अमित शाह का बयान और भाषाओं की सांप्रदायिकता

अविचारित राष्ट्र प्रेम हो, धर्म प्रेम हो, या भाषा प्रेम हो, उसके नतीजे ख़तरनाक होते हैं. हिंदी को देश की राष्ट्रीय भाषा बनाने की बात कर उन्होंने अचानक उन लोगों को हिंदी विरोधी बना डाला है, जिनका अन्यथा हिंदी से कोई बैर नहीं है.

अमित शाह का बयान और भाषाओं की सांप्रदायिकता

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने हिंदी को लेकर अचानक जो विवाद पैदा किया, क्या उसकी कोई ज़रूरत थी? क्या बीजेपी के पास वाकई कोई भाषा नीति है जिसके तहत वह हिंदी को बढ़ावा देना चाहती है? या वह हिंदू-हिंदी हिंदुस्तान के पुराने जनसंघी नारे को अपनी वैचारिक विरासत की तरह फिर से आगे बढ़ा रही है?

अविचारित राष्ट्र प्रेम हो, धर्म प्रेम हो, या भाषा प्रेम हो, उसके नतीजे ख़तरनाक होते हैं. हिंदी को देश की राष्ट्रीय भाषा बनाने की बात कर उन्होंने अचानक उन लोगों को हिंदी विरोधी बना डाला है, जिनका अन्यथा हिंदी से कोई बैर नहीं है. हालत यह है कि दक्षिण भारत के बीजेपी के अपने मुख्यमंत्री तक अमित शाह की राय से सहमत नहीं हैं. वे कन्नड़ को बढ़ावा देने की बात कर रहे हैं.

फिलहाल अमित शाह के वक्तव्य के अलग-अलग पक्षों को समझने की कोशिश करें. हिंदी को अपने फैलाव या विस्तार के लिए किसी राजकृपा या राज्याश्रय की जरूरत नहीं है, यह बात स्वतः प्रमाणित है. साहित्य और सिनेमा के लिहाज से हिंदी वाकई राष्ट्रीय भाषा है. उसने बहुत उदारता और लगाव के साथ दूसरी भाषाओं के लेखकों को अपनाया है और भाषाओं के बीच पुल बनाए हैं. हिंदी के आम पाठकों के लिए मराठी के विजय तेंदुलकर और नामदेव ढसाल भी हिंदी के लेखक हैं, बांग्ला के शरत और विमल मित्र या महाश्वेती देवी भी, कन्नड़ के गिरीश कर्नाड भी, पंजाबी की अमृता प्रीतम भी- मीर और ग़ालिब तो हिंदी के लेखक हैं ही.

टीवी सीरियलों और सिनेमा में भी हिंदी का जो अखिल भारतीय फैलाव है वह हिंदीभाषियों को प्रमुदित करने के लिए पर्याप्त है. मोबाइल और इंटरनेट पर हिंदी के फैलाव की रफ़्तार उत्साहवर्द्धक है. दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई हो रही है. दुनिया के कई देशों में- खराब ही सही- लेकिन हिंदी के लेखक दिखाई पड़ रहे हैं.

यह एक गुलाबी परिदृश्य है जिसके बीच अमित शाह नाम का कोई नेता अगर हिंदी के सरोवर में राजनीति का पत्थर डालता है तो उसकी हलचलें दूर तक जाती हैं. अचानक हिंदी को लेकर कई लोगों की भृकुटियां तन जाती हैं?

