त्रिशंकु लोकसभा की आशंका को लेकर जुगाड़ में जुटे विपक्षी दल

विपक्षी दल चिंतित हैं कि यदि बीजेपी पूर्ण बहुमत के बिना सबसे बड़ी पार्टी बनी तो वह छोटी पार्टियों में तोड़-फोड़ कर उन्हें अपने साथ ने मिला ले

त्रिशंकु लोकसभा की आशंका को लेकर जुगाड़ में जुटे विपक्षी दल

अभी लोकसभा चुनाव के दो चरण होने बाकी हैं. 23 मई को क्या होगा, यह कोई नहीं जानता, लेकिन कई विपक्षी पार्टियों ने सरकार बनाने के लिए अभी से जुगाड़ लगाना शुरू कर दिया है, पर इन्हें एक डर है. वह यह कि त्रिशंकु लोकसभा के हालात में बीजेपी अगर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तो कहीं राष्ट्रपति उसे सरकार बनाने के लिए न बुला लें. ऐसा 1996 में हो चुका है जब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी को सरकार बनाने के लिए बुलाया था. तब बीजेपी को 161 सीटें ही मिली थीं. वे अपना बहुमत साबित नहीं कर पाए थे और तेरह दिन में ही सरकार गिर गई थी. लेकिन विपक्षी पार्टियों को लगता है कि ऐसा इस बार हुआ तो हालात बदल सकते हैं, क्योंकि बीजेपी छोटी पार्टियों में तोड़-फोड़ कर सकती है और उन्हें अपने साथ मिलाकर बहुमत जुटा सकती है. इसीलिए 21 विपक्षी पार्टियां 19 मई को मतदान समाप्त होने के बाद राष्ट्रपति से मिलने का समय मांगेंगी.

वे कहेंगी कि त्रिशंकु लोकसभा होने पर सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए न बुलाया जाए. ये 21 पार्टियां नतीजे आने से पहले ही राष्ट्रपति को एक संयुक्त पत्र दे सकती हैं. कहा जा सकता है कि सरकार बनाने के लिए उन्हें बुलाया जाए. इस अप्रत्याक्षित और अभूतपूर्व कदम का क्या मतलब है? इस बारे में संविधान क्या कहता है? अभी दो मॉडल हैं. एक शंकर दयाल शर्मा का, जिसमें सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए बुलाया गया. दूसरा है के आर नारायणन का. इसे 1998 और 99 के चुनाव नतीजों के बाद लागू किया.

तब अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए तभी बुलाया गया, जब उन्होंने 272 सांसदों के समर्थन के पत्र उन्हें सौंपे. हालांकि सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए बुलाना कोई नियम या परंपरा नहीं है. इसकी सबसे पहले शुरुआत सही मायने में 1989 में हुई थी. तब त्रिशंकु लोकसभा बनी और इसमें 194 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी. तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण ने सरकार बनाने के लिए राजीव गांधी को आमंत्रित किया. लेकिन उन्होंने सरकार बनाने से मना कर दिया. इसके बाद वीपी सिंह की अगुवाई वाले चुनाव बाद गठबंधन को मौका दिया गया.

इसलिए अब सवाल सबसे बड़ी पार्टी का नहीं, बल्कि सबसे बड़े गठबंधन का भी है. अगर नारायणन के मॉडल को लागू किया जाए तो तो सबसे बड़े गठबंधन से भी 272 सांसदों के पत्र देने को कहा जा सकता है. गठबंधन भी दो तरह के हैं. चुनाव पूर्व और चुनाव के बाद का गठबंधन. किसे मौका मिलना चाहिए? ऐसे कई सवाल है. विपक्ष अभी से सबसे बड़े दल या चुनाव पूर्व के सबसे बड़े गठबंधन को न्यौता मिलने से रोकने में जुट गया है, क्योंकि उसे लगता है कि बीजेपी सबसे बड़े दल और एनडीए सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभर सकता है, लेकिन बहुमत से दूर रह सकता है. हालांकि नतीजे आने से पहले ही इस तरह की कवायद का क्या मतलब है? पर याद दिला दूं कि 2009 में कांग्रेस ने ही इसकी शुरुआत की थी. तब परिणाम आने से पहले ही कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा था कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाना चाहिए.

तो इस बार रामनाथ कोविंद क्या करेंगे? क्या सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को सरकार बनाने के लिए बुलाना चाहिए? या फिर उन दलों को जिनके पास 272 का आंकड़ा हो? संविधान में ऐसे हालात को लेकर कुछ नहीं कहा गया है. अनुच्छेद 75 (1) में सिर्फ इतना ही कहा गया है कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करेगा, लेकिन उसके लिए क्या शर्त है या फिर दायरा, यह राष्ट्रपति के विवेक पर ही छोड़ दिया गया है. वैसे राज्य विधानसभाओं में त्रिशंकु नतीजे आने के कई वाकये हैं. ऐसे में राज्यपाल की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है. ऐसा कई बार हुआ जब राज्यों में सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया गया, बल्कि राज्यपाल ने यह देखा की स्थाई सरकार कौन दे सकता है या फिर किस चुनाव पूर्व अथवा चुनाव बाद के गठबंधन के पास बहुमत का आंकड़ा है.

2005 में बीजेपी झारखंड की 81 सीटों में 30 सीटें मिलीं, लेकिन 17 सीटों वाले जेएमएम को सरकार बनाने का न्यौता मिला क्योंकि उसे दूसरी पार्टियों ने समर्थन दे दिया और वह बहुमत के आंकड़े को पार कर गई. 2002 में जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस 28 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन 15 सीटों वाली पीडीपी और 21 सीटों वाली कांग्रेस के गठबंधन को सरकार बनाने का मौका मिला. 2013 में बीजेपी दिल्ली में 31 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन 28 सीटों वाली आम आदमी पार्टी को कांग्रेस के समर्थन के बाद सरकार बनाने का मौका मिला.

1999 में महाराष्ट्र में कांग्रेस को 75 सीटें और उसके खिलाफ लड़ी एनसीपी को 58 सीटें मिलीं, लेकिन 125 सीटों वाले बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बजाए चुनाव बाद बने कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को मौका मिला. वैसे इस बारे में यह ध्यान रखना जरूरी है कि लोकतंत्र की जिस वेस्टमिंस्टर प्रणाली का हमने अनुपालन किया है उसमें चुनाव का मकसद सांसद या विधायक चुनना नहीं, बल्कि सरकार चुनना होता है. ऐसे में संविधान के रक्षक के तौर पर राष्ट्रपति को यह भी देखना होता है कि सरकार कौन बना सकता है.

(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)

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