#युद्धकेविरुद्ध : रोकने से ही युद्ध रुकेगा!

#युद्धकेविरुद्ध : रोकने से ही युद्ध रुकेगा!

प्रतीकात्मक फोटो

क्या आपको वर्ष 2015 का उस बच्चे का चित्र अपनी नज़रों के सामने चलता हुआ नज़र आता है, जिसमें तीन साल का एक बच्चा तुर्की में समुद्र के किनारे औंधा पड़ा हुआ था. उसमें जीवन नहीं था. वह मर चुका था. उसके शरीर पर कोई जीवन रक्षक उपकरण नहीं था, जो कि समुद्र में जाने वाले हर व्यक्ति के शरीर पर होना चाहिए. उस बच्चे के शरीर पर कोई जीवन रक्षक उपकरण नहीं था क्योंकि वह तो असंभावना में जीवन की संभावना तलाशने युद्ध में जल रहे सीरिया देश से कहीं शरण लेने के लिए नाव से निकला था. सीमा से ज्यादा भरी नाव से वह समुद्र की गोद में गिरा और लहरें उसे तुर्की की सीमा में ले आईं....जिन्दा नहीं! उस बच्चे का नाम एलन कुर्दी था! 20 लाख लोग आज शरण की तलाश में हैं. लाखों लोग समुद्र के रास्ते यूरोप के देशों में प्रवेश करना चाहते हैं, यूरोप उन्हें प्रवेश देना नहीं चाहता तो वे समुन्दर की लहरों पर ही जिंदगी के दिन काट रहे हैं.

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सीरिया, इराक, तुर्की के नाम के साथ गहरा कलंक जुड़ गया है. इस्लामिक स्टेट के प्रभाव में होने का कलंक. इस कलंक के वास्तविक आधार क्या हैं? ऐसा लगता है कि पिछले 72 सालों में यानी दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में होने वाले सभी युद्धों का ठेका अमेरिका नाम की कंपनी को ही मिला है. अपने आसपास से शुरू करते हैं. 3 जुलाई 1979 के अमेरिकी राष्ट्रपति के एक आदेश के बाद अमेरिका ने अफगान मुजाहिदीन समूह को मदद देना शुरू किया. तब तक अफगानिस्तान में सहज सरकार थी. जब मुजाहिदीन समूह को अमेरिकी मदद मिलने लगी, तब अफगानिस्तान में कट्टरपंथी सत्ता की स्थापना का माहौल बनने लगा और ऐसे में सोवियत यूनियन ने अफगानिस्तान के साथ संघर्ष शुरू किया. सोवियत यूनियन को लक्ष्य बनाने के लिए वहां 80 अरब डालर खर्च किए गए. इस रणनीति में 10 लाख लोगों की मृत्यु हुई, अमेरिका के लिए उपयोगी 60 प्रतिशत नशीले पदार्थों की आपूर्ति के लिए उत्पादन अफगानिस्तान में होने लगा और दुनिया भर के लिए 20 सालों में अफगानिस्तान शैतानों का देश बना दिया गया.

बोलीविया में स्थानीय सरकार ने खदानों का राष्ट्रीयकरण किया और मूल निवासियों को भू-अधिकार देने शुरू किए. यह अमेरिका को पसंद नहीं आया और बोलीविया में युद्ध शुरू हो गया. कम्बोडिया को तानाशाह पोल-पोट के द्वारा किए जाने वाले नरसंहार के लिए जाना जाता है. क्या यह सच नहीं है कि पहले अमेरिका के द्वारा ही कम्बोडिया पर बमबारी की जाती रही. इससे बने भय के माहौल में कम्बोडिया में एक छोटा राजनीतिक दल खमेर रूज ताकतवर होकर उभरा. इसके नेता पोल-पोट थे. उसे तानाशाही मिली और फिर कम्बोडिया जैसे छोटे देश में 25 लाख लोगों की हमलों, भूख और बीमारी के कारण मृत्यु हुई. चाड में हिसेन हेब्रे को सत्ता दिलाने का काम अमेरिकी एजेंसी सीआईए ने किया और अपने कार्यकाल में वहां उन्होंने 40 हजार लोगों की हत्या की. इंडोनेशिया को अमेरिका ने यह अधिकार दिया कि वह पूर्वी तिमोर में घुसपैठ करे और अमेरिकी हथियारों का इस्तेमाल करे.

इराक और ईरान के बीच अपने विवाद थे. उन विवादों में 1980 से 88 के बीच अमेरिका ने इराक का पक्ष लिया. करोड़ों डालर की सहायता और विध्वंसक हथियारों की मदद उपलब्ध करवाई. फिर भी एक समय पर ईरान भारी पड़ता दिखाई दिया, तो वह निष्पक्षता से बीच में खड़ा हो गया. इसमें 1.05 लाख इराकी लोगों की मृत्यु हुई.

