। शिक्षा बोर्ड के अंग्रेजी के कोर्स में विषय समूह शामिल हैं। इसमें अंग्रेजी कम्युनिकेटिव, भाषा और साहित्य, कोर, फंक्शनल और इलेक्टिव विषय हैं। नई व्यवस्था में नौवीं कक्षा में कम्युनिकेटिव, भाषा और साहित्य में बोलकर पढ़ने के 20 अंक, लिखित परीक्षा में 25, साहित्य व उपन्यास में 25 अंक मिलेंगे। इसके अलावा एसेसमेंट में सुनने और पढ़ने के 20 अंक दिए जाएंगे। इसके अलावा 10 अंक ओपन बुक परीक्षा के तहत दिए जाएंगे। आगे की दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा की परीक्षाओं में भी अंग्रेजी सुनने-पढ़ने पर इसी तरह अतिरिक्त अंक अर्जित करने की सुविधा होगी।

क्या कोचिंग में सीखनी होगी हिन्दी!
सीबीएसई ने विद्यार्थियों को अंग्रेजी में निष्णात बनाने के लिए, उन्हें अंग्रेजी ज्ञान अर्जित करने के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए अच्छा कदम उठाया है। अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान उन्हें वैश्विक साहित्य से बेहतर ढंग से जोड़ सकता है। लेकिन हिन्दी का क्या? निश्चित ही मुझ जैसे बहुत सारे पिता होंगे जो अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे से जब पूछते हैं कि ''क्या उन्नीस तारीख को तुम्हारी छुट्टी है?' तो जवाब में प्रश्न मिलता है 'उन्नीस मतलब?' उन्हें बताना पड़ता है 'नाइंटीन'। यह तो एक उदाहरण मात्र है हिन्दी के ऐसे सैकड़ों सामान्य शब्द हैं जो वे नहीं जानते। फिलहाल घर-परिवार में हिन्दी में बोलचाल के कारण वे हिन्दी समझ रहे हैं, लेकिन शायद एक-दो पीढ़ी बाद उनकी विचार प्रक्रिया पूरी तरह अंग्रेजी से चलेगी। तब हिन्दी क्या वैसे ही सीखनी होगी जैसे आजकल अंग्रेजी कोचिंगों में सिखाई जाती है?

हिन्दी को प्रोत्साहित करने में क्या बुराई?
अंग्रेजी को प्रोत्साहित करना बुरा नहीं है, लेकिन क्या हिन्दी, जिसे हम राष्ट्रभाषा भी कहते हैं, के उपयोग को भी प्रोत्साहित करने की जरूरत नहीं है? जब केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अच्छी अंग्रेजी बोलने-सुनने वाले विद्यार्थियों को अतिरिक्त अंक दे सकता है तो अच्छी हिन्दी जानने वाले विद्यार्थियों को भी प्रोत्साहित करने में क्या बुराई है?       

स्वप्रेरणा से हिन्दी के उपयोग की अपेक्षा     
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा की मान्यता दी थी। इसके बाद राजभाषा अधिनियम 1963 अस्तित्व में आया। देश के सरकारी दफ्तरों, सरकारी व अर्ध सरकारी निगम-मंडलों के कार्यालयों में कामकाज की भाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन परिणाम सिर्फ हिन्दी भाषी राज्यों में ही बेहतर देखने को मिले हैं। मध्यप्रदेश की शासकीय अधिकारी शैफाली तिवारी पूर्व में महाराष्ट्र में आकाशवाणी में  हिन्दी अधिकारी के रूप में भी सेवाएं दे चुकी हैं। उन्होंने बताया कि सरकारी दफ्तरों में हिन्दी में कामकाज करने वालों को प्रोत्साहित किया जाता है। जो कर्मचारी हिन्दी में अधिकतम काम करता है, उसे सम्मानित किया जाता है। हिन्दी में काम करने की अनिवार्यता के सवाल पर उन्होंने बताया कि राजभाषा समिति हिन्दी में काम करने वालों को प्रोत्साहित तो करती है लेकिन उसे काम न करने वालों को दंडित करने का कोई अधिकार नहीं है। वह सिर्फ प्रेरित कर सकती है।
       
यानि कि सरकारी कर्मचारी स्वप्रेरणा से हिन्दी का उपयोग कर सकते हैं, उन पर किसी तरह की बाध्यता नहीं है। जब बेटा 'उन्नीस' को 'नाइंटीन' ही जानता है, फिल्म के पोस्टर अंग्रेजी में ही लिखे दिखाई देते हैं, अखबारों, चैनलों में करीब 20 फीसदी तक अंग्रेजी के शब्द हैं, तो फिर दफ्तर में बैठे कर्मचारी से स्वप्रेरणा से हिन्दी में कामकाज की अपेक्षा कैसे की जाए?

अंग्रेजीदां शिक्षा में हिन्दी का काम तमाम
भाषा-बोलियां हमेशा से वाचिक परंपरा से विस्तारित होती रही हैं। हर पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से सीखती है और उसे अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करती है। अब बच्चे ढाई साल की उम्र में 'प्ले स्कूल' में जाने लगे हैं। इसी उम्र से उनमें भाषा के संस्कार शुरू होते हैं। अंग्रेजीदां शिक्षा का आलम यह है कि यदि छोटा बच्चा स्कूल में हिन्दी बोले तो टीचर नाराज! मजबूरी में बच्चे के मां-बाप भी उसके सामने 'आम' को 'मैंगो' कहते हैं। ऐसे में आम का तो काम तमाम होना ही है...धीरे-धीरे हिन्दी का भी काम तमाम!            

सवाल हिन्दी के जिंदा रहने का
निश्चित तौर पर भाषा के ज्ञान का सर्वश्रेष्ठ स्रोत शिक्षा है। शिक्षा संस्थाएं निश्चित रूप से बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षित करके उन्हें 'ग्लोबल' बनाएं, लेकिन अपनी भाषाई जड़ों से उखाड़कर ऐसा करना क्या ठीक है? सीबीएसई को हिन्दी को भी प्रोत्साहित करना चाहिए। यह हिन्दी को प्रसारित करने के लिए नहीं बल्कि इसे जिंदा रखने के लिए जरूरी है। हिन्दी से ही तो ...हिन्दी हैं हम वतन हैं...।

(सूर्यकांत पाठक एनडीटीवी ख़बर में समाचार संपादक हैं)

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