अकीरा कुरोसावा की फिल्‍म 'इकीरू' जो सिखाती है नौकरशाह होने का मतलब

अकीरा कुरोसावा की फिल्‍म 'इकीरू' जो सिखाती है नौकरशाह होने का मतलब

फिल्‍म इकीरू का एक दृश्‍य (Youtube Grab)

'इकीरू' सिनेमा मात्र नहीं है. लगा कि कोई पाठशाला है जहां बैठकर बहुत कुछ पाया जा सकता है. सिनेमा के फॉर्मेट में इस पाठशाला को अकीरा कुरोसावा ने 1952 में बनाया था. जापान के इस महान फिल्मकार ने पर्दे पर जिस संवेदनशील कथ्य को गढ़ा है, वह जापानी समाज और सत्ता तंत्र के शीर्ष पे बैठे हुए एक बड़े ओहदे के नौकरशाह के जीवन-उद्देश्य के पुनराविष्कार की करुण-कथा है.

कथा का आरंभ कांजी बतानवे नाम के एक बड़े नौकरशाह की जिंदगी से होता है. कैमरा एक बड़े ब्यूरोक्रेट के कमरे से परिवेश रचता है. पब्लिक अफेयर्स का हेड कांजी बतानवे. उसके सामने लगी फाइलों के ढेर. बड़ी से मेज और उस पर पिछले 20 सालों से बैठने वाले छोटे छोटे मुलाज़िमान. एकरसता से ऊबे हुए सरकारी कर्मचारी और उनसे त्रस्त एक कस्बे के कुछ लोग जो अनुपयोगी पड़ी एक जमीन पे पार्क चाहते हैं. जहां से उनकी अर्जी शुरू होगी, कांजी उसी विभाग का हेड है. वह अपने घर का भी हेड है. पत्नी मर चुकी है. एक ही बेटा है. बहू है. दोंनो को पिता की पेंशन और तनख्वाह का पूरा पूरा लेखा जोखा पता है. जैसा बड़े ब्यूरोक्रेट्स के घरों में होता है, कांजी के घर में भी जरूरत से ज्यादा जगह है. जरूरत से ज्यादा कमरे हैं. फिर एक निरुद्देश्य और उबाऊ दिनचर्या जी रहे कांची के जीवन में एक मेडिकल चेक अप खलबली मचा देता है. कुरोसावा का सिनेमा वहीं से शुरू होता है जहां से अज्ञेय के 'शेखर' का जीवन शुरू हुआ था. "वेदना में एक शक्ति है जो दृष्टि देती है. जो यातना में है ,वह दृष्टा हो सकता है."

वेदना... वह भी मृत्यु का पूर्वाभास हो जाने की वेदना. प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक एपीक्यूरिअस ने जो कहा था और मार्क्स अपनी मौत से पहले उसी दार्शनिक का यह वाक्य अक्सर बुदबुदाते थे कि 'मौत उसके लिए कोई मुसीबत नहीं है जो मरता है,वह मुसीबत है उस शख्श के लिए जो बचा रहता है.'

कांजी मौत की इस 'मुसीबत' से बेचैन हो उठता है. उसके उदर में कैंसर निकलता है. वह हताश घर पहुंचता है जहां अपने बेटे और बहू के मुंह से अपने ही बारे में बुरा बोलते हुए सुन लेता है. मृत्यु-बोध और रिश्तों का यह क्रूर रूप देखकर कांची सिहर जाता है. 25 साल की अपनी नौकरी में पहली बार 10 लाख येन के अपने वेतन खाते से वह 'अपने लिए 'पचास हजार येन निकालता है.

और... यहीं से वह 'जीना' शुरू करता है. जापानी भाषा में इकीरु का यही अर्थ है - जीना.. अस्तित्व के अहसास के साथ. कांजी पहली बार एक क्लब जाता है. नींद की गोलियां एक जरूरतमंद को दे देता है. वह पहली बार एक इच्छा लिए जीता है. उसे पचास हजार येन खर्चने हैं. अच्छी शराब पीता है. पिलाता है. नींद की गोलियां देकर जिसे दोस्त बनाया था उसी अजनबी को साथ लेकर पहली बार कैसीनो खेलता है. वह पहली बार जोर से खिलखिलाता है. पहली बार स्ट्रिप्टीज जाता है. पहली बार रात को जल्दी नहीं लौटता है.

सुबह जब वह घर लौटता है, रास्ते में अपने ऑफिस की एक हंसमुख युवती को घर ले आता है. उस से बतियाता है. युवती गरीब है. कांजी अब भी पचास हजार येन खर्च न कर सका है. उसकी नज़र युवती के फटे हुए लेगिंग्स पर जाती है. वह उसे नए कपड़े दिलाता है. युवती नए कपड़े पाकर खुश हो जाती है और कांजी अपने मन से अपना पैसे खर्च कर.
 
