कन्हैया कुमार के नाम खुला खत

कन्हैया कुमार के नाम खुला खत

पटियाला हाउस कोर्ट में पेशी के लिए जाते जेएनयू के छात्र नेता कन्‍हैया कुमार

नई दिल्‍ली:

देखा था तुम्हारा चेहरा जब दिल्ली पुलिस तुम्हें गिरफ़्तार कर ले जा रही थी। एक अजीब सा भाव था तुम्हारे चेहरे पर। डर! शिकन! पछतावा! न! न!! ये सब कुछ नहीं था। शायद छलावा या छले जाने का भाव प्रतिबिंबित हो रहा था तुम्हारी शक्ल पर।

जब तुम कह रहे थे कि हमने कोई भी देश विरोधी नारेबाजी नहीं की है तो न जाने क्यों यकीन करने को जी चाहा। हालांकि दिल्ली पुलिस बार-बार कह रही है कि तुम्हारे ख़िलाफ़ पर्याप्त सबूत हैं। वैसे दिल्ली पुलिस ने आईपीएल स्पॉट फ़िक्सिंग मामले में क्रिकेटर शांताकुमारन श्रीसंत, अजीत चंदीला, अंकित चव्हाण को गिरफ़्तार किया था तब भी पुख़्ता सबूत होने का दावा किया था। अदालत में उन सबूतों की धज्जियां उड़ गयीं।

पड़ताल और तसल्ली के लिए यू-ट्यूब पर तुम्हारे कई वीडियो खंगाल डाले। करीब 22 मिनट के उस विवादित दिन के वीडियो में तुम्हारे भाषण में आपत्तिजनक कुछ नहीं लगा। तुम संविधान, लोकतंत्र और और तिरंगे की सम्मान की बातें कर रहे थे। आरएसएस, भाजपा और मनुवाद की मुखालफ़त करने वाले तुम पहले शख्स नहीं हो जिसके लिए तुम्हारे ऊपर 'देशद्रोही' का मुकदमा ठोक दिया जाए। हां, एक जगह तुम ये कह गए - "कौन है कसाब? कौन है अफ़जल गुरु? कौन हैं ये लोग जो इस स्थिति में हैं जो अपने शरीर में बम बांध कर हत्या करने को तैयार हैं? इन पर यूनिवर्सिटी में बहस होनी चाहिए।"

मेरे ख़्याल से कसाब और अफ़जल का बेवजह ज़िक्र शायद तुम वाचालता के कारण कर गए। 22 मिनट तक लगातार बोलोगे तो जुबान कहीं न कहीं फिसलेगी ही। जिनका तुम पुरजोर विरोध कर रहे हो उन पर भी 'बातों के ही बादशाह" बनने की तोहमत लगती है। वो भी बात "सुनते नहीं, सुनाते" हैं। तुम अलग क्या कर रहे हो?

'अति' से हमेशा बचना चाहिए। कम और नाप तोल कर बोलो। तुम फांसी का विरोध करते हो तो फांसी तक ही सीमित रहते। कसाब तक क्यों पहुंच गए?

तुम्हारा भाषण मैंने कई बार सुना। तुम व्यवस्था से शिकायत कर रहे हो। संघ और सरकार की आलोचना कर रहे हो। मनुवाद का विरोध कर रहे हो। तुम संविधान और संसद के जरिए बदलाव की बात कर रहे हो। लेकिन ये सब होगा कैसे इसके लिए तुम्हारी कोई ठोस योजना नज़र नहीं आती। भाषण, शिकायत और आलोचना ये मौज़ूदा पीढ़ी को नहीं लुभाते। योजना क्या है तुम्हारी? समाधान क्या है तुम्हारे पास? ये आज की पीढ़ी जानना चाहती है। तुम्हारे खुद के राज्य में पिछले चुनाव में जमकर भाषणबाज़ी हुई। जुमले चले। एक दूसरे पर शब्दों से कीचड़ उलीचे गए। आश्वासन की बरसात होती रही। लेकिन जनता को लगा कि नीतीश कुमार ने काम किया है और आगे भी करेंगे। दिल्ली में भी यही हुआ। राष्ट्रीय पार्टी के वादों पर किसी ने यकीन ही नहीं किया और मैग्‍सेसे पुरस्कार विजेता एक पूर्व आईआरएस अधिकारी जो खुद को 'अराजक' कह रहा था, उसमें विश्वास जता दिया। आज के लोग जागरुक हैं। भरमाएंगे नहीं।