इराक-कुवैत के बीच आपसी विवाद चले आ रहे थे. इराक में अमरीकी राजदूत एप्रिल गिलिप्सी ने इराक सरकार को बताया था कि कुवैत-इराक के आपसी विवाद में अमेरिका का कोई हित या पक्ष नहीं है, इसे वे ही सुलझाएं. इराक को लगा कि वह अपनी तरह से विवाद निपटा पाएगा और दो अगस्त 1990 को इराक ने कुवैत में घुसपैठ की. यह सही कदम नहीं था. इसके चार दिन बाद संयुक्त राष्ट्र के इराक पर प्रतिबंध लगा दिए और खाड़ी युद्ध की नई नींव पड़ गई. कारण था खाड़ी में उपलब्ध पेट्रोलियम पदार्थ. जबरदस्त युद्ध हुआ. 42 दिन के इराक-अमेरिका युद्ध में दो लाख इराकी मरे और केवल 150 अमेरिकी.

चिले, कोलंबिया, कांगो जैसे बीस देशों में युद्धों का अशुभारम्भ अमेरिकी हितों की रक्षा या सत्ता की ताकत को हासिल करने की लालसा को पूरा करने के लिए किया गया. क्या हम जानते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दुनिया भर में हुए 56 नरसंहारों में 5.12 करोड़ लोगों की जान ली गई. इसमें एडोल्फ हिटलर ने 1.2 करोड़ जानें लीं. वह अपनी सत्ता, अपनी विचारधारा की सत्ता स्थापित करना चाहते थे. लिओपोल्ड-2 (बेल्जियम) के समय में 80 लाख मृत्यु के शिकार हुए. इस्माइल ऐन्वर (टर्की) के समय में 12 लाख लोगों की जान गईं. बीसवीं सदी गवाह है दुनिया में राजशाही और राजनीतिक उपनिवेशवाद की समाप्ति के दौर की; पर यह सवाल अब भी मौजूं है कि क्या दुनिया वास्तव में उपनिवेशवाद से मुक्त हो पाई है? आर्थिक उपनिवेशवादी ताकतें, जिनका नेतृत्व खुले रूप में अमेरिका करता है, आधी दुनिया के देशों में इसलिए युद्धों की कथा रचता रहा, ताकि वहां अपने मन के मुताबिक सरकारों की स्थापना की जा सके, जो उसे और उनकी कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों और मानवीय गरिमा के शोषण के लिए माकूल सहयोग उपलब्ध करवाएं. बदले में इन देशों में तानाशाहों को खुलेआम नर-नारी-बाल संहार करने की छूट दे दी जाती रहे.

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अगर हम बीसवींसदी के इतिहास को देखें तो हमें पता चलता है कि भारत की आज की चुनौतियों की जड़ें भी वहां कहीं बिछी हुईं हैं. उस सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश सरकारों ने हिंदू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दीवार को महीन से विकराल बनाया. भारत-पाकिस्तान का विभाजन यदि मन से सबको स्वीकार होता, तो शायद विभाजन के समय 10 लाख लोग मारे नहीं जाते. विभाजन से हिंदुओं को हिन्दुस्तान पाकर और मुसलमानों को पाकिस्तान पाकर उल्लास से भर जाना चाहिए था; फिर यह कत्ले-आम क्यों हुआ? वास्तव में उस विभाजन से केवल दो देशों का निर्माण ही नहीं हुआ था, बल्कि मानव इतिहास का सबसे बड़ा जबरिया विस्थापन का प्रकरण भी इसी विभाजन के दौरान बना. तब 130 लाख ब्रिटिश उपनिवेशवाद दुखी और भविष्य की चिंताओं से घिरे लोगों को अपने पुश्तैनी घरों, जमीन, गांव, बस्तियों और पड़ोसियों-रिश्तेदारों को छोड़कर जाने के लिए मजबूर किया गया. मानक यह बना था कि संख्या की बहुलता के आधार पर हिंदू और सिख भारत में रहेंगे और मुसलमान पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में. वास्तव में आमतौर पर लोग – हिंदू और मुसलमान दोनों ही नहीं जानते थे कि यह क्या और क्यों हो रहा है? बहुत असमंजस भी था और क्रोध भी; क्योंकि राजनीति सत्ता के टकरावों को साम्प्रदायिक रंग दे रही थी. तनाव और असुरक्षा के माहौल में हत्याएं हुईं, बलात्कार हुए, बच्चों के कत्ल हुए और इंसानियत के अपमान के असंख्य पाठ लिखे गए.  हम उस समाज में थे जहां बलात्कार के लिए महिला को ही अपराधी माना जाता है, वहां उनके साथ दोहरा जुल्म हुआ. बलात्कार को राजनीति के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया.

