आखिर निपट गया नोटबंदी का हवन, अब नफा-नुकसान जांचने की बारी

आखिर निपट गया नोटबंदी का हवन, अब नफा-नुकसान जांचने की बारी

आज यानी वित्तीय वर्ष के आखिरी दिन नोटबंदी का सनसनीखेज अनुष्ठान पूरा हो गया. इस आर्थिक राजनीतिक हवन से क्या हासिल हुआ इसका पता अब चलेगा. हालांकि इसे हवन कहे जाने से कुछ लोगों को ऐजराज हो सकता है लेकिन पिछले चार महीनों में इस अनुष्ठान की विधि में रोज़-रोज़ जिस तरह बदलनी पड़ी उससे यह तो तय हो गया कि अपने देश ने एक नवोन्वेषी काम किया. नए तरीके से काम करने में एक जोखिम होता ही है सो अब यह हिसाब लगना शुरू होगा कि नोटबंदी से जो फायदा हुआ है उसकी तुलना में नुकसान कितना हुआ. यह भी देखा जाएगा कि जिस मकसद से यह काम किया गया था वह कितना पूरा हुआ. सिर्फ ऐलानिया मकसद के आधार पर ही समीक्षा करना ठीक होगा. उनके अलावा जो फायदे गिनाए जा रहे होंगे वह नोटबंदी के फैसले का जबरन बचाव करने के अलावा और कुछ नहीं होंगे.

ऐलानिया मकसद क्या थे
नोटबंदी का ऐलान करते समय तीन प्रमुख मकसद बताए गए थे. पहला कालाधन पकड़कर सरकारी खजाने में लाना. दूसरा नकली नोट पकड़ना. और तीसरा आतंकवाद को हो रहा वित्तपोषण खत्म करना. इन तीनों मकसद को एक शब्द में समेटें तो वह मकसद बनता है कि भ्रष्टाचार का खात्मा. सोचा गया था कि जिनके पास हजार, पांच सौ के नोट की शक्ल में काला धन है वह उनके पास धरा का धरा रह जाएगा और वह कालाधन रद्दी कागज के टुकड़े में तब्दील हो जाएगा. यह भी सोचा गया था कि आतंकवाद नकली नोटों से फलता फूलता है सो नकली नोट खत्म कर दिए जाएंगे. नए नोट ऐसे छपवाए जाएंगे कि उनकी नकल ही न हो पाए.

शुरू से ही तीनों मकसद की बैंड बजने लगी थी
बैंकों में नोट बदलने का काम शुरू हुआ. पहले दिन से ही अफरा तफरी मचना शुरू हो गई. देश भर में पचासियों हजार बैंकों एटीएम और दूसरी संस्थाओं के सामने ऐसी भीड़ मची कि सबके हाथ पैर फूल गए. इसी वजह से वे ऐलान बदलने पड़े जो नोटबंदी के दिन किए गए थे. नए किस्म के भ्रष्टाचार शुरू हो गए. पहले पचास दिन फिर तीन महीने और बाद में दो तिमाहियों में हालात ठीक हो जाने के दिलासे दिए गए. इसी बीच पता चला कि कालेधन वाले लोग जन धन खातों और दूसरे गरीबों के खातों में अपनी रकम जमा करवाने लगे. लाखों करोड़ की बेहिसाबी रकम भ्रष्ट तरीकों से फिर से सफेद की जाने की आशंकाओं के घेरे में आ गई. उधर पता चला कि जितनी रकम के बड़े नोट थे वे सारे के सारे फिर से सफेद रकम की शक्ल में तब्दील हो रहे हैं. इसी बीच देशवासियों के लिए तय की गई 31 मार्च तक नोट बदली की तारीख पहले ही खत्म किए जाने के एलान होने लगे. कुल मिलाकर कालाधन, भ्रष्टाचार और नकली नोट के मकसद हारते चले गए. सरकार ने सूचनाओं को छन-छन कर बाहर जाने के इंतजाम किए जरूर लेकिन देश की पूरी आबादी पर असर के कारण इन सूचनाओं को रोकने का कोई खास फायदा हुआ नहीं.