निंदा सिर्फ़ निंदा के लिए नहीं होनी चाहिए। आलोचना 'सेलेक्टिव' नहीं होनी चाहिए। किसी को 'तुष्ट' करने के लिए नहीं होनी चाहिए। सबसे पुराने राष्ट्रीय दल कांग्रेस की इस नीति का परिणाम हुआ कि पिछले चुनाव में वोटों का ध्रुवीकरण हो गया। अगले चुनाव में भी ये पार्टी चुनौती पेश कर पाएगी तो भाजपा की गलतियों की वज़ह से। न कि अपने किसी करिश्माई फ़ैसले या नीति के कारण। दादरी में अगर गलत हुआ तो मिदनापुर की घटना भी उतनी ही शर्मनाक है। एक पर बवाल और दूसरे पर चुप्पी से समाज में खतरनाक रूप लामबंद और गोलबंद हुआ है।

शायद उस शाम तुम्हारे साथियों ने ही तुमसे छल कर दिया। तुम्हारे मंच का उपयोग भारत विरोधी नारेबाजी के लिए कर लिया। तुम ठग लिए गए। ये ऐसी घटना थी जिससे 'भक्तों' की भवें तननी तो तय ही थीं, साथ ही आम देशभक्त को भी ये बात नागवार गुजरी है। वामपंथ के गढ़ में दक्षिणपंथ को तुमने थाली में परोस कर मौक़ा दे दिया। तुम्हारी सभा थी तो ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी बनती थी कि ऐसे देश के समर्थन में नारे नहीं लगें जो हमें बार-बार घाव देता रहा है। देश के टुकड़े करने की बातें नहीं हों।

कैसे कश्मीर दे दें? सममझते हो इसका मतलब? एक "फ़ेल्ड स्टेट" जो दुनिया भर के आतंकवादियों का पनाहगार बना हुआ है, उसे कश्मीर देकर अपने और करीब आने की कैसे इजाज़त दी सकती है? ये तो आ बैल मुझे मार वाली बात हुई। कैसा मुगालता है ये? एक डूबते राष्ट्र के साथ जुड़ कर कोई कैसे बेहतर जहां की कल्पना कर सकता है?

तुम्हारी ज़िम्मेवारी इसलिए भी बनती है क्योंकि तुम छात्र संघ के मुखिया हो। तुमने शायद स्पाइडरमैन का मशहूर डायलॉग सुना होगा- 'असीम ताकत के साथ, असीम ज़िम्मेदारी आती है।' क्रिकेट के मैदान पर भी टीम जब स्लो ओवर रेट से गेंदबाज़ी करती है तो मैच बैन की सज़ा कप्तान को मिलती है। उस शाम छात्र संघ के अध्यक्ष की ज़िम्मेवारी तुम नहीं निभा पाए। तुमने घटनाक्रम को हल्के में लिया। सोचा कि चलता आया है, इस बार भी चल जाएगा। तुम हालात की विकरालता को भांप नहीं पाए। तुम्हें पता था कि कैंपस में भड़काने वाले पोस्टर लगाए जा रहे हैं। तुम्हारे साथ गलत लोग खड़े हैं। लेकिन फिर भी तुमने सभा की और दक्षिणपंथियों और अलगाववादियों दोनों के लिए मंच उपलब्ध करा दिया।

लेकिन तुमसे बड़ी जवाबदेही हुक्मरानों की बनती है। बात इस नौबत तक पहुंची ही क्यों? देश की राजधानी के सीने पर राष्ट्रविरोधी कारगुजारियां हो रही थीं और प्रशासन को पता नहीं था? और जो इसमें शामिल थे उन असली मुजरिमों को अब तक क्यों नहीं पकड़ा गया है?

ये खुला खत लिखते समय मैंने तुम्हें तुम इसलिए कहा क्योंकि तुम मेरे ही राज्य के एक नौजवान हो। तुम छोटे भी हो लेकिन कुछ ही दिनों में जेल से बाहर आने के बाद काफ़ी बड़े हो चुके होगे। अपनी सोच और अपने करियर दोनों में तुम बड़ी छलांग लगा चुके होगे। जानकार वैसे भी कह रहे हैं कि राष्ट्रद्रोह का केस तुम पर न बनता है और न ही न्यायालय में टिक पाएगा।

ये पत्र किसी राजनीति के विशारद पत्रकार का नहीं है। इसे एक आम आवाज़ समझना।

तुम्हारा ही
संजय किशोर

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में एसोसिएट एडिटर हैं...

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