इसी के साथ कश्मीर का अध्याय भी जुड़ गया. जब पूरी कहानी की खून के आंसुओं से लिखी गई थी, तब कश्मीर का हल कैसे निकलता? पश्चिमी पाकिस्तान में सत्तासीन अधिनायकवादी सरकार को अमेरिका का पूरा समर्थन मिला हुआ था. यह अमेरिका की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए एक स्वाभाविक स्थिति थी, क्योंकि भारत का झुकाव सोवियत यूनियन की तरफ था. दो-ध्रुवीय विश्व में ऐसा होना शायद स्वाभाविक ही था. पाकिस्तान की सेना की स्थापना और उसे खड़ा करने के लिए अमेरिका ने ही 41.1 करोड़ डालर की शुरुआती मदद प्रदान की थी. वर्ष 1971 में पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के बीच के राजनीतिक-सशस्त्र टकराव में पश्चिमी पाकिस्तान ने हिंसक पहल की. तब युद्ध की स्थितियों में भारत, जो पाकिस्तान के इन दोनों हिस्सों के बीच आता है और जिसकी अर्थव्यवस्था इससे प्रभावित भी होती थी, ने दखल दिया, जिसके परिणामस्वरुप बांग्लादेश का निर्माण हुआ. विभाजन के बाद की हिंसाएं, और नई हिंसाओं की पटकथा लिखती चली गईं. राजनीतिक कारखानों में इन्हें जीवन-मरण का प्रश्न बना दिया गया. इस दौर में हम भूल गए कि 25 साल तक चली श्रीलंका और तमिल संगठनों के बीच की भिड़ंतों में 73818 लोग मारे गए. खालिस्तान के चरम संघर्षों में 14551 लोग मरे गए हैं. तेलंगाना और उत्तर-पूर्व में भी संघर्ष हुए हैं. यह संघर्ष युद्ध में कब-कब तब्दील हुए; यह तो सोचिए! जब भी राजनीतिक मसलों को निपटाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति खत्म हो जाती है, तब यह मामले युद्ध के मैदान का रुख कर लेते हैं. हम इतिहास की घटनाओं के बारे में तो पढ़ते हैं, पर हमारी शिक्षा यह नहीं बताती कि उन घटनाओं के पीछे के मूल कारण कौन से थे? उन घटनाओं की रचना क्यों, किन मकसदों से और किनके द्वारा की गई? वास्तव में कुछ देशों के युद्ध एक उद्योग तो है ही, बल्कि युद्ध आर्थिक साम्राज्यवाद को जड़ों को पोसते रहने का बहुत बड़ा साधन भी हैं. हम युद्धों और युद्धों की भावना को जिन्दा रखने के आदी हो गए हैं.      

खाद्य और कृषि संगठन (संयक्त राष्ट्र संघ) के मुताबिक वर्ष 1990 के बाद इराक पर लगाए गए प्रतिबंधों के कारण इराक में पांच लाख बच्चों की मौत हुई. एलन कुर्दी को नीलोफर देमिर नाम की छायाचित्रकार की नजर मिल गई. उस नजर से दुनिया एलन कुर्दी को देख पाई और भीतर तक हिल गई. हमारे अखबार भी उन सैनिकों के बच्चों के चित्र छापते हैं, जिनकी युद्धों या आतंकी हमलों में मृत्यु हो गई. बहुत दुखद होता है यूं जीवन का खो जाना. अगर अपन इन्हें बुरा मानते हैं, तो अपने को इन्हें रोकने की पहल करना चाहिए या कि नई हिंसा की मांग करना चाहिए! हमारे यहां तो हम युद्ध का उत्सव आयोजित करने की मांग कर रहे हैं. माना जाता है कि पिछले 50 सालों में युद्धों में 21 लाख बच्चों की मृत्यु हुई है. दुनिया में कुपोषण और सामान्य संक्रामक बीमारियों से जिन बच्चों की मृत्यु होती है, उनमें से सबसे ज्यादा उन ही देशों से आते हैं, जहां युद्ध छिड़े हुए हैं. आखिर में एक भी देश बताइए, जिसने युद्ध लड़कर खुद को स्थापित किया हो. बहरहाल जो देश और ताकतें युद्ध लड़वाती हैं, वे सबसे ज्यादा स्थापित हुई हैं. आखिर में मलेरिया, कुपोषण, गरीबी के खिलाफ युद्ध का एलान भी यही देश करते हैं और भारत जैसे देशों को दान देते हैं. हम इस चक्र को देख ही नहीं पाते हैं – युद्ध की भूमिका बनाने के लिए आत्म निर्भरता तोड़ने के लिए सत्ता में दखल, नीति निर्माण में दखल, संसाधनों पर कब्ज़ा, टकराव को बढ़ावा देना, भावनाओं को भडकने के लिए माकूल परिस्थितियां बनाना, अशांति पैदा करना, नुकसान होने देना और जब अभाव हो जाए, तब दयावान बनकर अवतरित होना; जरा ध्यान से देखिये कि हमारी नीति क्या कहती है?   