आखिर पल तक रिजर्व बैंक के दफ्तरों में भीड़
आज यानी 31 मार्च तक की तारीख सिर्फ अप्रवासी भारतीय को नोटबदली के लिए तय की गई थी. सोचा गया था कि चार महीने इस काम के लिए काफी होंगे. लेकिन आखिरी तीन दिन तक इन लोगों को रात रात भर रिजर्व बैंक के दफ्तरों में लाइन लगाकर खड़ा होना पड़ा. विदेशों में बसे हजारों लोगों के सामने यह परेशानी भी जरूर रही होगी कि विदेश से आने जाने का भारी खर्च उठाकर लाख दो लाख की पुरानी मुद्रा को नए नोट में तब्दील कराने से क्या फायदा. आज के बाद कम से कम एक हफ्ते तक इन अप्रवासी भारतीयों की व्यथा कथाएं सुनने को मिलेंगी.

हिसाब किताब अभी भी अंधेरे में
कितनी रकम के पुराने नोट बदले गए? कितने नकली नोट पकड़ में आए? भारी टैक्स देकर कितने लोगों ने अपनी कितनी बेहिसाबी रकम को सफेद करवाया? इस योजना में कितनी रकम गरीब कल्याण योजना में आई? नोटबंदी की कवायद पर कुल खर्चा क्या बैठा? यह सारा हिसाब किताब अभी तक घुप्प अंधेरे में है. जबकि दरकार यह थी कि पिछले साल 31 दिसंबर  तक यह सब कुछ साफ हो जाना चाहिए था. उसके बाद तीन महीने और गुजर गए हैं. यह कहा जा रहा है इकट्ठा एक साथ बताया जाएगा. इस काम के लिए मुकर्रर रिजर्व बैंक तो आज तक भी गोपनीयता का निर्वाह करने में लगा है.

जीडीपी पर असर जांचने का इंतजार
देश की लगभग हर गतिविधि का हिसाब किताब और उसी के मुताबिक आगे का कार्यक्रम बनाने का काम जीडीपी के आंकड़े देखकर ही होता है. इस वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही का आंकड़ा घटकर कम रह गया था लेकिन इसे मामूली घटोतरी बताकर नोटबंदी का बचाव कर लिया गया. इसकी गणना में सरकार की चतुराई की बातें भी उठीं. लेकिन अब एक जनवरी से 31 मार्च वाली आखिरी तिमाही के आंकड़े कुछ साफ-साफ तस्वीर दिखाएंगे. अगर पिछली तिमाही में कोई गुंताड़ा हुआ होगा तो उसे इस बार ठीक करके बताना ही पड़ेगा.   

कैशलैस लेन देन की हालत
अपने एलानिया मकसद को भुलाने के लिए सरकार के पास अपना नया  मकसद यानी कैश लैस का प्रचार बढ़ाने का एक उपाय बचा है. नोटबंदी का फायदा समझाने के लिए इसके अलावा कोई चारा नज़र नहीं आता. लेकिन इस बीच देश के नागरिकों में एक नया मनोवैज्ञानिक व्यवहार भी पनप गया है. नोटबंदी के बाद लंबे समय तक नगदी की किल्लत से लोग जिस तरह से परेशान हुए उससे उनमें अपने पास अफेदफे के लिए हाथ में ज्य़ादा नगदी रखने की प्रवृत्ति आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गई है. वस्तुस्थिति यह है कि जो लोग पचास हजार से एक लाख रुपये तक अपने सामान्य खाते में रखते थे और अपने बटुए या घर पर दस बीस हजार रुपये ही रखते थे वे अब पचास साठ हजार रुपये नगद रखने लगे हैं. एटीएम में हमेशा रकम मौजूद होने से उनका भरोसा उठ गया है. नोटबंदी के बाद लंबे वक्त तक अपनी जमा रकम को एक बार में ही निकालने पर जो पाबंदी लगी रही उससे भी लोग बुरी तरह से परेशान हुए थे. सो अब उन्हें अपने पास ज्यादा से ज्यादा नगदी रखने में ही निश्चिंतता लगती है. बड़े पैमाने पर बदला यह जन व्यवहार बैंकों और रिज़र्व बैंक के सामने नगदी का संकट खड़ा कर सकता है. ऊपर से कैशलैस लेन देन पर टैक्स का झमेला लोगों को अपना वही पुराना नगदी लेनदेन करने का लालच दे रहा है. यानी नोटबंदी से कैशलैस का मकसद भी सधता नजर नहीं आ रहा है. चलिए देखते हैं कि नए वित्तीय वर्ष में क्या नई बात बनाई जाती है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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