सफदरजंग अस्पताल के बाहर खड़ी एंबुलेंस की कहानी हमसे कुछ कहना चाहती है...

सफदरजंग अस्पताल के बाहर खड़ी एंबुलेंस की कहानी हमसे कुछ कहना चाहती है...

दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के बाहर के सर्विस लेन में खड़ी पचासों एंबुलेंसों को देखकर जाने क्यों लगा कि कोई कहानी होगी. पहली नजर में देखकर मुड़ गया कि वही कहानी होगी कि पड़ोस के राज्यों में अस्पताल अच्छे नहीं होंगे, वहां से मरीज एम्स या सफदरजंग लाए जाते होंगे. मन नहीं माना तो एक बार फिर लौट कर गया कि कुछ और जानने का प्रयास किया जाए. एंबुलेंस के चालक थके हुए थे. आंखें लाल थीं मगर सब अपनी गाड़ी से उतर आए. अपनी समस्या बताने के लिए.

 
rajesh mishra ambulance driver delhi

राजेश कुमार मिश्रा 34 साल से एंबुलेंस चला रहे हैं. इन वर्षों में मरीज को लाने, बचने और न बचने के बीच जीवन को लेकर उनकी अपनी समझ क्या बनी होगी, जानने का वक्त नहीं मिला. मगर मिश्रा जी कहने लगे कि सफदरजंग अस्पताल से हर दिन दस पंद्रह बॉडी निकलती हैं. हम लोग अगर नहीं ले जाएंगे तो कौन ले जाएगा. मरीज के परिवार वाले बदहवास बाहर आते हैं और हमें खोजने लगते हैं. हम शवों को लेकर मिजोरम, असम, नगालैंड और चेन्नई तक जाते हैं. यूपी, बिहार और बंगाल तो हर घंटे गाड़ियां दौड़ती रहती हैं. राजेश मिश्रा ने कहा कि हमें सरकार से कुछ नहीं चाहिए. हम यही चाहते हैं कि हमें गाड़ी लगाने की कोई जगह दे दें. कोई जगह नहीं है तो यही जगह दे दें क्योंकि शव तो हमीं ले जाते हैं. हमारे अलावा कौन तिनसुकिया या इम्फाल लेकर जाएगा.
 
ravish kumar ambulance story

तिनसुकिया का नाम सुनते ही कुछ और सवालों ने धक्का देना शुरू कर दिया. राजेश मिश्रा ने बताया कि 1800 किमी की यात्रा के लिए मरीज से 35,000 रुपया लेते हैं. किसी का कोई अपना चला गया हो और उसे उसकी मिट्टी तक पहुंचाने के लिए यह राशि तो बहुत है. मिश्रा जी ने कहा कि क्या कीजिएगा, इससे कम में ले ही नहीं जा सकते. प्रत्येक हजार किमी पर बर्फ की सिल्ली बदलनी पड़ती है. उसका खर्चा है. हम लगातार चलते हैं. कहीं नहीं रुकते हैं इसलिए दो ड्राइवर होते हैं. दिल्ली से तिनसुकिया तीन दिन में पहुंचा देते हैं. शव के साथ बैठे लोग किस मानसिक हालत में तीन दिन रहते होंगे, कल्पना करने से ही जी घबराने लगा.

दिल्ली सरकार और पुलिस को राजेश मिश्रा जैसों की बातों पर गौर करना चाहिए. ये एंबुलेंस वाले वाकई मानव सेवा कर रहे हैं. मेरे मित्र दीपक ने कहा कि सरकार चाहे तो हर ट्रेन में शव ले जाने की व्यवस्था कर सकती है. एबुंलेंस से वही ले जाते होंगे जो हवाई जहाज का खर्चा नहीं उठा सकते. अगर पार्सल वैन में एक या दो शवों को ले जाने का इंतजाम हो तो आम लोगों को कितनी भावनात्मक राहत मिलेगी.
 
safdarjung hospital ambulance parking
इस तस्वीर में आप देख सकते हैं कि सफदरजंग अस्पताल के बाहर पेशाब की धारा बह रही है. बदबू के कारण वहां से गुजरना मुश्किल हो रहा था. तमाम ड्राईवर गाड़ियों से निकलकर दिखाने लगे. जबकि सफदरजंग अस्पताल के बाहर दो सार्वजनिक शौचालय बने हुए हैं. वे मुफ्त नहीं हैं. हम यह नहीं समझ सकते कि किसी के लिए दो रुपये देना मुश्किल होता होगा या फिर आदत से भी कुछ लाचार होते होंगे. मगर अस्पताल के बाहर के शौचालय की सेवा मुफ्त ही होनी चाहिए.

अस्पताल के बाहर काफी गंदगी थी, जबकि गेट पर स्वच्छता के पोस्टर लहरा रहे थे. इन तमाम अव्यवस्थाओं के बीच एक सज्जन मिले जो बताने लगे कि हर महीने के पहले सप्ताह में एम्स और सफदरजंग अस्पताल के बाहर भंडारा करते हैं. गरीब लोगों को भोजन कराते हैं. आज भी उन्होंने भंडारा लगाया था. किसी सफाई वाले को पैसा देकर कचरा साफ करा दिया लेकिन जब तक सिस्टम नहीं होगा तब तक कचरा साफ कैसे होगा. हमारे आसपास कितनी कहानियां बिखरी हैं, जिनके सामने आने से न जाने किसकी जिंदगी में कुछ सुकून पहुंच जाए.

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