डेलीमेल में प्रकाशित नाइजल जोन्स की रिपोर्ट के मुताबिक कोरियाई युद्ध, वियतनाम युद्ध, खाड़ी युद्ध, कम्बोडिया, लाओस के युद्धों में हुई 100 से 150 लाख मौतों के लिए अमेरिका सीधे जिम्मेदार रहा है. रिपोर्ट बताती है कि अफगानिस्तान, अंगोला, कांगो, ईस्ट तिमोर, ग्वाटेमाला, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और सूडान में भी हुई 90 से 140 लाख मौतों के लिए अमेरिका की सीधी जिम्मेदारी तय होती है. अध्ययन बताते हैं कि खदानों, निर्माण, प्राकृतिक संसाधनों और उद्योगों के साथ-साथ सस्ते श्रम, गुलामनुमा सेवकों की उपलब्धता के कारण 50 देश अमेरिका की रणनीति के लक्ष्य में रहे. वह उन देशों में चुनाव करवाने, अपने मन मुताबिक राष्ट्र प्रमुख का चुनाव करवाने से लेकर वहां की नीतियों और कानून बनवाने के लिए भी पूंजी, तकनीकी और हथियारों के उपयोग के माध्यम से सीधी भूमिका निभाते रहे हैं, ताकि विकास के नाम पर ऐसी नीतियां बनें, जिनसे आर्थिक साम्राज्यवाद का विस्तार हो सके.

पहले धर्म के नाम पर भारत-पाकिस्तान के बीच के बंटवारे और फिर 1940 के दशक के अंत में गाजा के मसले के अंतर्गत फिलिस्तीन के सामने इजराइल नामक देश के उदय होने से तभी यह बात समझ आ जाना चाहिए थी कि दुनिया धार्मिक ध्रुवीकरण की तरफ बढ़ रही है और इसमें वही सबसे ताकतवर साबित होगा, जो धर्म की राजनीति को आर्थिक साम्राज्यवाद की नीति से खेलेगा. इस बात को समझते हुए ही मुस्लिम ब्रदरहुड के तहत इस्लामिक देश एकजुट हो रहे थे, पर वे एकजुटता देख नहीं पाए. पिछले 70 सालों में इस्लामिक बहुल देश, जो मूलतः आतंकवादी देश नहीं थे या नहीं हैं, को जीवन के बहुत बुरे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया गया. इस बहस में हम यह भूल जाते हैं कि जिन देशों में युद्ध छिड़ा या छेड़ा गया, वहां भी तो उसी देश का मुसलमान ही मरा? उसी देश की सम्पदा मटियामेट हुई? उन्हीं के संसाधन तो लूटे गए?

आज अगर भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव है, तो उस टकराव में आखिर में मरने वाले हैं कौन? किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए. हमें यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि आखिर आतंकवाद की पैदाईश का मूल कारण क्या है? क्या हमारा समाज इतना कमजोर हो चुका है कि उसे अपनी समस्याओं को हल करने के लिए आतंकवादी बनने का रास्ता ही नजर आता है? उसे देश और दुनिया की व्यवस्थाओं में विश्वास क्यों नहीं रह गया है? बात पाकिस्तान की हो, या भारत की, इस टकराव से जूझते हुए दो पीढ़ियां गुजर गईं. जिन्होंने 1947 के मंजर देखे थे, ज्यादातर तो अब रहे ही नहीं, फिर ऐसा क्या हो रहा है कि उनमें ज्यादा हिंसा और प्रतिशोध है, जिन्होंने उस मंजर को देखा ही नहीं था. यह मानस तैयार कौन कर रहा है कि बिना अवकाश एक बड़ा तबका युद्ध के उद्घोष के साथ की दिन की शुरुआत करता है. क्या उन्हें अंदाजा है कि मानव इतिहास में किसी भी युद्ध ने इंसानियत का झंडा नहीं लहराया है?

सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं...

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