सीबीआई के बाद अब आरबीआई की बारी?

क्या सीबीआई के बाद अब सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई के कामकाज में भी दखल की तैयारी कर ली है? क्या आरबीआई की आजादी खतरे में है?

सीबीआई के बाद अब आरबीआई की बारी?

आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल.

क्या सीबीआई के बाद अब सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई के कामकाज में भी दखल की तैयारी कर ली है? क्या आरबीआई की आजादी खतरे में है? ये सवाल इसलिए क्योंकि आरबीआई के कामकाज में दखल के आरोपों के बाद सरकार को अब सफाई देने के लिए सामने आना पड़ा है. खबरें ये भी है कि सरकार ने इतिहास में पहली बार आरबीआई कानून की धारा सात के तहत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए कमजोर बैंकों के लिए नकदी मुहैया कराने, छोटे और मध्यम उद्योग को कर्ज देने और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए नकदी जैसे मुद्दों पर आरबीआई को कहा है.

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने बेहद कठोर शब्दों में सरकार की दखलअंदाजी का विरोध किया है. उन्होंने कहा कि "जो सरकारें केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करतीं, उन्हें देर सवेर वित्तीय बाज़ारों के गुस्से का सामना करना पड़ता है. वे आर्थिक संकट खड़ा कर देती हैं और उस दिन के लिए पछताती हैं जब उन्होंने एक महत्वपूर्ण नियामक संस्थान की अनदेखी की."

वहीं वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तीखे अंदाज में पूछा है कि यूपीए के कार्यकाल में 2008 से 2014 के बीच कर्ज देने की बाढ़ को आरबीआई क्यों नहीं रोक पाया, जिसके चलते डेढ़ सौ अरब डॉलर से ज्यादा का बकाया हो गया. आज वित्त मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि "आरबीआई से विस्तृत विचार-विमर्श जनहित में है. सरकार इस चर्चा को नहीं, बल्कि सिर्फ निर्णयों को सार्वजनिक करती है. सरकार विभिन्न मुद्दों पर अपना आकलन करती है और संभावित सुझाव देती है. वह आगे भी ऐसा ही करती रहेगी." वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि सरकार और आरबीआई के बीच हुई चर्चा को आज तक कभी सार्वजनिक नहीं किया गया है.

हालांकि जानकार आरबीआई और सरकार के बीच टकराव पर हैरान हैं. रघुराम राजन के जाने के बाद सरकार की पसंद से ही ऊर्जित पटेल की नियुक्ति की गई. नोटबंदी जैसे विवादास्पद कदम के वक्त पटेल ने आंख मूंदकर निर्देशों का पालन किया और आलोचना के  शिकार बने. मोदी सरकार ने आरबीआई को ब्याज दरें तय करने की आजादी दी. पहली बार इसके लिए छह सदस्यीय समिति बनाई गई. फिर विवाद क्यों हुआ? इसके कई कारण बताए जा रहे हैं.

आरएसएस के बेहद करीबी और स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े रहे एस गुरुमूर्ति को आरबीआई बोर्ड का सदस्य बनाने के बाद कुछ मुद्दों पर विवाद हुआ. गुरुमूर्ति ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम यानी एमएसएमई उद्ममों के लिए कर्ज के नियमों को उदार बनाने की वकालत की. उन्होंने विरल आचार्य के बहुचर्चित भाषण के खिलाफ ऊर्जित पटेल को पत्र भी लिखा है. चुनावी साल में अपना खर्च बढ़ाने के लिए सरकार की नज़रें आरबीआई के 3.6 लाख करोड़ रुपए के रिजर्व पर नजर है और वो चाहती है कि आरबीआई सरकार को यह पैसा दे. आरबीआई इसका विरोध कर रहा है, क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था पर असर पड़ सकता है. सरकार ने एलआईसी का निवेश आईडीबीआई को मदद पहुंचाने में किया और पीपीएफ की रकम एयर इंडिया को फायदा पहुंचाने के लिए देने की बात है. सरकार बजट घाटा जीडीपी का 3.3 फीसदी रखने का लक्ष्य पूरा करना चाहती है, लेकिन चुनावी साल में खर्च भी करना चाह रही है. सरकार डिजीटल भुगतान आरबीआई के दायरे से बाहर लाकर स्वतंत्र रेग्यूलेटर बनाना चाहती है जो आरबीआई को मंजूर नहीं. आरबीआई सरकारी बैंकों पर नियंत्रण बढ़ाना चाहती है जिसके लिए सरकार तैयार नहीं.

मोदी सरकार पर संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज में दखल देने का आरोप तूल पकड़ रहा है. ऐसे में क्या मोदी सरकार आरबीआई की आजादी को कम करने का जोखिम मोल ले सकती है? या फिर आरबीआई का संकट कुछ व्यक्तियों के अहम का टकराव है? जाहिर है ऐसे में जब चुनावों में कुछ महीने बचे हैं, आरबीआई जैसी संस्था से टकराव कर मोदी सरकार अपनी ही साख पर चोट पहुंचा रही है.

(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

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