फिर पूछना होगा, इसकी क्या ज़रूरत थी? क्योंकि एक स्तर पर हिंदी अगर फैलती दिख रही है तो दूसरे स्तर पर सिकुड़ती नज़र आ रही है. हम पा रहे हैं कि हिंदी माध्यम के स्कूल लगातार बंद हो रहे हैं और अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल खुलते जा रहे हैं. भारत की मध्यवर्गीय पट्टी की युवा पीढ़ी में हिंदी एक छूटी हुई भाषा है जिसे उनके मां-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी बोलते हैं. मध्यवर्गीय घरों में हिंदी की किताबें अब न ख़रीदी जाती हैं और न पढ़ी जाती हैं. सच तो यह है कि हिंदी बस एक बोली में बदल कर रह गई है जिसमें सिनेमा बन सकता है. टीवी सीरियल बन सकते हैं, अंग्रेजी मुहावरों से भरी क्रिकेट कमेंटरी चल सकती है और वैसे ही अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो सकते हैं जैसे भोजपुरी के हुआ करते हैं. हिंदी में ज्ञान-विज्ञान के दूसरे अनुशासनों में विशेषज्ञता का काम लगभग असंभव बना दिया गया है. भौतिकी, रसायन या जीव विज्ञान ही नहीं, अब इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान भी किसी पिछड़ी भाषा के शब्द मान लिए गए हैं. हिंदी का पाठक ज़्यादा से ज़्यादा अनुवाद में यह ज्ञान पाकर ख़ुश है. अख़बारों और टीवी चैनलों में जो हिंदी चल और फैल रही है, वह अंग्रेज़ी की बैसाखियों पर चलती ऐसी स्मृतिविहीन और सरोकारविपन्न हिंदी है जिसमें कुछ सनसनीखेज अफवाहनुमा ख़बरें ही चलाई जाती हैं. हिंदी के गंभीर कहलाने वाले अख़बारों के संपादकों को भी हिंदी लिखने का शऊर नहीं है. पत्रकारिता को टक्कर देती हालत विश्वविद्यालयों की है जहां हिंदी के 90 फ़ीसदी प्राध्यापक सही हिंदी नहीं लिख सकते.

इसके समानांतर अंग्रेजी का साम्राज्य जैसे लगातार बड़ा होता जा रहा है. अंग्रेजी के लेखक अब खुद को भारतीय लेखक कहने लगे हैं. उनकी किताबों पर हिंदी फिल्में बना करती हैं. जबकि हिंदी लेखक किसी इत्तिफ़ाक से याद या इस्तेमाल कर लिया जाने वाला प्राणी है. अंग्रेज़ी इस देश में विशेषाधिकार की भाषा है, नौकरी की गारंटी की भाषा है, बहुत सारी अयोग्यताओं पर पर्दा डाल सकने वाली भाषा है. अंग्रेज़ी के किसी अप्रचलित शब्द का इस्तेमाल आपको सम्माननीय बनाता है जबकि हिंदी में यही काम आपको हास्यास्पद बना सकता है- बना देता है.

मोदी सरकार और बीजेपी की भाषा और संस्कृति नीति पर लौटें. यह दिखाई पड़ता है कि बीजेपी को भारतीयता से प्रेम है. लेकिन भारतीयता का मतलब उसके लिए क्या है- यह साफ नहीं है. हिंदुत्व के प्रति उसका अतिरिक्त आग्रह उल्टे इस भारतीयता को कमज़ोर करता है. इसी तरह वह जनसंघ के ज़माने से हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की बात करती रही है, लेकिन उसके लिए हिंदी भी एक मिथ्या गर्व की अभिव्यक्ति का मामला दिखाई पड़ती है. उसके नेता जो हिंदी बोलते हैं, वह दर्प और दावे की हिंदी होती है, संवेदना की नहीं. उसकी योजनाओं में भी हिंदी का यह इस्तेमाल कम दिखता है. स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया जैसी उसकी योजनाएं बताती हैं कि उसके लिए विकास की अवधारणा भी अंग्रेजी में आती है, हिंदी में नहीं. फिर दुहराने की ज़रूरत है कि हिंदी उसके लिए प्राचीन गौरव की वह भाषा है जिसमें उर्दू-फ़ारसी के शब्द न हों, वह वैसी पंडिताऊ हिंदी हो जिसमें ज्ञान-विज्ञान भले न हो सके, संस्कृत की ख़ुशबू आए. यह अनायास नहीं है कि बीजेपी के हिंदी प्रेमियों का संस्कृत प्रेम भी प्रबल है- वे संस्कृत में शपथ तक लेते देखे गए हैं.