कांजी को शांति नहीं मिलती. न शराब से, न क्लबों से. 25 वर्षों का व्यर्थता-बोध उसे पीसकर रख देता है. उसके पास अधिकार थे. अथॉरिटी की ताक़त थी. पद का रुतबा था. ऑफिस में रसूख़ था. उसके पास बस कोई मक़सद नहीं था. वह अपने नाम की मुहर लगाने वाली मशीन था. अपने हस्ताक्षरों की एक निरर्थक, अ-परिणामी श्रृंखला का हिस्सा था. वह शहर का एक बड़ा ब्यूरोक्रेट था. मृत्यु की बगल से उसने मुड़कर पीछे देखा उसने 'बड़ा' होकर क्या 'बड़ा' किया था...!!?

वह जी उठता है. उसकी ऑफिस में कई सालों से चक्कर लगा रहे कुछ गरीब शहरी उसे नज़र आ जाते हैं. उनका पार्क 'उसका पार्क' बन जाता है. वह 'अर्थ' से जुड़ जाता है. उद्देश्य का संलग्नक हो जाता है. वह मकसद पा जाता है.

कांजी का साथी-अफ़सर जो कांजी के कई दिनों से ऑफिस से गैर-हाज़िर होने को लेकर खुश है और उसकी 'कुर्सी' पाने के बहुत क़रीब है, कांजी को अचानक ऑफिस में पाकर उदास हो जाता है. कांजी गरीब शहरियों की पार्क की अर्जी को फिर से निकालता है. कई सालों के बाद कुर्सी छोड़कर शहर की बदबूदार गलियों में पहुंचता है. पूरे आफिस को एक 'बड़े उद्देश्य' के लिए लगा देता है.

कुरोसावा यहीं ठहरते हैं. दृश्य पलटता है. कांजी की मौत पर श्रंद्धाजलि सभा होती है. सभा में शहर का मेयर भी है जो पार्क को स्वीकृति देने का मुखर विरोधी था. मेयर ने कांजी के 'बेशर्मी' की हद तक के दुराग्रह से मजबूर होकर पार्क की फ़ाइल को मंजूरी दी थी. सभा में सवाल उठता है कि एक नीरस नौकरशाह अचानक कैसे बदल गया था? शहर में चुनाव आने वाले हैं इसलिए मेयर पार्क बनाने का श्रेय खुद ले लेता है. लोग शराब पीते हैं. पीते पीते बहस में लड़ते हैं. कोई कांजी की मौत को अवसाद से जोड़ता है. कोई किसी गुमनाम औरत के कांची के संपर्क में आने को उसके चारित्रिक बदलाव का मुख्य कारण मानता है.

शोक सभा में अचानक शहर की भीड़ आ जाती है. भीड़ कांजी को श्रंद्धाजली देती है. एक पुलिस वाला आकर बताता है कि गरीब बस्ती में कांजी ने अपने मरने से पहले जो पार्क बनवाया था, उसी पार्क में मरने से एक दिन पहले की शाम को कांजी को उसने झूला झूलते हुए देखा था. शहर में हिमपात हो रहा था. गिरती हुई बर्फ में कांजी खुश था और ये गाना गाते हुए सुना गया था...

Life is brief,
Fall in love, Maidens
Before the crimson bloom,
Fades from your lips
Before the tides of passion,
Cool within you,
For those of you
Who know no tomorrow...

'इकीरू' अकीरा कुरोसावा का ही नहीं विश्व-सिनेमा के इतिहास के सर्वश्रेष्ठ फिल्‍मों में से एक माना जाता है. कांजी बतानवे का चरित्र उस अहसास की नुमाइंदगी करता है जो ब्यूरोक्रेसी के शक्तिशाली प्ररूपों की जड़ता, उबाऊ दैनिकता और उद्देश्य-विहीन निरर्थकता से पैदा होता है. ब्यूरोक्रेसी केवल अपने हस्ताक्षर और अपने नाम की मुहर के साथ जीने का नाम नहीं है, वह कांजी बतानवे की तरह जन-कल्याण के किसी महत्तर उद्देश्य से जुड़ जाने की सार्थक अनुभूति को महसूस करने का भी उपक्रम है. यही 'इकीरु' का अर्थ है. यही 'इकीरू' का संदेश है.

यह फ़िल्म यूट्यूब पर मुफ्त में देखी जा सकती है. जो मजे से देखने के शौकीन हों, वो इकीरू की डीवीडी लेकर देख सकते हैं. फ़िल्म के तीन आयाम हैं. पहला नौकरशाही की जटिल, नीरस जीवनचर्या में मानवता और सोद्देश्यता की खोज. दूसरा अकीरा कुरोसावा का बा-कमाल निर्देशन और आखिरी, कांजी बतानवे के रोल में तकाशी शिमूरा का शानदार अभिनय. 'इकीरू' कम से कम नौकरशाहों को एक बार जरूर देखनी चाहिए.

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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