संस्कृत से किसी का विरोध नहीं होना चाहिए. संस्कृत एक समृद्ध भाषा है, लेकिन उसका एक शास्त्रीय महत्व है और उसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए. वह किसी क्षेत्र में बोली नहीं जाती. वह हमारी विरासत का हिस्सा है. संकट यह है कि कुछ लोगों का संस्कृत प्रेम उनके स्थूल संस्कृति प्रेम से आगे नहीं बढ़ पाता. संस्कृत सीखना तो दूर, वे साफ-सुथरी हिंदी या कोई और भाषा भी लिखने-बोलने को तैयार नहीं. भाषा दरअसल उनके लिए धर्म की तरह ही एक सांप्रदायिक एजेंडा है.

अगर नहीं होती तो अमित शाह हिंदी की नहीं, भारतीय भाषाओं की बात करते. वे अंग्रेजी की अपरिहार्यता से इस क़दर आक्रांत नहीं होते तो अपने वक्तव्य में अंग्रेजी का नाम लेने से भी हिचकते और सिर्फ़ विदेशी भाषा की बात करके रह जाते.

दरअसल इक्कीसवीं सदी के भारत की भाषिक चुनौतियों के कम से कम तीन मोर्चे हैं. पहला मोर्चा तो अंग्रेज़ी के विशेषाधिकार से मुक्ति का है, अंग्रेज़ी से नहीं. एक भाषा के रूप में अंग्रेज़ी बहुत दूर तक भारतीय भाषा हो चुकी है, बहुत सारे स्कूल-कॉलेज और संस्थान अंग्रेज़ी में ही चलते हैं. जैसे-जैसे अंग्रेज़ी सीखने वाले बढ़ रहे हैं, वह विशेषाधिकार कमज़ोर पड़ रहा है. लेकिन यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि अंग्रेज़ी नवउपनिवेशवाद का ज़रिया न हो. इसके लिए ज़रूरी है कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं को समृद्ध बनाया जाए. उनमें रोटी और रोज़गार, ज्ञान-विज्ञान के रास्ते खोजे और खोले जाएं. यह दूसरा मोर्चा है. अच्छी बात यह है कि अगर हिंदी का एक बड़ा तबका अंग्रेज़ी में जा चुका है तो हाशिए पर पड़े उन समुदायों का एक नया तबका हिंदी से जुड़ा भी है जिनके बच्चे पहली बार स्कूल जा रहे हैं. इस तरह से देखें तो हिंदी अपने ब्राह्मणवाद की केंचुल कुछ-कुछ उतार रही है जिसे अंग्रेज़ी पहन रही है. हिंदी अब दलित-आदिवासी-स्त्री प्रतिरोध की भाषा है, वह मराठी, बांग्ला, तमिल-तेलुगू, उर्दू की प्रतिस्पर्द्धी नहीं, उनके साथ बहनापे में चलने वाली भाषा है.

लेकिन तीसरा और सबसे मुश्किल मोर्चा यहीं से खुलता है. अंततः ये सारी भारतीय भाषाएं संकट में हैं. इन भाषाओं में आ रही नई पीढ़ियां अपना भविष्य अंग्रेज़ी में देख रही हैं. अभी जो लोग सिनेमा, टीवी सीरियल और इंटरनेट पर हिंदी की तरक्की देख कर बहुत खुश हैं, उन्हें एहसास नहीं है कि अगले दो दशकों में इस तरक़्क़ी के भाप बन कर उड़ जाने का ख़तरा है. इस ख़तरे से बेख़बर भारतीय भाषाएं आपस में लड़ रही हैं. अमित शाह के बयान ने इस लड़ाई में कुछ घी ही डाला है- आख़िर भाषाओं की भी सांप्रदायिकता होती है.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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